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Showing posts from April, 2017

उग्रवाद समस्या के कुछ काल्पनिक समाधान।

    कहा जाता है कि ऐसी कोई समस्या नहीं है, जिसका कोई समाधान नहीं हो. हर समस्या कुछ न कुछ दुःख देती है; कष्ट देती है. बड़े बुजुर्ग यह भी कह गये हैं कि जब भगवान किसी को दुःख देते हैं तो उसे दुःख सहने की शक्ति भी पहले ही दे देते हैं. उग्रवाद की समस्या ने भी न जाने हमारे समाज से कितनी ही जिंदगियाँ समय के पहले ही छीन ली. बहुत से उग्रवादी भी हमारे सुरक्षा बलों के मुठभेड़ में मारे गये. हमारे सुरक्षा बलों के बहुत सारे जवान उग्रवादियों द्वारा बारूदी सुरंग के विस्फोट किये जाने से या उनके द्वारा घात लगाकर किये गये हमलों में मारे गये.  उग्रवादियों ने बहुत से ग्रामीणों को मुखबिरी का आरोप लगाकर मार दिया तो बहुत से ग्रामीण उग्रवाद प्रभावित इलाकों में मेडिकल सुविधा के अभाव में समय से पहले ही स्वर्ग सिधार गये. उग्रवाद प्रभावित इलाकों में Human Index भी बहुत निम्न स्तर पर है.     कुल मिलाकर अब इस सोशल मीडिया के युग में सिविल समाज के स्तर पर भी उग्रवाद की समस्या पर आवाज उठाने का समय आ गया है. सोशल मीडिया का सकारात्मक प्रभाव सरकार और नक्सली संगठनों पर भी बढ़ता जा रहा है. नक्सली समस्या के कुछ काल्पनिक समाधा

नक्सली Law & Order की समस्या है या Security की?

     नक्सली सुकमा में अपने संगठन की स्थापना   का हीरक जयन्ती मना रहे हैं और हम अभी तक यही तय नहीं पा कर रहे हैं कि नक्सली राज्य सरकार के बच्चे हैं या केन्द्र सरकार के? यहाँ "बच्चे" शब्द का अभिप्राय जवाबदेही से है. यानि नक्सलियों से निपटने की जवाबदेही किसकी है? यदि नक्सल समस्या राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ी हुई समस्या है यानि सम्विधान की केंद्रीय सूची में है तो नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में AFSA(Armed Forces Special Act) क्यों नहीं लागू है?      यदि नक्सल समस्या Law & Order से जुड़ी हुई समस्या है यानि हमारे सम्विधान की राज्य सूची में है तो केन्द्रीय सुरक्षा बलों के साथ जिला प्रशासन द्वारा कोई दण्डाधिकारी और लोकल पुलिस कार्यवाई के समय क्यों नहीं तैनात किया जाता है? साथ ही जब केन्द्रीय सुरक्षा बलों द्वारा नक्सलियों के विरुद्ध कोई अभियान चलाया जाता है यो सम्बंधित क्षेत्र में जिलाधिकारी द्वारा कर्फ्यू क्यों नहीं लगाया जाता है?      जब वर्ष 2008 में तत्कालीन गृह-मन्त्री द्वारा घोर नक्सल प्रभावित राज्यों में नक्सलियों के विरुद्ध तब तक का सबसे बड़ा अभियान "ऑपरेशन ग्रीन हंट&quo

कमजोर सड़कें भारत को गुलाम बना सकती हैं; आधी हकीक़त, आधा फ़साना।

     वर्ष 1998 में ग्यारह मई को एक बार फिर हमारे देश में "बुद्ध मुस्काये" थे. कहा जाता है कि  तब सबसे ज्यादा परेशानी क्लिंटन प्रशासन को हुई थी और परेशानी और घबराहट का आलम यह था कि दो दिन बाद ही आनन-फानन में अमरीका ने भारत पर आर्थिक प्रतिबन्ध लगा दिया। अमरीका भारत के बारे में तो बहुत कुछ जानता था लेकिन हमारे अटलजी के और उनके कोर टीम के बारे में आंकलन करने में नाकामयाब रहा. अमरीका की नामी-गिरामी ख़ुफ़िया एजेन्सी भी पूरी दुनिया में मुंह दिखाने लायक नहीं रह गयी थी.       अटलजी ने प्रायः सभी मोर्चों पर अच्छी तैयारी कर रखी थी. आर्थिक प्रतिबन्ध के नकारात्मक प्रभावों को  कम से कम करने हेतु उन्होंने "इंडिया इनसर्जेंट बॉन्ड" जारी किया और भारत से बाहर बसे और विदेशों में कार्यरत अमीर भारतीयों को पत्र लिखकर उक्त बॉन्ड खरीदने का व्यक्तिगत आग्रह किया। उक्त बॉन्ड की अपेक्षा से अधिक विक्री हुई और अमरीका के आर्थिक प्रतिबन्धों का कोई विशेष नकारात्मक असर नहीं पड़ा.      आर्थिक प्रतिबन्धों को बेअसर होता देख क्लिण्टन प्रशासन के कुछ भारत विरोधी अधिकारीगण एक गुप्त योजना बनाने में जुट गये.

एक साक्षात्कार में दिखे संस्कार की कहानी; एक बुजुर्ग की जुबानी.

एक बार एक चतुर्थ वर्गीय पद के लिये एक साक्षात्कार का आयोजन हुआ. उस पद के लिये योग्यता किसी भी भारतीय हेतु मिड्ल पास होना, स्वस्थ होना और 18 से 25 वर्ष का होना आवश्यक था. उस समय क्षेत्रीयता का कोई विशेष मुद्दा नहीं था, लेकिन स्थानीय को ही अघोषित रूप से प्राथमिकता देना था. अपने देश में बेरोजगारी के लगभग समानुपाती ही मात्र एक पद हेतु साठ आवेदन प्राप्त हुए. उस पद पर नियुक्ति हेतु उस समय कोई लिखित परीक्षा का आयोजन नहीं होता था.      चूँकि पद एक और उम्मीदवार साठ थे, अतः तय हुआ कि पहले आवेदकों की चिकित्सीय जाँच करा ली जाये। चिकित्सीय जाँच के बाद 57 उम्मीदवारों को साक्षात्कार हेतु एक ही दिन बुलाया गया. साक्षात्कार लेने वाले तीन अधिकारी थे. साक्षात्कार में आनेवालों में से तीन उम्मीदवारों की पैरवी राजनेताओं के तरफ से और दो की पैरवी उसी इलाके में पदस्थापित अधिकारियों ने की थी. यह भी एक संयोग ही था कि साक्षात्कार लेने वाले किसी अधिकारी का कोई प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से अपना कोई उम्मीदवार नहीं था.      साक्षात्कार लेने वालों के सामने धर्म संकट आ गया था कि पैरवी नहीं सुनने पर खुद ही अपने को आसन्न