हमारे चारागाहों को पुनः पनपने दिया जाय.

      भ्रष्टाचार का बोलबाल इतना ज्यादा हो गया है कि चाहे बच्चों की सरकारी शिक्षा हो, या सरकारी अस्पतालों में इलाज करवाना हो या सरकारी कार्यालयों में कोई वाजिब से वाजिब काम करना हो बिना पैसे दिये कुछ आराम से नहीं होता। छोटा कर्मचारी से बड़े अधिकारी कष्ट में पड़े आम जनता को अपना चरागाह समझ बैठे हैं. कहीं आवेदन दीजिये पावती रशीद नहीं मिलता। शिकायती आवेदन को सम्बन्धित रजिस्टर में प्रविष्टि नहीं की जाती। ऊपर के अधिकारी सर्व सुलभ नहीं रहते और मिलते भी हैं तो इस तरह से व्यवहार करते हैं मानो आप अपना काम हो ही गया समझो, लेकिन काम नहीं होता। इससे तो यही लगता है कि सबकी मिलीभगत है और भ्रष्टाचार की कमाई में सबों को हिस्सा मिलता हो.
     हमारे अधिकांश जनप्रतिनिधि काफी खर्च कर चुनाव जीतते हैं और उनका धन कम ही समय में कई गुना हो जाता है. इससे स्पष्ट है कि कहीं गड़बड़ी है.
हमारे नेता हमारे सरकारी उपक्रमों/आयोग/बोर्ड/निगम या प्राधिकारों को चरागाह समझते है. इसके शीर्ष पदों पर आसीन होने के लिये तिकड़म और जोड़-तोड़ करते रहते हैं.
     91वें संविधान संसोधन द्वारा वर्ष 2003 में श्री अटल बिहारी बाजपेयी की सरकार ने केन्द्र और राज्य सरकारों में मन्त्रियों की अधिकतम संख्या सांसदों/विधायकों का 15% सीमित कर दिया है. इस संसोधन के लागु होने के बाद सहयोगी माननीय विधायकों के लिये हमारे सरकारी उपक्रमों/आयोग/बोर्ड या प्राधिकारों के प्रमुखों या सदस्य का पद आरक्षित किया जाने लगा. इन पदों पर विशेषज्ञों को जाना चाहिये था, जो अपनी विशेष योग्यता दिखाते हुए अपने संस्थान/संगठन को आगे बढ़ाते। लेकिन राजनैतिक विवशता सम्बन्धित संस्थान/संगठन को कमजोर कर रही है. हमारे राजनेता इन संस्थानों में पद सम्हालते ही अपना चरागाह समझते हुए अपने लोगों को इसमें बहाल करने लगते हैं और अपने शाही अन्दाज के कारण उनका प्रशासनिक खर्च काफी बढ़ा देते हैं.
     रेल-व्यवस्था हमारे देश में नेताओं और रेल अधिकारियों के लिये सबसे बड़ा चारागाह बन चुका है. पहले हमारे एक्सप्रेस और सुपर एक्सप्रेस ट्रेनों में सामान्य श्रेणी और द्वितीय स्लीपर हुआ करता था. धीरे-धीरे रेल की उपेक्षा के कारण यह Cattle Class और Semi Cattle Class में बदल गया है. हमारे रेलवे की उपेक्षा का आलम यह कि सैंकड़ों परियोजनायें वर्षों से लम्बित पड़ी हैं. कुछ तो रुकी हुई हैं और अधिकांश में मंथर गति से काम हो रहा है. 15 किमी की बड़की चांपी-टोरी रेल लाइन कई वर्षों से लटकी हुई है. इसके बन जाने से राँची से उत्तर प्रदेश/ मध्य प्रदेश की ओर जाने वाली गाड़ियों की दूरी काफी घट जाती। इससे रेल को ऊर्जा की काफी बचत भी होती। Scams in Railway
    उड्डयन, सड़क-मार्ग, वाहन, सड़क ठेकेदारी क्षेत्र के लालची पूंजीपति और कच्चे तेल के बड़े लालची व्यापारी मिलकर हमारे रेलवे को हमारे धुरन्धर नेताओं और अधिकारीयों के चरागाह बना दिये हैं.
