बाल-विवाह एक सामाजिक कुप्रथा के साथ महिला उत्पीड़न भी है

    भले ही हम इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक के अन्त की ओर बढ़ रहे हों, लेकिन दो-तीन वर्ष पहले तक बिहार के कैमूर और चम्पारण क्षेत्र तथा उत्तर प्रदेश के चन्दौली आदि इलाकों में आधे से अधिक शादियाँ उम्र की क़ानूनी सीमा के नीचे ही हो रही थीं. यानि हाल-फ़िलहाल तक बाल-विवाह बड़े पैमाने पर हो रहे थे. बाल-विवाह प्रायः सभी जातियों के आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग में ज्यादा प्रचलित था. अगर आप कैमूर, चम्पारण, चन्दौली आदि जिलों के ग्रामीण क्षेत्रों में कभी भ्रमण किये हों तो स्कूल से आती-जाती बहुत सी ऐसी बच्चियों के दर्शन अवश्य हुए होंगे, जिनके मांग में सिन्दूर चमक रहा होता था. कुछ लोग कहते हैं कि अब यह कुप्रथा बन्द हो गयी है, लेकिन अभी भी बाल-विवाह वाली बहुत सी बच्चियाँ हैं जिनका गवना होना अभी बाकी है.
    बाल-विवाह में "छेंका", "तिलक", "शादी" और "गवना" के कुल चार भाग होते हैं. सभी जानते हैं किसी भी बच्ची के बाल-विवाह बिना "गवना" के पूर्ण नहीं माना जाता। फिर भी हमारे समाज में जब कभी भी बाल-विवाहित किसी औरत की अस्वाभाविक उसके गवना के सात साल के अन्दर हो जाती है तो उसकी मृत्यु उसके बचपन में हुई शादी से मानने की बात की जाती है और इस "सात साल" की गणना बराबर विवादित रहता है. यह भी एक तरह से बाल-विवाहित औरत के साथ उत्पीड़न ही लगता है.
    आजकल मीडिया में सुनन्दा पुष्कर की रहस्यमय मृत्यु मामले की गूंज बहुत जोरों से सुनाई दे रही है. हमारे मुख्य आपराधिक कानून भारतीय दण्ड विधान 1960 की धारा 304B में "गवना" या "पुनर्विवाह" की चर्चा नहीं मिलती(अगर कोई हाल-फ़िलहाल यथोचित संशोधन हुआ है तो पाठकगण कृपया बतायें, ताकि इस ब्लॉग को समय पर डिलीट कर दिया जाये) है. अब समस्या उठती है कि शादी का प्रारम्भ बाल-विवाह माना जाये या उनके गवना से और इसी तरह पुनर्विवाह के मामले में पहली शादी से या पीड़िता की अन्तिम शादी की तिथि से. अगर पीड़िता की अन्तिम शादी से समय की गणना की जाये तो सुनन्दा पुष्कर मामले में धारा 304B जोड़ने की मांग का विवाद चलता ही रहेगा।
     कहा जाता है कि विदेशी आक्रान्ता के सिपाहियों की पहली पसन्द अविवाहित लड़कियाँ ही रहती थीं अतः लोगों ने अपनी और अपनी लाड़ली बेटी की प्रतिष्ठा बचाने हेतु उसका विवाह उसके बचपन में ही करना प्रारम्भ किया। बाद में राजा या जमीन्दारों के उद्दण्ड कर्मचारी अविवाहित लड़कियों को अपने हवश का शिकार बनाने लगे तो लोगों के सामने बाल-विवाह एक विकल्प के रूप में सामने आया. श्रुति-सम्मत "हिन्दूकुश" की घटनाओं ने हमारे पूर्वजों को बाल-विवाह अपनाने को विवश कर दिया। धीरे-धीरे राजस्थान से प्रारम्भ हुई बाल-विवाह की यह प्रथा प्रायः पूरे भारत में फ़ैल गयी जो कालान्तर में एक कुप्रथा के रूप में बदल गया. आज भी कुछ बड़े-बुजुर्ग मानते हैं कि बाल-विवाह वाली शादियाँ ज्यादा टिकाऊ होती थीं.
