बिहार के पिछड़ेपन के कुछ छिपे कारण!

     आज़ादी के बाद जहाँ बिहार विकसित राज्यों में अग्रणी था वहीँ आज पिछले पायदान पर पँहुच गया. कहा जाता है कि विकास की ईमारत पूँजी निवेश, सस्ती ऊर्जा, Smart Banking System, दक्ष परिवहन प्रणाली और अच्छी विधि-व्यवस्था नामक पाँच पायों पर खड़ी होती है. सभी लोग बिहार को बीमारू राज्य की संज्ञा देते हैं. कुछ तो बिहार के पिछड़ने के कारण रहे होंगे. मेरी समझ से बिहार निम्न कारणों के से समय के साथ-साथ नहीं चल पाया और विकास की दौड़ में पिछड़ गया.
     बिहार मूलतः कृषि प्रधान प्रदेश है. यहाँ की भूमि उपजाऊ है और नदियां भी प्रचुर मात्रा में हैं. ये नदियां नेपाल, उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश और झारखण्ड से अपने साथ उपजाऊ मिटटी भी लाती हैं. अंग्रेजों ने सिंचाई सुविधा बढ़ाने हेतु "सोन नहर योजना" पूरी की थी. समय के साथ यह योजना ने अपनी सार्थकता खो दी. स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सरकार ने सोन, गण्डक, बागमती, कोशी, उत्तरी कोयल, दुर्गावती आदि कई सिंचाई योजनाओं प्रारम्भ की. इनमे से दुर्गावती और उत्तरी कोयल नदी पर बनने वाली मण्डल सिंचाई योजना को तो लगभग लकवा मार दिया है. उक्त योजना के नहरों में तो Silting के कारण इनकी जल-ग्रहण क्षमता इनके पूरा होने के पहले ही कम होने लग गयी थी. बिहार के पिछड़ने का यह एक मुख्य कारण है. अन्य कारण:-----
चीनी उद्योग का पराभव:-  बिहार प्रारम्भ से ही कृषि प्रधान राज्य रहा है. यहाँ की जमीन और मौसम कृषि के अनुकूल है. इसी कारण कृषि आधारित चीनी उद्योग भी खूब पनपा। जब लिफ्ट irrigation सस्ता और व्यवहारिक होने लगा और बिहार में मजदूर समस्या उत्पन्न होने लगी तो चीनी उद्योग महाराष्ट्र में भी पनपने लगा उसी अनुपात में बिहार का चीनी उद्योग लड़खड़ाने लगा. यह उद्योग अब प्रायः बिहार में मृतप्राय हो गया. जैसे चीनी उद्योग बिहार में खुशहाली लाया था उसी तरह चीनी उद्योग के कमजोर होने से यहाँ बदहाली छाने लगी.
Smart Banking System:- कुल 29 सरकारी और बहुत सारे निजी बैंकों में से किसी भी बैंक का मुख्यालय बिहार में नहीं है. ऐसी स्थिति में बैंकों के स्मार्ट होने की कल्पना भी हम नहीं कर सकते।
मंहगी ऊर्जा:- यहाँ  बिजली सस्ती दिखती जरूर है लेकिन अनियमित आपूर्ति के कारण महंगी हो जाती है. सिंचाई दर भी अन्य राज्यों की तुलना में महंगी है. इन कारणों से यहाँ उत्पादित सामान या कृषि उपज बाजार में कमजोर पड़ जाते हैं. 
