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Showing posts from 2014

धर्मान्तरण के कुछ अजीबो-गरीब तरक़ीब! (For Adults Only)

     इधर कुछ वर्षों से धर्मान्तरण पर बहुत कुछ पढ़ने और देखने हेतु सभी तरह के मीडिया में सामग्री मिल रही है. इस विषय पर काफी बहस भी हो रही है. बहुत से नकली बाबाओं की पोल भी खुल रही है. यह तो सर्व विदित है कि नकली बाबाओं के फलने-फूलने के पीछे हमारे समाज में व्याप्त अन्ध-विश्वास एक बड़ा कारण रहा है. कुछ को विश्वास है कि "बाबा" हमारी पुरानी बीमारी ठीक कर देंगे; "बाबा" हमें जल्दी धनी होने की तरक़ीब बता देंगे तो कुछ को विश्वास है कि "बाबा" की कृपा से बाँझ औरतों को भी सन्तान-सुख प्राप्त हो जायेगा। बहुतों को विश्वास है कि "बाबा" की कृपा से प्रोन्नत्ति हो जाएगी, उनकी कृपा से शादी जल्दी हो जाएगी या उनकी कृपा से व्यवसाय फलने-फूलने लगेंगे। कहा तो यह भी जाता है कि बाबा की कृपा से मिलने वाले सुखों का कोई अन्त नहीं है. इन्ही सब सुखों की लालसा का लाभ "बाबा" के दलाल उठाते हैं और अन्ध-विश्वासियों को "बाबा" के पास जाने के दुष्प्रेरित करते रहते हैं.      सभी तरह के अन्ध-विश्वासों के जड़ में गरीबी और अशिक्षा ही है. सभी तरह के सुखों की चाहत और वह भी

यदि रेल गाड़ी ऐसे चलती तो कितना अच्छा होता!

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     बहुत दिनों से मन में इच्छा जगते रहती थी कि काश! रेल गाड़ी ऐसे चलती तो कितना अच्छा होता! इच्छायें तो मन में आती हैं; फिर यह सोचकर दब जाती हैं कि मेरे सोचने से क्या होगा। कई बार तो हटिया-पटना एक्सप्रेस ट्रेन में जब सुबह में जहानाबाद से काफी बड़ी संख्या में अनपेक्षित यात्री स्लीपर क्लास में चढ़ जाते हैं. पता चलता है कि अधिकांश यात्री मज़बूरी में और कुछ तो मनशोखी में ट्रेन चढ़ जाते हैं. आरक्षित यात्रियों को अब अपना बर्थ का अधिकार छोड़ना पड़ता है. कुछ देर के बाद अनपेक्षित यात्री बर्थ पर बैठकर अपना उसपर अपना अधिकार भी ज़माने लगते हैं.      यात्री प्रायः मध्यम या अधिक दूरी के यात्रा में व्यवधान नहीं चाहते हैं. इसी कारण आरक्षित यात्री दिन में लोकल यात्रियों का प्रतिरोध नहीं करते। जब यह ट्रेन आदतन छोटे स्टेशनों पर या बाहरी सिग्नल पर रुकते चलती है तब लोकल यात्रियों में रेल परिचालन से संबंधित खूब बहस होती है. कभी-कभी तो यह बहस काफी तार्किक और ज्ञानवर्धक होती है. उन्ही बहसों में से कुछ निम्न बिन्दु उल्लेखनीय लगते हैं-- (1). 13329 धनबाद-पटना गंगा-दामोदर एक्सप्रेस प्रतिदिन धनबाद से 23:10 बजे खुलकर 2

धार्मिक उन्माद मानवता के विरुद्ध एक अपराध है!