    जब हमारा देश स्वतन्त्र हुआ तो बालिका शिक्षा पर जोर दिया जाने लगा. अब अविवाहित लड़कियों के यौन-शोषण हेतु होने वाला अपहरण भी कम हो गया या दूसरे शब्दों में कहें तो यह इतिहास की बात हो गयी. बाल-विवाहित बच्चियों को शिक्षा का अवसर कम मिलने लगा. समाज में जाग्रति आने से बाल-विवाहित बच्चियाँ भी स्कूल जाने लगी और अपना भविष्य संवारने लगीं। इन सब के बाद भी बाल-विवाह बच्चियों के शिक्षा और स्वास्थ्य के अधिकारों का हनन है. हमारे समाज को बच्चियों के इन मानवाधिकारों के हनन का अब कोई नैतिक अधिकार नहीं है. अब बच्चियों को उनकी शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं से वंचित रखना किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं है. आज भी अगर कहीं बाल-विवाह की प्रथा प्रचलित है तो उसे एक सामाजिक कुप्रथा ही कहना उचित होगा।
    कहा जाता है कि अल्पविकसित या अर्द्धविकसित किशोर दम्पत्ति से जन्मे बच्चों की ऊंचाई, बुद्धि का स्तर और अन्य शारीरिक शक्ति प्रायः सामान्य से कम पायी जाती है. इस बिन्दु पर भी समाज का ध्यान जाना चाहिये।
 अभिभावकों के तरफ से भी बाल-विवाह की कुप्रथा को रोकने के प्रयास हो रहे हैं. अब यह सोचना होगा कि समय बदल गया है. अब बच्चियों को पहले की तुलना में उनकी सुरक्षा का खतरा काफी कम हो गया है. अब हमें अपनी लाड़ली बच्चियों को उचित शिक्षा प्रदान करके और उनके स्वास्थ्य की उचित देखभाल कर उन्हें अपने राष्ट्र निर्माण में एक सक्षम भागीदार बनने योग्य नागरिक बना सकते हैं. हमें यह भी मानना होगा कि अब लड़कियों और महिलाओं हेतु पहले से अधिक रोजगार उपलब्ध हो रहे हैं. अगर हम भविष्य की तकनीकों पर ध्यान दें तो आने वाले स्वचालन तकनीकि हर क्षेत्र में घर बैठे उन्हें उचित रोजगार दिला सकता है. आवश्यकता सिर्फ रोजगार उन्मुखी उचित शिक्षा दिलाने की.
    अब यह कुप्रथा धीरे-धीरे समाप्त हो रही है. कुछ लोगों का कहना है कि यह कुप्रथा पूर्णरूप से समाप्त हो गयी है तो कुछ लोग इसे अभी भी ग्रामीण इलाकों में बदस्तूर जारी बताते हैं. इस विवाद का अब अन्त होना चाहिये।इस कुप्रथा से बच्चियाँ मानसिक रूप से प्रताड़ित होती हैं. अगर हमलोग मिलकर इस कुप्रथा के विरुद्ध आवाज उठावेंगे तो निश्चित रूप से यह कुप्रथा शीघ्र समाप्त होगी और विश्व भर में हमारे देश की छवि में सुधार होगा। अब इस सोशल मीडिया के युग में बच्चियों को भी इस सामाजिक कुप्रथा के विरुद्ध आवाज उठाकर अपनी सम्भावित मानसिक प्रताड़ना से मुक्ति हेतु आवाज उठानी चाहिये।
    न्याय की माहिष्मति! आप इस विषय पर कब तक चुप रहेंगी? बच्चियाँ आपकी ओर कातिर नज़रों से देख रही हैं और आपसे शीघ्र अपना निर्णय सुनाने की मूक गुहार लगा रही हैं. आप आश्वासन दें कि श्रुति-सम्मत  "हिन्दुकुश" की ऐतिहासिक घटनाओं की पुनरावृत्ति नहीं होगी। आप शीघ अपना निर्णय सुनाइये। आपके हुक्म का तामील होगा।
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