पावर पावर की बात है!
बहुत दिन पहले की बात है. गोरे अंग्रेज तो चले गये थे लेकिन अपने चमचों को काले अंग्रेज़ के रूप में छोड़ गये थे. कई राज्य सरकारों ने हिन्दी को अपनी राज-काज की भाषा स्वीकार कर ली थी. निचले कर्मचारी हिन्दी को राज-काज की भाषा घोषित किये जाने से बहुत खुश थे, लेकिन ख़ुशी की मात्रा अधिकारियों में कम थी. (1) रविवार के छुट्टी के दिन दो साहब लंच पर मिले। दोनों के साथ उनकी सेवा में उनके अर्दली भी थे. पहले आज के सहायक को अर्दली कहा जाता था. आज भी बहुत से लोग सहायकों को अर्दली ही कहते हैं. उनमे से एक साहब फौजी अफसर थे और दूसरे किसी अन्य विभाग के अधिकारी थे. फौजी अफसर ने दूसरे अफसर से लंच के गपशप में बताया कि उसका अर्दली बहुत बेवकूफ है. दूसरे अफसर भी गप्पबाज़ी में पीछे नहीं थे सो उन्होंने भी अपने अर्दली को एक नम्बर का बेवकूफ बताया। दोनों साहबों में अर्दलियों की बेवकूफी साबित करने की होड़ लग गयी. फौजी साहब ने आवाज दी- अर्दली! बाहर खड़े अर्दली ने अपने साहब की आवाज पहचान कर भोजन कक्ष में दाखिल हुआ और सलामी की औपचारिकता निभायी। फौजी साहब ने उसे दस रुपये देकर बाजार से एक टैंक खरीद कर लाने का