      1953 में पश्चिमी देशों की कम्पनियों ने अरब देशों में कच्चे तेल खोज कर व्यावसायिक रूप से काफी लाभदायक बना दिया। इससे अरब देशों में बेशुमार दौलत आने लगी. शासक वर्ग अपने शासन को सुचारू रूप से चलाने के लिये धर्म का सहारा लेने लगे. आधुनिक इतिहास में धर्म का दुरूपयोग यहीं से शुरू होता है. इसके पहले नेपोलियन ने सफलता पूर्वक धर्म को राजनीति से अलग किया था. उसके राज के इस काल खण्ड में फ्रांस में विकास भी अधिक हुआ था. वहां की लड़कियों और महिलाओं को अधिकतर अधिकार उसी काल-खण्ड में मिले थे.        अस्सी के दशक में सोवियत सैनिकों को अफगानिस्तान से भगाने के लिये भी धर्म का सहारा लिया गया था. इसके लिये अफगानिस्तान की सीमा पर बड़े पैमाने पर मदरसे खोले गये थे. इन मदरसों में प्रारम्भिक शिक्षा के साथ-साथ जिहाद(दूसरे धर्म के लोगों के विरुद्ध युद्ध) की भी शिक्षा दी जाने लगी. उन क्षेत्रों में ईश-निन्दा कानून पहले से ही लागू था, लेकिन आपराधिक न्याय प्रणाली कमजोर होने के कारण प्रायः पीड़ितों को न्याय नहीं मिल पाता था और ईश-निन्दा के आरोपियों को प्रायः मृत्यु-दण्ड दिया जाता. सोवियत सैनिकों और उनके साम्यवा

सुने-सुनाये चुटकुले जो जीवन की कुछ सच्चाई दर्शाते हों

बहुतों ने इन चुटकलों को जरूर सुना होगा, लेकिन कुछ ऐसे भी लोग होंगे जो जिनको इन्हे सुनने का मौका ही नहीं मिला। इन्ही लोगों के लिये ये चुटकुले यहाँ प्रस्तुत है:- 1. जब भगवान ने सभी प्राणियों का सृजन किया तो प्रायः बड़े प्राणियों की उम्र पच्चीस वर्ष निर्धारित कर दी तथा उनके कार्यों का निर्धारण भी कर दिया। एक युग बाद भगवानजी को लगा कि कुछ प्राणियों से पूछ लिया जाय कि वे उम्र निर्धारण से सन्तुष्ट हैं या नहीं।     सबसे पहले घोड़ा को बुलाया गया और उनका मन्तव्य इस सम्बन्ध में पूछा गया. घोड़ा ने अदब से जवाब दिया और बोला कि उसे आदमी को बैठाकर दौड़ते हुए उसे ढोना पड़ता है या सामान को खींचना पड़ता है.  इसलिये वह पच्चीस वर्ष के उम्र से सन्तुष्ट नहीं है. उसने भगवानजी से प्रार्थना की कि इनका उम्र दस वर्ष कम कर दी जाय.     इसके बाद बैल को बुलाया गया. उसने बताया कि भले ही उसे धीरे-धीरे बोझ ढोना पड़ता है और बिना मतलब के गाड़ीवान या व्यापारी पीटते रहता है. साथ ही बैल ने यह भी शिकायत की कि हलवाहा हल जोतते समय अपने भी पसीने-पसीने होते रहता है और अपना खीझ मिटाते हुए अनावश्यक रूप से अरउआ से मारते रहता है. इतने ज

किरासन तेल, सौर ऊर्जा उत्पादों और मध्याह्न भोजन का पैसा सीधे लाभुक को दिया जाता तो उन्हें ज्यादा लाभ होता!