आवागमन:- आज भी सड़कों और रेल-लाइन की हालत अन्य राज्य की तुलना में बिहार में ख़राब है. सड़कें बनती भी हैं तो अपने स्वाभाविक काल के पूर्व ही टूटने लगतीं हैं. बिहार की सड़कें अन्य राज्यों की तुलना में स्थानीय रंगदारों से लेकर बड़े नेताओं/अधिकारियों के परिवारों के खर्चों का भी वहन करतीं हैं यानि बिहार की सड़कें वैसे बड़े घरों के मालिकों की तरह दिखती हैं जिनके परिवार के लोग तो अच्छे कपडे पहनते हैं लेकिन मालिक के शरीर पर कपड़ा कभी अच्छा नहीं रहता।
Freight Equalization:- रेलवे ने इस तरह की नीति अपनायी कि बिहार के कोयला, खनिज, लोहा अयस्क, बॉक्साइट आदि देश में जहाँ भी ले जाना हो एक ही भाड़ा लगेगा। परिणाम स्वरुप उद्योगपति बिहार में अपना कारखाना नहीं लगाकर अपने प्रभाव वाले राज्यों में लगाये, जिससे अपेक्षानुरूप बिहारियों को रोजगार नहीं मिला।
बंटा हुआ समाज:- फूट डालो और राज करो की नीति अपनाकर नेताओं और अधिकारियों ने बिहारियों को जाति और उपजाति में इतना अधिक बाँट दिया है कि अब निकट भविष्य मेँ उनमें एकता की सम्भावना नहीं के बराबर है. समाज को बाँटने के लिये लोग Ethnic Jokes और Back Chanel Poll Campaign का भी खूब सहारा लेते हैं. कृषि के कमजोर हो जाने से अब बिहार के लोगों के पास कृषि में व्यस्तता का काल तीन महीने से ज्यादा नहीं होता। शेष खाली समय में लोग अनावश्यक बातों की चर्चा में लगे रहते हैं. कहा भी जाता है "खाली दिमाग शैतान का घर". सामाजिक तनाव के कारण यहाँ बहुत नरसंहार हुए हैं. हद तो तब हो गयी जब तेरह बड़े नर संहारों में भी जिला अदालतों से फांसी या आजीवन कारावास की सजा पाये भी सभी दोषी उच्च न्यायलय से रिहा हो गये. इस तरह आपराधिक न्याय प्रणाली यहाँ एक मजाक बन कर रह गया. बिहार में न्याय पाना सबके वश की बात नहीं रही.
प्रशासनिक खर्च में वृद्धि:-  वर्ष 1971 में बिहार में पहली बार जिलों की संख्या बढ़ाई गयी. यह सिलसिला आगे बढ़ता गया और बढ़ते-बढ़ते बिहार में झारझण्ड बनने के बाद भी चालीस जिला पर पँहुच गया. जिलों की संख्या बढ़ने से जहाँ प्रशासनिक खर्च बेइन्तहां बढ़ गया वहीँ योजना खर्च का अनुपात घटते गया. जिला बढ़ने से सबसे ज्यादा फायदा नौकरशाहों को हुआ. अन्य राज्यों की तुलना में यहाँ अपराधियों/अधिकारियों की रंगदारी अधिक होने के कारण भी यहाँ कोई व्यवसाई/उद्योगपति अपना व्यवसाय/उद्योग लगाना नहीं चाहता।
शिक्षण संस्थाओं का अपेक्षा के अनुरूप नहीं बनना:-  हाल के केन्द्रीय विश्वविद्यालय, जहाँ अभी ठीक से पढाई भी शुरू नहीं हुई है, को छोड़कर बिहार में विगत 25 वर्ष में इंजीनियरिंग, मेडिकल, मैनेजमेंट आदि की पढाई हेतु कोई शिक्षण संस्थान नहीं खुले हैं. इस कारण खाते-पीते घर के बच्चे अन्य राज्यों में पढाई के लिये जाते हैं. इससे प्रति वर्ष बिहार से हजारों करोड़ रुपये बिहार से बाहर चले जाते हैं. यही हाल बिमारी के इलाज की भी है. प्रति वर्ष लाखों लोग अपना इलाज कराने हेतु वेल्लोर, चेन्नई, दिल्ली आदि राज्य के बाहर के शहरों में जाते हैं और इस तरह बड़ी मात्रा में पैसा बिहार से बाहर चला जाता है.
