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Showing posts from March, 2014

भारत-चीन युद्ध के समय एक सैनिक का सम्बोधन!

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Kamta Singh     1962 में भारत-चीन युद्ध चल रहा था. युद्ध के मोर्चे पर भारत की स्थिति अच्छी नहीं चल रही थी. आम जनता और हमारे सैनिकों का मनोबल बढ़ाने के लिए जगह-जगह जन-सभायें हो रही थीं. गया(बिहार) के गाँधी मैदान में भी एक सभा हुई थी. इस जन-सभा का जोर-शोर से प्रचार हुआ था. प्रचार में सिर्फ इतना कहा गया था कि कोई बड़ा फौजी जेनरल आने वाला है. प्रचार से प्रभावित होकर बगल के फ़ोटो वाले श्री कामता सिंह भी अपने गाँव से उस गाँधी मैदान में समय से करीब पन्द्रह मिनट पहले ही पँहुच गये थे.     आगे कि कहानी श्री कामता सिंह के सुनाये अनुसार है. पूरा गाँधी मैदान भर गया था, लेकिन लोग अभी भी आ रहे थे. सरकारी व्यवस्था नहीं के बराबर थी, लेकिन अनुशासन बना हुआ था. जिसको जहाँ जगह मिला वहीँ बैठ गया. जिसको जगह नहीं मिल रहा था वह मैदान के किनारे खड़ा होने लगा. तबतक जानकारी मिल गयी थी कि आज सेवा निवृत्त जेनरल करियप्पा साहेब आने वाले हैं. कोई कह रहा था कि करियप्पा साहेब बहुत काले हैं, कोई कह रहा था कि वे बहुत कड़क हैं.      इसी बीच हल्ला हुआ कि जेनरल साहेब आ गये हैं. मञ्च संचालक ने उनके आगमन की घोषणा की और लोगों

नयी सरकार के समक्ष आने वाली चुनौतियाँ

    हर नयी सरकार को विरासत में काफी उलझी हुई समस्यायें मिलती हैं. शायद नयी सरकार को भी निम्न चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है:- 1. सरकार पर विकराल कर्ज:-  मीडिया की ख़बरों के अनुसार हमारे देश पर करीब 57 लाख करोड़ रुपये का कर्ज है. यह तो आर्थिक विशेषज्ञ ही बता सकते हैं कि इस आकार का कर्ज हमारी अर्थ-व्यवस्था के विकास में सहायक है या बाधक। कर्ज की राशि को अनुत्पादक कार्यों में भी खर्च किया जाता रहा है. जैसे नेताओं और नाकरशाहों को घुमाने-फिराने में यानि "जावत जीवेत सुखम् जीवेत, ऋणम् कृत्वा घृतम् पिवेत". इस स्थिति को बदलना होगा।   2. हमारे सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियों पर जरुरत से ज्यादा कर्ज:- अभी इंडियन एयर लाइन्स/ एयर इंडिया पर सबसे ज्यादा कर्ज है. 3.  हमारे सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियों में  जरुरत से ज्यादा स्टाफ:- जरुरत से ज्यादा कर्मचारी होने से उनकी श्रम-उत्पादकता घट रही है. 4.  हमारे सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का बढ़ता NPA:- मीडिया की ख़बरों से पता चलता है कि हमारे सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की अनर्जक सम्पत्ति ज्यादा बढ़ रही है. पेशेवर करजखोर कर्ज नहीं लौटा रहे है

हमारे चारागाहों को पुनः पनपने दिया जाय.

      भ्रष्टाचार का बोलबाल इतना ज्यादा हो गया है कि चाहे बच्चों की सरकारी शिक्षा हो, या सरकारी अस्पतालों में इलाज करवाना हो या सरकारी कार्यालयों में कोई वाजिब से वाजिब काम करना हो बिना पैसे दिये कुछ आराम से नहीं होता। छोटा कर्मचारी से बड़े अधिकारी कष्ट में पड़े आम जनता को अपना चरागाह समझ बैठे हैं. कहीं आवेदन दीजिये पावती रशीद नहीं मिलता। शिकायती आवेदन को सम्बन्धित रजिस्टर में प्रविष्टि नहीं की जाती। ऊपर के अधिकारी सर्व सुलभ नहीं रहते और मिलते भी हैं तो इस तरह से व्यवहार करते हैं मानो आप अपना काम हो ही गया समझो, लेकिन काम नहीं होता। इससे तो यही लगता है कि सबकी मिलीभगत है और भ्रष्टाचार की कमाई में सबों को हिस्सा मिलता हो.      हमारे अधिकांश जनप्रतिनिधि काफी खर्च कर चुनाव जीतते हैं और उनका धन कम ही समय में कई गुना हो जाता है. इससे स्पष्ट है कि कहीं गड़बड़ी है. हमारे नेता हमारे सरकारी उपक्रमों/आयोग/बोर्ड/निगम या प्राधिकारों को चरागाह समझते है. इसके शीर्ष पदों पर आसीन होने के लिये तिकड़म और जोड़-तोड़ करते रहते हैं.      91वें संविधान संसोधन द्वारा वर्ष 2003 में श्री अटल बिहारी बाजपेयी की सरका