    पुराने ज़माने में लोग रौशनी के लिए करंज, रेंड़ी, महुआ, अलसी आदि तेलों का उपयोग अपने घरों में ढिबरी या दीपक जलाने में करते थे. यूरोप वाले इसके लिये अपने लैम्पों में जानवरों विशेषकर ह्वेल की चर्बी का उपयोग करते थे. कहा तो यह भी जाता है कि यदि किरासन तेल का अविष्कार समय पर नहीं होता तो इंसान अपनी सुविधा हेतु आख़िरी ह्वेल को भी मार देता।            अक्सर पेट्रोल/डीजल में किरासन तेल मिलाकर बेंचने  का समाचार कई सालों से मिलता रहा है. एक बार इंडियन आयल का एक बहादुर और कर्तव्य परायण अधिकारी मंजु नाथ ने एक पेट्रोल पम्प पर मिलावट की जाँच करने की धृष्टता की थी. ताकतवर मिलावटखोरों ने तो मंजु नाथ की जान ही ले ली थी.     पेट्रोल/डीजल में किरासन तेल मिलावट से गाड़ियों के इंजन पर ज्यादा भार पड़ता है और इसके चलते गाड़ियाँ ज्यादा ख़राब हो रहीं हैं. परिणामस्वरूप वाहन मालिकों को अपना बहुमूल्य समय वाहन मिस्त्रियों के यहाँ बिताना पड़ता है और उनके वाहनों के रख-रखाव पर ज्यादा खर्चा आ रहा है.     इसी तरह मध्याह्न भोजन खाकर बिमार पड़ने का समाचार मीडिया में आये दिन आते रहता है. एक बार तो मध्याह्न भोजन खाकर बिहार

खाद्यान्न की खरीद, उसके भण्डारण और वितरण हेतु एक छोटा कदम!

    हमारे देश में खाद्यान्नों की खरीद, उसके भण्डारण और वितरण की व्यवस्था Food Corporation of India द्वारा किया जाता है. अधिक अन्न उपजाने वाले किसान अपना धान गेहूं आदि अपने ट्रैक्टरों पर लाद कर FCI के खरीद केन्द्र तक ले जाते हैं और वहाँ उन्हें घंटों इंतजार करना पड़ता है. बिहार और उत्तर प्रदेश के कुछ किसान बताते हैं कि उन्हें FCI के बाबू लोगों से काफी आरजू-मिन्नत भी करनी पड़ती है और दलालों का सामना भी करना पड़ता है. कभी-कभी तो उन्हें MSP से भी कम दाम पर अपना खाद्यान्न बिचौलियों के हाथों बेंचना पड़ता है.     इस व्यस्था से पीड़ित अधिकांश किसान अपना खाद्यान्न साहूकारों के हाथों बेंचते हैं या अपना खाद्यान्न निकट के चावल/आटा मीलों के पास पँहुचा देते हैं और उन्हें पैसा बाद में लेने के लिए बुलाया जाता है. अन्ततः किसानों को इतनी परेशानियों के बाद भी उनकी अपेक्षा के अनुसार अपने खाद्यान्नों का मूल्य नहीं मिलता है तथा परिवहन आदि में अनावश्यक खर्च भी होता है.     सभी ग्राम पंचायतों में निचले सरकारी विद्यालयों में चलने वाले मध्यान्न भोजन हेतु चावल चाहिये। साथ ही वहाँ लाल/पीला कार्डधारियों आदि के लिये भ

Pollution और हमारी परिवहन प्रणाली

    इसमें अब कोई दो राय नहीं है की हमारी परिवहन प्रणाली जरुरत से ज्यादा प्रदुषण फैला रही है. मैंने राँची, पटना और लखनऊ की परिवहन प्रणाली नजदीक से देखी है. पटना और लखनऊ में मेट्रो सेवा की बात बहुत दिन से चल रही है. यह आलेख इन्ही शहरों की देखी हुई जानकारियों पर आधारित है. इन शहरों की परिवहन प्रणाली मुख्यतः निम्न भागों में विभाजित लगती है:- 1. टेम्पो परिवहन प्रणाली:-  राँची, पटना और लखनऊ की परिवहन प्रणाली का सबसे बड़ा भाग टेम्पो की सेवा है. टेम्पो मुख्य-मुख्य मार्गों पर ही चलते हैं. यदि किसी को एक निश्चित स्थान तक जाना है तो उसे टेम्पो रिज़र्व करना पड़ता है, जिसका किराया अधिक होता है और प्रायः किराया के लिये मोल-भाव करना पड़ता है. अगर रिजर्व टेम्पो से रात में यात्रा करनी हो और वह भी अस्पताल या किसी डाक्टर के पास तो यात्रियों का शोषण ही होता है.     टेम्पो चालक यात्रियों से ज्यादा अपना ख्याल रखते हैं और वातावरण में डीजल/पेट्रोल की धुआँ छोड़कर पर्यावरण को सबसे ज्यादा प्रदूषित कर रहे हैं. यहाँ यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि इन तीनो शहरों के अधिकांश लोग अपने घर से बाहर अपना समय टेम्पो पर ही बि

