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Showing posts from May, 2017

परिवार में लड़कियों और महिलाओं का आर्थिक योगदान

    सभ्यता के प्रारम्भ में जब परिवार की अवधारणा साकार होने लगी और लोग खेती या पशुपालन करने लगे तब परिवार में श्रम-विभाजन होने लगा. धीरे-धीरे कालान्तर में परिवार के पुरुष सिर्फ कमाने का कार्य करते लगे जबकि खाना बनाने से लेकर घर सम्हालने का दायित्व महिलायें उठाने लगीं। धीरे-धीरे परिवार की स्थिति ऐसी हो गयी कि अगर परिवार की कोई महिला सदस्य बिमार पड़ जाय तो उसका कार्य करना दूसरों के लिये विशेषकर उस परिवार के पुरुष सदस्य के लिये कठिन हो जाता था. श्रम-विभाजन के मजबूत होने से परिवार भी मजबूत और खुशहाल होने लगा. इसी के विपरीत जिस परिवार में श्रम-विभाजन कमजोर रहा या परिवार का कोई सदस्य अपना दायित्व का निर्वहन ठीक से नहीं किया तो उस परिवार की आर्थिक स्थिति कमजोर होने लगी. इसी तरह बड़ा परिवार होने पर संयुक्त परिवार का निर्माण हुआ. महिलाओं के काम करने के कारण हजारों साल तक परिवार कलहविहीन रहा; समाज में शान्ति रही.     दुनिया में सबसे ज्यादा लड़ाइयाँ लगभग डेढ़ सहस्त्राब्दी से लेकर द्वितीय विश्वयुद्ध तक हुई हैं. इन लड़ाइयों में बहुत ज्यादा पुरुषों के मारे जाने से बहुत दे देशों या समाजों में पुरुषों की

Consular Access का एक पुराना प्रकरण

    इमरजेंसी अपने अन्तिम चरण यानि इसके समाप्ति की ओर लग रहा था. वर्ष 1977 के प्रारम्भ में मोतिहारी के कचहरी में धारा 250 दण्ड प्रक्रिया संहिता के अन्तर्गत एक प्रकरण आया था. इस मामले में जेल से छूटकर आये भारतीय मूल के एक ब्रिटिश नागरिक सेठी साहेब(बदला हुआ नाम) ने छः महीने तक बेवजह जेल में डालने हेतु स्थानीय प्रशासन से एक लाख रुपये के मुआबजे की माँग की थी. कचहरी में जानकार लोगों का कहना था कि मोतिहारी कचहरी का यह पहला और अनोखा मामला है. इस कारण लोगों में यह मामला चर्चा का विषय बन गया. यह मामला इसलिये भी चर्चित हुआ कि इमरजेंसी के दिनों में प्रशासन से मुआबजा की माँग करना भी एक बड़ा हिम्मत का काम था.     यह एक Consular Access का प्रकरण था. सेठी साहेब को बिना VISA के भारत में रहने के आरोप में विदेशी अधिनियम की धारा 14 के अन्तर्गत जेल भेजा गया था. पहले तो सेठी साहेब इमरजेंसी से काफी डर गये थे. कुछ दिन के बाद मोतिहारी जेल में इन्हे लगा कि इन्होने कोई गलती नहीं की है. भारत और ब्रिटेन के एक समझौता के अनुसार कोई भी ब्रिटिश नागरिक छः महीने तक भारत में बिना VISA के रह सकता है. अगर इनका बिना VISA क

बाल-विवाह एक सामाजिक कुप्रथा के साथ महिला उत्पीड़न भी है

    भले ही हम इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक के अन्त की ओर बढ़ रहे हों, लेकिन दो-तीन वर्ष पहले तक बिहार के कैमूर और चम्पारण क्षेत्र तथा उत्तर प्रदेश के चन्दौली आदि इलाकों में आधे से अधिक शादियाँ उम्र की क़ानूनी सीमा के नीचे ही हो रही थीं. यानि हाल-फ़िलहाल तक बाल-विवाह बड़े पैमाने पर हो रहे थे. बाल-विवाह प्रायः सभी जातियों के आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग में ज्यादा प्रचलित था. अगर आप कैमूर, चम्पारण, चन्दौली आदि जिलों के ग्रामीण क्षेत्रों में कभी भ्रमण किये हों तो स्कूल से आती-जाती बहुत सी ऐसी बच्चियों के दर्शन अवश्य हुए होंगे, जिनके मांग में सिन्दूर चमक रहा होता था. कुछ लोग कहते हैं कि अब यह कुप्रथा बन्द हो गयी है, लेकिन अभी भी बाल-विवाह वाली बहुत सी बच्चियाँ हैं जिनका गवना होना अभी बाकी है.     बाल-विवाह में "छेंका", "तिलक", "शादी" और "गवना" के कुल चार भाग होते हैं. सभी जानते हैं किसी भी बच्ची के बाल-विवाह बिना "गवना" के पूर्ण नहीं माना जाता। फिर भी हमारे समाज में जब कभी भी बाल-विवाहित किसी औरत की अस्वाभाविक उसके गवना के सात साल के अन्दर हो जाती

