Pollution और हमारी परिवहन प्रणाली

    इसमें अब कोई दो राय नहीं है की हमारी परिवहन प्रणाली जरुरत से ज्यादा प्रदुषण फैला रही है. मैंने राँची, पटना और लखनऊ की परिवहन प्रणाली नजदीक से देखी है. पटना और लखनऊ में मेट्रो सेवा की बात बहुत दिन से चल रही है. यह आलेख इन्ही शहरों की देखी हुई जानकारियों पर आधारित है. इन शहरों की परिवहन प्रणाली मुख्यतः निम्न भागों में विभाजित लगती है:-
1. टेम्पो परिवहन प्रणाली:- राँची, पटना और लखनऊ की परिवहन प्रणाली का सबसे बड़ा भाग टेम्पो की सेवा है. टेम्पो मुख्य-मुख्य मार्गों पर ही चलते हैं. यदि किसी को एक निश्चित स्थान तक जाना है तो उसे टेम्पो रिज़र्व करना पड़ता है, जिसका किराया अधिक होता है और प्रायः किराया के लिये मोल-भाव करना पड़ता है. अगर रिजर्व टेम्पो से रात में यात्रा करनी हो और वह भी अस्पताल या किसी डाक्टर के पास तो यात्रियों का शोषण ही होता है.
    टेम्पो चालक यात्रियों से ज्यादा अपना ख्याल रखते हैं और वातावरण में डीजल/पेट्रोल की धुआँ छोड़कर पर्यावरण को सबसे ज्यादा प्रदूषित कर रहे हैं. यहाँ यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि इन तीनो शहरों के अधिकांश लोग अपने घर से बाहर अपना समय टेम्पो पर ही बिताते हैं. दिल्ली, मुम्बई और पुणे जैसे विकसित शहरों की तरह राँची, पटना और लखनऊ में भी बैटरी चालित टेम्पो की आवश्यकता है.
2. मिनीबस परिवहन प्रणाली:- कुछ खास मुख्य मार्ग पर ही मिनी बस चलते हैं और प्रायः खचाखच भरे होते हैं. इनका किराया भले ही कुछ कम हो लेकिन गंतव्य तक पहुँचने में टेम्पो से ज्यादा समय लगता है. इनकी संख्या मांग के अनुरूप नगण्य है. कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि मिनीबस के महत्व की उपेक्षा की जा रही है.
3. निजी कार परिवहन प्रणाली:- जिनके पास कार या अन्य चौपहिया वाहन हैं उन्हें यात्रा समय कम लगता है और उनकी यात्रा भी आरामदायक होती है. उन्हें भी जाम आदि यातायात समस्या से दो-चार होना पड़ता है. यातायात और चौक-चौराहे पर अनावश्यक ईंधन जलाना पड़ता है.
4. निजी दुपहिया परिवहन प्रणाली:- पटना, राँची और लखनऊ जैसे शहरों में निम्न मध्यम वर्ग के आवागमन का मुख्य साधन दुपहिया वाहन ही है. 
    जिनके पास अपनी गाड़ी नहीं है उन्हें यात्रा करने में कम समय लगता है और यह भी विडंबना ही है कि उन्हें अन्य परिवहन प्रणाली की तुलना में खर्च भी कम आता है. यही कारण है की लोग परेशान होकर कर्ज लेकर भी निजी गाड़ी रखना ज्यादा पसन्द करते हैं.
    इसके अलावे उत्तर भारत में कम दूरी(100 किमी तक) के लिये टेम्पो/जीप/सूमो और मध्यम दूरी(500 किमी तक) के लिये बस तथा लम्बी दूरी(500 किमी से अधिक) के लिये रेल गाड़ी का उपयोग सार्वजनिक परिवहन प्रणाली के रूप में करते हैं. लम्बी दूरी की यात्रा के लिये निजी कार या हवाई सेवा का उपयोग कम ही लोग करते हैं. कम दूरी(100 किमी तक) का रेल सफर सस्ता जरूर है लेकिन बहुत कष्ट दायक होती है. मध्यम दूरी(500 किमी तक) की यात्रा के लिये यदि रेल आरक्षण नहीं मिला तो बस का महँगी यात्रा ही अच्छी मानी जाती है.
    इन गाड़ियों के धुंए से निकलने वाली गैसों के प्रमुख अवयव ग्रीन हाउस गैस(CO2, N2 आदि), जहरीली गैसें, पार्टिकुलेट मैटर्स आदि होते हैं. इनमे से ग्रीन हाउस गैसें हमारे स्वास्थ्य को सीधे नुकसान नहीं पँहुचाते लेकिन ग्लोबल वार्मिंग के सबसे बड़ा गुनहगार हैं. अब तो गाड़ियों की बढ़ती संख्या ने धुओं की ताकत इतनी बढ़ा दी है कि उनके डर शहर के ऊपर मंडराने वाले बादल भी भाग जा रहे हैं. जहरीली गैसें और पार्टिकुलेट मैटर्स हमारे स्वास्थ्य को सीधे नुकसान पँहुचाते हैं. बड़े पैमाने पर छोटी निजी गाड़ियों के चलते लोगों को पैदल चलने का अवसर ही नहीं मिलता। इस कारण से भी मधुमेह की बीमारी तेजी से फ़ैल रही है. फिर भी गाड़ियां हमारी शान की प्रतीक भी मानी जातीं हैं. अब हमें अच्छा स्वास्थ्य चाहिये या बड़ी शान; बड़ा नाम चाहिये। इनमे से अब एक चुनने का समय आते जा रहा है. जिन्दगी में एक समय आता है जब बड़े नाम और शान के साथ जीने वाले भी स्वास्थ्य को ही प्राथमिकता देना चाहते हैं. लेकिन तब तक उनका ही परिवार और उनके ही समाज के लोग उनकी बातों को गम्भीरता से नहीं लेते।
    अब समय आ गया है कि परिवहन प्रणाली और उसके प्रदूषण के चलते हमारे स्वास्थ्य पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव पर भी चर्चा की जाये। कुछ लोगों का कहना है कि राँची, पटना और लखनऊ तथा इसी तरह के अन्य शहर में इस तरह के परिवहन प्रणाली से लोगों को चालक, मिस्त्री, पेट्रोल पम्प, मोटर पार्ट्स की दुकान आदि पर कर काम करने वालों, स्वास्थ्य सेवाओं और बीमा क्षेत्र में बड़े पैमाने पर रोजगार मिला हुआ है. इसीलिये कोलकाता की तरह रूट नम्बर वाली छोटी-बड़ी बसें नहीं चलायी जातीं। यदि रूट नम्बर वाली छोटी-बड़ी बसें(सार्वजनिक परिवहन प्रणाली) बड़े पैमाने पर विकसित की जायें तो शायद प्रदूषण भी कम होगा और कुछ हद तक ट्रैफिक की समस्या का समाधान भी होगा। साथ ही लोगों को एक-आध किलो मीटर पैदल चलने को भी मिलेगा, जिनसे हमारा स्वास्थ्य अच्छा रहेगा। प्रदूषण में भी रोजगार के अवसर तलाशने वालों की राजनीति भी चलती रहेगी और स्वास्थ्य पर चर्चा भी चलती रहेगी।
नोट:- यह ब्लॉग मेरे निजी अनुभव और लोगों से इस विषय पर की गयी चर्चाओं में उभरे तथ्य पर आधारित है। पाठकों के सुझाव का स्वागत है.   
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