    मेरे एक बैंकिंग मामलों के कुछ जानकार मित्र बताते हैं कि सरकारी मिलकियत वाले बैंक भी कोई छोटा चरागाह नहीं है. मीडिया में छपी ख़बरों के अनुसार पिछले वित्तीय वर्ष में कुल 28 सरकारी क्षेत्र के बैंकों का लाभ एक लाख करोड़ रुपये से अधिक का हुआ था. इसमें से बैंकों के NPA का पाँचवां हिस्सा उसके लाभ से सामंजित करने के लिये वाध्य किया गया. चर्चा तो यह भी है कि अगर एक दारु व्यापारी और दो हीरा व्यापारी अपना कर्ज वापस करने लगे तो बैंकों का अनर्जक आस्ति काफी कम हो जायेगा और बैंक अपने जमाकर्ताओं को अधिक ब्याज देने में सक्षम हो सकेंगे। अगर सरकारी क्षेत्र के बैंकों को आपस में विलय कर उनकी संख्या चार-पाँच कर दी जाय तो बैंकों का प्रशासनिक खर्च काफी कम हो जायेगा और पेशेवर करजखोरों पर भी नियन्त्रण रखना आसान हो जायेगा। यह समझना आवश्यक है कि बैंकों में आम जनता का ही पैसा जमा है. ऐसी स्थिति में पेशेवर कर्जखोरों द्वारा कर्ज वापसी नहीं करने पर उनके कर्ज को अनर्जक आस्ति में बदलने के बजाय उनपर गवन का मुकदमा चलना चाहिये और उनके और उनके कम्पनियों के निर्देशकों की सम्पत्ति नीलाम कर उन्हें शीघ्र दिवालिया घोषित किया जाना चाहिये।    
    यही हालत एयर इंडिया/इंडियन एयर लाइन्स की भी है. इन दोनों कम्पनियों के विलय के बाद इसपर अत्यधिक कर्ज का बोझ डाल दिया गया है. सुना है कि एक कथित ईमानदार नेता की पत्नी द्वारा बनाये गये एक घटिया पेंटिंग को एक करोड़ रुपये से ज्यादा में खरीदने के लिये इसके अधिकारियों पर दबाव डाला गया है. इसको जरुरत से ज्यादा वायुयान भी खरीदवाया गया है.
     यहाँ उक्त तीन ही उपक्रमों/उपक्रम समूह का उदहारण दिया है. पाठकों से अनुरोध है कि स्वयम् ही अपने आस-पास के सरकारी उपक्रमों/आयोग/बोर्ड/निगम या प्राधिकारों को गौर से देखें। शायद आपको ये सब चारागाह ही लगें।
     देहात में एक कहावत कि अगर गाय, बैल और भैंस किसी पौधा को चर ले तो उस पौधे के पुनः पनपने की सम्भावना बनी रहती है, लेकिन यदि बकरी किसी पौधा को चर ले तो उसके पनपने की सम्भावना नहीं के बराबर होती है और पौधा ठूंठ हो जाता है. गाय, बैल और भैंस तो दूर से दिख जाते हैं और या तो उन्हें भगा दिया जाता है या पकड़े जाते हैं, लेकिन बकरियाँ(शातिर भ्रष्टाचारी) बड़ी मुश्किल से पकड़ में आतीं हैं.
     आज राजनीति और प्रशासन में भेड़ियों की संख्या बढ़ रही है. अब या तो भेड़ियों को मार भगाया जाय या हमारे उक्त चरागाहों को अपने सामने ठूंठ होते देखा जाय. हमारा देश भारत जो कभी "सोने की चिड़ियाँ" कहलाता था को देखते-देखते आर्थिक गुलामी की तरफ धकेल दिया जा रहा है।
     इन समस्याओं के गहन अध्ययन हेतु बोहरा समिति बनी थी, लेकिन शायद उसके सुझाओं पर अमल की जबाबदेही हमारे भावी पीढ़ी के नेताओं पर छोड़ दी गयी है. हमारे युवा समझदार हैं. ये लोग सभी तरह के जानवरों को भागकर हमारे चरागाहों को पुनः पनपने का मौका देंगे। हमारा समाज जागरूक युवाओं के तरफ कातर भाव से देख रहा है. आज फिर गुरुदत्त की पुरानी आवाज किसी न किसी रूप में गूंज रही है--"जिन्हे नाज़ है हिन्द पर वे कहाँ हैं.. कहाँ हैं.. "।
    हो सकता है कुछ राज्यों में ऐसी स्थिति नहीं हो. उन राज्यों के जागरूक मतदाता बधाई के पात्र हैं.
https://twitter.com/BishwaNathSingh

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