हमें अफगानिस्तान में सैन्य रूप से नहीं उलझना चाहिये

    अफगानिस्तान आर्थिक, व्यवसायिक और रणनीतिक रूप से एक महत्वपूर्ण देश है. यहाँ उच्च कोटि के अफीम और सूखे स्वादिष्ट फल बहुतायत से उपजाये जाते हैं. कुछ लोगों का मानना है कि अफगानिस्तान में बड़ी मात्रा में Rare Earths मिल सकते हैं. लेकिन व्यंग्य की भाषा में अब इन्हे Unobtanium कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी। उन्नीसवीं शताब्दी में रूसियों ने अपने व्यापार को बढ़ाने के लिये आमू दरिया के उद्गम स्थल तक रास्ता साफ करते हुए अपने जल-यान लाने का काफी प्रयास किया था. उसी के समानान्तर अंग्रेजों ने भी अफगानिस्तान पर कब्ज़ा करने का प्रयास किया लेकिन सफलता नहीं पायी। लेकिन तब जबकि अफगानिस्तान की दक्षिणी-पश्चिमी सीमा अरब सागर से मिलती थी वह सिमट कर समुद्र से दूर हो गयी. अभी भी समुद्री सीमा के बिना ही वहाँ समुद-तट का विभाग अस्तित्व में है. जापान आदि देश अफगानिस्तान में पूर्ण शान्ति चाहते हैं ताकि पूर्वी एशिया से यूरोप तक अफगानिस्तान होते हुए एक व्यवसायिक रेल और सड़क मार्ग बनाया जा सके.        अफगानिस्तान एक ऐसा देश है जहाँ विदेशी अपने सैनिक सैंकड़ों साल से भेजते रहे हैं. हाल का इतिहास सोवियत फ़ौज का रहा है. सोविय

बिना किराया बढ़ाये भी रेल की आमदनी बढ़ायी जा सकती है

   अंग्रेजों ने रेलवे का महत्व पहचाना था. उनलोगों ने पाया कि रेलगाड़ी से उतने ही ईंधन में सड़क मार्ग की अपेक्षा करीब दस गुना वजन और वह भी अधिक तेजी से ढोया जा सकता है तथा हवाई और सड़क परिवहन की तुलना में प्रति यात्री काफी कम ईंधन लगता है. रेलवे के इस महत्व को देखते हुए अंग्रेजों ने भारत भर में रेलवे का जाल फैला दिया। बाद में कोयला के बदले ट्रेनों को बिजली और डीजल इंजन से चलाया जाने लगा. 1973 में पहली बार के विश्व तेल संकट ने विश्व के तमाम देशों को रेलवे के विद्युतिकरण हेतु वाध्य कर दिया। इस दौड़ में हम पिछड़ गये. रेलवे हमारे अर्थ-तन्त्र का वाहक हुआ करता था.    धीरे-धीरे रेलवे की उपेक्षा की जाने लगी. जो रेलवे हमारे देश में भी माल और यात्री परिवहन में अग्रणी था अब इन दोनों क्षेत्रों में सड़क मार्ग से प्रति वर्ष पिछड़ता जा रहा है. परिणामतः आज हमारा देश अपनी आवश्यकता का 82% कच्चा तेल आयात कर रहा है यानि हमने अपनी अर्थ-व्यवस्था का डिजलीकरण कर लिया है. विश्व मंडी में कच्चे तेल का या डॉलर का भाव बढ़ते ही हमारे यहाँ बेचैनी फैलने लगती है. आशा है नयी सरकार रेलवे के महत्व को समझेगी। अभी रेलवे के लिये ब

ट्रेनों के विलम्ब से चलने के कुछ फायदे; एक व्यंग्य!