आओ हम सब मिलकर अपने प्रजातन्त्र को मजबूत बनावें।

    प्रजातन्त्र एक संवेदनशील और विश्व की सबसे खर्चीली शासन व्यवस्था है. इसके बायें तरफ से अराजकता और दायें तरफ से अधिनायक वाद का खतरा घेरे रहता है तथा इसको पीछे से  Crony Capitalism धकेलकर इसे आर्थिक रूप से गुलाम बनाने की ताक में रहता है. मजबूत प्रजातान्त्रिक शासन व्यवस्था बनाये रखने में इसके नागरिकों की महती भूमिका रहती है.           प्रजातन्त्र का चौथा स्तम्भ होना चाहिये जन शिकायत निवारण तन्त्र । हमारे देश में मीडिया को चौथा स्तम्भ माना जाता है, लेकिन उसे सरकारी और बड़े औद्योगिक घरानों से मिलने वाले विज्ञापनों पर निर्भर करना पड़ता है. प्रसिद्ध पत्रकार श्री एन. राम ने कहा था कि जिस मीडिया कम्पनी के आय का करीब 80% स्रोत विज्ञापन हो उस कम्पनी की स्वतन्त्र नीति सम्भव नहीं है. हमें मीडिया की इस लाचारी को समझनी चाहिये।इसी कारण हमारा मीडिया पूरी ताक़त से जन समस्याओं को नहीं उठा पाता।           लोगों को अपनी वाजिब समस्याओं के समाधान के लिये काफी संघर्ष करना पड़ता है. बाबू लोगों का प्रायः एक ही जवाब होता है कि कल आईये। लेकिन वह कल अपना चप्पल काफी घिसने के बाद तक़दीर वालों के लिये महीनो बाद आता

अराजक और हिंसक होती राजनीति!

    अब राजनीति धीरे-धीरे अराजक होते जा रही है. हमारे युवा पीढ़ी के लोग भले ही इसके दुष्परिणाम से वाकिफ न हों; हमारे प्रौढ़ व्यक्तियों और बुजुर्गों को इसके दुष्परिणाम को उजागर करना चाहिये। पहले भी Simon Commission से लेकर पिछले उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनाओं तक बड़े नेताओं को विरोध स्वरुप काला झण्डा दिखाया जाता रहा है. मसौढ़ी, पटना(बिहार) से नेता के चेहरे पर कालिख/स्याही पोतने से लेकर चेहरे पर स्याही और जूता फेंकने का सिलसिला रुक नहीं रहा है. लेकिन अब विरोध ज्यादा हिंसक होते जा रहा है.    इस चुनाव में नेताओं के भड़काऊ भाषण बहुत बढ़ गये हैं. भड़काऊ भाषण उनके समर्थकों में उन्माद और विरोधियों में नफरत पैदा कर रहा है, जो हिंसा के पूर्व की अवस्था होती है. मौका मिलते ही उन्मादी समर्थक या नफरत करने वाले विरोधी दल के कार्यकर्त्ता अराजक और हिंसक गतिविधि में लिप्त हो रहे हैं.     राजनैतिक दलों द्वारा पदाधिकारियों का घेराव, रोड जाम, बन्द और रेल रोको आंदोलनों से सामान्य गतिविधि ठप होने लगती है और आम जनता को काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है. ये सब राजनीति को अराजक बना देती है. प्रशासन तो ऐसी स्थि

दण्ड विधानों में सतत सुधार की आवश्यकता।

                     दण्ड विधानों में सतत सुधार की आवश्यकता।      1857 के बगावत के बाद अंग्रेजों ने भारतीय दण्ड विधान को 6 अक्टूबर 1860 में पास कर पहली जनवरी 1862 को पूरे भारत में लागू किया। अंग्रेजों ने अपने पहले विधि आयोग की स्थापना लॉर्ड मैकॉले की अध्यक्षता में की थी। इस आयोग ने अपना प्रतिवेदन तत्कालीन गवर्नर-जेनरल के Council में 1837 में प्रस्तुत किया। गहन मन्थन के बाद इसे 1860 में उक्त Council ने पास किया।      इस कानून के लागू होने के पहले अपने देश की लगभग नब्बे प्रतिशत आबादी गावों में बस्ती थी, जहाँ ग्राम-सभा एक मजबूत संस्था हुआ करती थी. गावों के लोग एक जगह पर बैठ कर अपनी समस्याओं पर विचार-विमर्श कर उनका समाधान निकाल लेते थे. छोटे-मोटे अपराधों का निपटारा भी वहीँ हो जाता था. भारतीय दण्ड विधान लागू होने से यह ग्रामीण संस्था कमजोर पड़ते चला गया.        इसके पहले अंग्रेजी सरकार अपने कुछ आदेशों के द्वारा शासन करती थी। आदेशों के अनुपालन में अंग्रेज अधिकारी काफी मनमानी करते थे और कभी-कभी तो बहुत ही क्रूर व्यवहार करते थे। सबसे ज्यादा क्रूरता तो अंग्रेज अधिकारियों ने प्रथम स्वतन्त्रत