जर्जर शिक्षा-व्यवस्था:- प्राथमिक विद्यालय में अधिकांश शिक्षक कॉट्रैक्ट पर बहाल किये जा रहे हैं और ऐसी बहाली में भी उत्कोच के समाचार अख़बारों में छपते रहते हैं. माध्यमिक शिक्षा में भी कॉन्ट्रैक्ट पर शिक्षकों की बहाली अब सामान्य सी बात होने लगी है. स्कूलों में विज्ञानं की पढाई का क्या भविष्य हो सकता है जब प्रयोगशालाओं में प्रायः ताला ही लगा रहता है. कहा जाता है कि प्रयोगों लायक उपकरण या सामान उपलब्ध नहीं है. बोर्ड परीक्षायें तो यहाँ नक़ल के लिये प्रसिद्ध हैं. उच्च शिक्षा में वित्तरहित कॉलेजों की भरमार है. जब नियमित रूप से शिक्षकों को वेतन ही नहीं मिलेंगे तो वे क्या शिक्षा दे पायेंगे?  कुल मिलाकर बिहार की शिक्षा-व्यवस्था जर्जर हो चली है. यहाँ विकास की दृष्टि से महत्वहीन मुद्दों पर तो चर्चा या आन्दोलन होते रहता है लेकिन शिक्षा-व्यवस्था पर चर्चा या आन्दोलन शायद ही कभी होता है. वही बिहारी ज्यादा शिक्षित होता है जिसकी जड़ें अन्य राज्यों में भी है. बिना उचित शिक्षा के बिहार का पीछे छूटना लाजिमी लगता है.
बहुत ज्यादा केन्द्रीय राशि को वापस होना:-  1963 में सड़कों के Turning और Gradient  सुधारने हेतु बहुत बड़ी राशि केन्द्र से आयी थी. उसी तरह 1979 में हर जिले में कृषि-विज्ञानं केन्द्र खोलने हेतु राशि आयी थी लेकिन उनका सदुपयोग नहीं हो सका और आये राशि को लौटा देना पड़ा. अगर आज़ादी के बाद से केन्द्र को लौटायी गयी राशि का आंकलन किया जाय तो शायद बिहार प्रथम स्थान पर होगा।
केंद्रीय संस्थानों का बिहार से बाहर चले जाना:- पटना का आलू अनुसन्धान केंद्र को कुफरी(हिमाचल प्रदेश) स्थानान्तरित कर दिया गया. इसी तरह गया का फौजी छावनी का आकार काफी छोटा कर दिया गया. जन-संख्या और क्षेत्रफल के हिसाब से लगभग 7% केंद्रीय संस्थान बिहार में होने चाहिये। लेकिन दुर्भाग्य से बिहार के हिस्से में एक प्रतिशत भी नहीं है. किसी भी बैंक या सार्वजनिक उपक्रम का मुख्यालय बिहार में नहीं है. गया का फौजी छावनी का आकार भी छोटा किया जा रहा है. इन कारणों भी यहाँ आर्थिक गतिविधि काफी कम हो गयी है. 
पूंजी का पलायन:- बिहार में अन्य राज्यों की तुलना में तकनीकि एवं अन्य शिक्षण संस्थानों की कमी है. इलाज हेतु बड़े अस्पताल भी कम हैं. साथ ही जो शिक्षण संसथान और अस्पताल हैं उनकी स्थिति भी बहुत संतोषजनक नहीं है. इन कारणों से बिहारियों को बेहतर शिक्षा और इलाज हेतु अन्य राज्यों में जाना पड़ता है. इनसे पूंजी का पलायन अन्य राज्यों को हो रहा है. इस कारण से भी बिहार पिछड़ते जा रहा है.    