    ट्रेनों के विलम्ब से चलने के कुछ फायदे भी होते हैं. एक बार एक व्यक्ति को ट्रेन से यात्रा करने के पहले उसके घर पर कुछ काम आ गया. वह ट्रेन की लेट-लतीफी के कई किस्से सुन रखा था. सो उसने अपना काम निपटा लेना ही उचित समझा और मन ही मन भगवान से ट्रेन लेट करने हेतु प्रार्थना भी करता रहा. जब स्टेशन पँहुचा और टिकट लेकर प्लेटफार्म पर पँहुचा तो उसके ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा. वह ट्रेन में चढ़कर एक उपयुक्त सीट पर बैठकर भगवानजी को धन्यबाद देते रहा. जब दस-बारह मिनट बाद भी ट्रेन नहीं खुली तो वह रेल विभाग को लेट-लतीफी के लिये कोसने लगा. उसके एक सह यात्री से नहीं रहा गया. उसने समझाया कि भगवानजी बड़े दयालु हैं. हो सकता है कि वे आप ही की तरह ट्रेन से यात्रा करने वाले किसी और भक्त की प्रार्थना स्वीकार कर लिये हों. इसलिये रेल विभाग कोसने के बजाय उस भक्त की प्रतीक्षा की जाय. ट्रेनों के विलम्ब से चलने के कुछ फायदे:-  1. शाम को लगभग छः बजे के आस-पास एक पैसेंजर ट्रेन सासाराम(बिहार) से आरा के लिये अपने 96 कि.मी के सफर पर खुलती है. इसे करीब साढ़े तीन घंटे का सफर पूरा कर अपने गन्तव्य पर पँहुचना होता है. यह ट्रेन

गऊ-पालन में भी रोजगार की अपार सम्भावनायें हैं?

  पशु-पालन हमारे देश में कुटीर उद्योग और लघु उद्योग की तरह फैला हुआ था और इनमे करोड़ों लोगों को रोजगार मिला हुआ था. रोजगार का सृजन बहुत ही पुण्य का कार्य माना जाता है और बेरोजगारों को रोजगार उपलब्ध कराना दुनिया की सबसे बड़ी समाज सेवा मानी जाती है. भाग-1( दुधारू गऊ-पालन) इस लेख का यह भाग निम्नलिखित तथ्यों पर आधारित है--- 1. एक देसी गाय की औसत उम्र 14-15 साल है, जिसमे वह करीब तीन साल के बाद बच्चा देती है, अगले आठ साल में वह करीब चार (कुछ अन्तरालों पर) साल औसतन प्रतिदिन दो लीटर दूध देती है, करीब पाँच साल(कुछ अन्तरालों पर) बिसुखी रहती है और वह अपना आखिरी तीन-चार साल का समय गौलक्षणी या गौशाला या गौपालकों के दरवाजा बिता कर अपनी जीवन लीला समाप्त कर लेती है. 2. शंकर नस्ल की उन्नत जर्सी या साहिवाल गाय करीब सात साल तक प्रतिदिन औसतन दस लीटर दूध देती है. इसका औसत वजन चार क्विंटल होता है. जीवन काल लगभग सभी गायों की समान ही है. 3. देशी गाय छोटा मेहनती परिवार के लिये अपने घरेलु उपयोग के लिये उपयुक्त है जबकि शंकर नस्ल की गायें बड़ा परिवार के घरेलु उपयोग या व्यावसायिक उपयोग के लिये उपयुक्त है. 4. क