एक पूर्व जमींदार साहेब का जलसा!

    आज़ादी के कुछ ही सालों बाद सरकार द्वारा जमींदारी प्रथा समाप्त कर दी गयी. लेकिन जमींदार लोगों के पास अभी भी काफी जमीन बच गयी थी. एक ऐसे ही जमींदार साहेब को अपने और अपने खानदान की शान और अपने भविष्य की चिन्ता सताने लगी.     उस जमींदार साहेब के इलाके के ही एक गांव में एक मेहनती किसान रहते थे. वे आसानी से पैसा कमाने या अनकर पैसा चतुराई से ले लेने में विश्वास नहीं रखते थे. उस किसान को नये ज़माने के साथ-साथ चलने की भी बड़ी ललक थी. इसलिये वे अपने एक मात्र पुत्र को एक बड़ा इंजीनियर बनाना चाहते थे. इसके लिये उन्होंने अपने पुत्र सुमित को हमेशा उत्प्रेरित करते रहते थे.     अब उनके पुत्र के मन में भी इंजीनियर बनने की लालसा बढ़ने लगी और अपने लक्ष्य की प्राप्ति हेतु मन लगाकर पढ़ने लगा. उसका मेहनत व लगन रंग लाया और उस लड़के का दाखिला एक अच्छे सरकारी इंजीनियरिंग शिक्षण संस्थान में हो गया. जब उक्त जमींदार साहेब को इस बात की जानकारी हुई कि उनके इलाके का एक किसान के बेटे का नाम इंजीनियरिंग में लिखा गया है तब यह बात उनकी शान पर बन आयी. उन्होंने अपने कुछ खेत बेंचकर और अपने जुगाड़ के बल पर अपने बेटे का नाम भ

PSU के निर्माण/विनिवेश से भी राष्ट्रीय सम्पदा का सृजन हो सकता है.

    प्रथम, द्वितीय और तृतीय पञ्च वर्षीय योजनाओं में मिश्रित अर्थ-व्यवस्था पर काफी जोर दिया गया और सिर्फ यही व्यवस्था हमारे देश के अनुकूल बताया गया. यह भी बताया गया कि मिश्रित अर्थ-व्यवस्था ही हमारे देश को एक आर्थिक महाशक्ति के रूप में स्थापित करेगा। इसी अवधारणा को साकार करते हुए बोकारो, चितरंजन, दुर्गापुर, हटिया, राउरकेला और भिलाई आदि स्थानों पर बड़े-बड़े केन्द्रीय सार्वजनिक उपक्रम लगाये गये. इन्ही नीतियों का अनुसरण करते हुए राज्य सरकारों ने भी बहुत से सार्वजनिक उपक्रम लगाये। इन उपक्रमों के चालू हो जाने से प्रगति का एक नया युग का प्रारम्भ हुआ और बड़ी संख्या में प्रतिभावान लोगों को नौरकरी मिली तथा आगे भी विद्यार्थियों को मन लगाकर पढ़ने की प्रेरणा मिली।     फिर पिछली शताब्दी के सत्तर के दशक के आसपास आया राष्ट्रीयकरण का एक युग. इस युग में निजी कोयला कम्पनियों, निजी बैंकों आदि का राष्ट्रीयकरण किया गया. इससे भी कई निजी कम्पनियाँ रातोंरात सरकारी कम्पनियों में बदलने लगीं। अब ये सभी कम्पनियाँ सरकारी उपक्रम कहलाने लगीं।     अस्सी के दशक में इन उपक्रमों की प्रबन्धकीय व्यवस्था पर धूर्त नेता और नौक