राजनैतिक चंदा और धूर्त व्यापारी।
लगभग चालीस वर्ष पहले की बात है. एक स्थान पर कुछ साधु बाबा लोगों का प्रवचन चल रहा था. प्रवचन सुनकर आये लोग बाबा की कही गयी बातों का खूब बखान और तारीफ कर रहे थे. मेरी भी उत्सुकता प्रवचन सुनने की बढ़ने लगी . समय निकाल कर एक दिन मैं भी बाबा के पास पँहुच गया. प्रवचन सुनने वालों की भीड़ लगभग सौ से पार कर गयी थी; बैठने की जगह कोई गुंजाइस नहीं थी. उस दिन के प्रवचन का विषय था- "व्यवसाय में नैतिकता". मैंने देखा कि भीड़ धीरे-धीरे खिसक रही है; लोग तरह-तरह के बहाने बनाकर जा रहे थे. लगभग पन्द्रह मिनट में ही भीड़ सिकुड़ कर बीस-बाइस लोगों की रह गयी थी थी. बचे हुए लोग गम्भीर श्रोता लग रहे थे. उन्ही लोगों में प्रवचन के व्यवस्थापक मण्डली के लोग भी थे. प्रवचन देने वाले बाबा भी क्षीण हो गयी भीड़ का कारण समझ रहे थे और मुस्कुरा भी रहे थे. बाबा बताने लगे कि वे कल श्रोताओं के बीच में बैठे थे और भीड़ एक घण्टे के अन्त तक डटी रही थी. कल के प्रवचन का विषय था- "परेशानी और उनका धार्मिक निदान" और कल के प्रायः सभी श्रोता सन्तुष्ट होकर प्रवचन स्थल से अपने घरों को गये थे. बाबा इस बात से तनिक भी