निम्नलिखित चुटकुला से बिहारी मानसिकता को समझा जा सकता है:-
एक बार एक ग्रामीण नेताजी अपने कुछ काम से राजधानी पटना आये. स्टेशन के बाहर आकर उन्होंने अपने इलाके के विधायकजी के बंगला पर जाने हेतु एक रिक्शा ठीक करना चाहा। नेताजी बिना तौल-भाव के रिक्शा पर पर चढ़ना उचित नहीं समझते थे. उन्होंने एक रिक्शेवाले से अपने गन्तव्य बताते हुए वहाँ जाने का भाड़ा पूछा। रिक्शावाले ने भाड़ा पन्द्रह रुपये बताया। नेताजी ने इस भाड़ा को ज्यादा समझकर बगल के दूसरे रिक्शेवाले, जिसने उनका गन्तव्य जान ही लिया था, से भाड़ा पूछा। दूसरे रिक्शेवाले ने उन्हें उनके गन्तव्य का भाड़ा दस रूपये बताया। नेताजी को इससे भी सन्तोष नहीं हुआ और उन्होंने बगल के तीसरे रिक्शेवाले से जो अपने रिक्शे पर बैठकर अपनी गमछी से अपना पसीना पोंछ रहा था से भाड़ा पूछा। उसने तपाक से भाड़ा पाँच रुपया बताया।
     अब नेताजी असमंजस में पड़ गये और तीनों रक्शेवालों से भाड़ा में इतना ज्यादा अन्तर का कारण पूछा। पहले रिक्शेवाले ने उन्हें समझाया कि वह आपको अजायब-घर आदि का दर्शन कराते हुए आपके गन्तव्य तक पँहुचावेगा। दूसरे रिक्शेवाले ने समझाया कि वह आपको सीधे आपके मंत्रीजी के बंगला तक पँहुचा देगा। नेताजी की उत्सुकता और बढ़ी और तीसरे रिक्शेवाले से पूछ ही लिया कि भाई आप मात्र पाँच रूपया ही क्यों लोगे?
    तीसरे रिक्शेवाले ने नेताजी को दो-टूक जवाब दिया। उसने बताया कि वह थका हुआ है; उसे लगा कि आपके पास पैसे कम है अतः वह रिक्शे पर बैठेगा और आप रिक्शा चलाते हुए अपने विधायकजी के बंगला पर चले जाना।
    मतैक्य का अभाव:- भले ही बिहार के लोगों को बाहर में बिहारी कहते हों, लेकिन बिहार के लोग अपने राज्य या राज्य के बाहर अपने को बिहारी कहलाना पसन्द नहीं करते।
    यह भी कहा जाता है कि वही बिहारी ज्यादा तरक्की किये हैं, जिन्होंने अपनी शिक्षा बिहार से बाहर पायी है. अधिक जन-संख्या, रंगदारी और कमजोर विधि-व्यवस्था(from NCRB Data), पूँजी और प्रतिभा का पलायन, महँगी ऊर्जा, कमजोर बैंकिंग-व्यवस्था आदि बेरोजगारी को बढ़ाता रहा है. इन सभी कारणों से बिहार पिछड़ता जा रहा है. इधर कुछ दशकों से बिहार की पहचान 7 सवर्ण जातियों 11 पिछली, 107 अति पिछड़ी जातियों(OBC), एक दलित 23 महादलित और लगभग एक प्रतिशत अनुसूचित जनजाति वाले प्रदेश के रूप में बन गयी है. बिहार को प्रगति पथ पर अग्रसर करने हेतु एक नयी सोच, नयी कार्य संस्कृति और ऐतिहासिक गौरव को पुनः प्राप्त करने की लालसा को विकसित और जागृत करना होगा। यह कार्य धीरे-धीरे ही होगा। शायद इसमें आसन्न संचार क्रान्ति मदद करे.   
नोट:- यह ब्लॉग मेरे व्यक्तिगत अनुभव और इस विषय पर बहुत से जानकार लोगों से समय-समय पर की गयी चर्चाओं पर आधारित है. इस ब्लॉग की बातों से असहमति रखने वालों से मैं क्षमाप्रार्थी हूँ. पाठकों की खट्टी-मीठी टिपणियों का सदैव स्वागत रहेगा।
 https://twitter.com/BishwaNathSingh
    

Comments

  1. aap ke dwara diye gaye sabhi karan sahi hain
    par Bihar ki soch ko badlanae ki jaroorat hai , UP,Bihar me Bijli ki chori ek udaharan hai janata kaisa sochti hai , sirf swarth aur kuch nahi

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