आओ हम सब मिलकर अपने प्रजातन्त्र को मजबूत बनावें।

    प्रजातन्त्र एक संवेदनशील और विश्व की सबसे खर्चीली शासन व्यवस्था है. इसके बायें तरफ से अराजकता और दायें तरफ से अधिनायक वाद का खतरा घेरे रहता है तथा इसको पीछे से Crony Capitalism धकेलकर इसे आर्थिक रूप से गुलाम बनाने की ताक में रहता है. मजबूत प्रजातान्त्रिक शासन व्यवस्था बनाये रखने में इसके नागरिकों की महती भूमिका रहती है.      
    प्रजातन्त्र का चौथा स्तम्भ होना चाहिये जन शिकायत निवारण तन्त्र। हमारे देश में मीडिया को चौथा स्तम्भ माना जाता है, लेकिन उसे सरकारी और बड़े औद्योगिक घरानों से मिलने वाले विज्ञापनों पर निर्भर करना पड़ता है. प्रसिद्ध पत्रकार श्री एन. राम ने कहा था कि जिस मीडिया कम्पनी के आय का करीब 80% स्रोत विज्ञापन हो उस कम्पनी की स्वतन्त्र नीति सम्भव नहीं है. हमें मीडिया की इस लाचारी को समझनी चाहिये।इसी कारण हमारा मीडिया पूरी ताक़त से जन समस्याओं को नहीं उठा पाता।      
    लोगों को अपनी वाजिब समस्याओं के समाधान के लिये काफी संघर्ष करना पड़ता है. बाबू लोगों का प्रायः एक ही जवाब होता है कि कल आईये। लेकिन वह कल अपना चप्पल काफी घिसने के बाद तक़दीर वालों के लिये महीनो बाद आता है. हमारे देश में जन-शिकायत निवारण तन्त्र काफी कमजोर है. जिस देश में जन शिकायत निवारण तन्त्र कमजोर हो वहाँ प्रजातन्त्र मजबूत नहीं हो सकता है.
    जब गरीब जनता अपनी शिकायत लेकर सम्बन्धित कार्यालय पँहुचती है तो उसका आवेदन तो ले लिया जाता है, लेकिन उसका पावती नहीं दिया जाता। जब पावती नहीं दिया जाता तो उस आवेदन की प्रविष्टि प्राप्ति पंजी में किये जाने की सम्भावना कम ही होती है. कर्मचारियों की नीति प्रायः टालने वाली रहती है.
    हमारे न्यायालयों में यह स्थिति उलट है. वहाँ सभी मामलों को पंजीकृत किया जाता है. न्यायलय में मामलों के निष्पादन में विलम्ब भले ही हो, लेकिन पंजीकृत मामलों की वर्तमान स्थिति का पता चल जाता है. सरकारी कार्यालयों या कम्पनी कार्यालयों में तो पता ही नहीं चलता की शिकायत पत्रों पर कार्यवाई की अद्यतन स्थिति क्या है.
    प्रजातन्त्र का एक महत्वपूर्ण अवयव है चुनावों में जनता की भागीदारी। हमारे यहाँ शहरी इलाकों से मतदान का प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों में अधिक हो रहा है. शहरी इलाकों में खाते-पीते लोग मतदान में रूचि नहीं रखते हैं लेकिन मत-सर्वेक्षणों और मतगणना में काफी दिलचस्पी लेते हैं. बहुत से लोगों को तो अभी तक लम्बे-चौड़े दावों के बाद भी मतदाता सूचि में पंजीकृत ही नहीं किया गया है.
    एक बार इन्दिरा जी के ज़माने में उग्रवादियों/आतंकवादियों के विरोध के साये में आसाम और जम्मू & कश्मीर में चुनाव हुआ था. उस चुनाव में बहुत से जन-प्रतिनिधि दस प्रतिशत से कम मत पाकर भी विधायक बनकर राज किये थे. उन्हें स्थानीय लोगों की समस्यायों से कोई सम्वेदनशीलता नहीं थी और उनके राज में वहाँ प्रजातन्त्र जनता की भागीदारी के बिना कमजोर ही रहा. यदि 40% से कम मत पाकर जीतने वाले जन-प्रतिनिधियों का कार्यकाल मात्र दो साल का कर दिया जाये तो निश्चित रूप से हमारे नेता समाज के विभिन्न भागों को जोड़ने का प्रयास करेंगे। और इस तरह हमारा प्रजातन्त्र मजबूत होगा।     
    चुनाव कार्य में लगे निचले कर्मचारी/अधिकारी प्रायः शासक दल से प्रभावित हो जाते हैं और अपने पक्ष के लोगों का विभिन्न नाम से या दो बूथ पर एक ही आदमी का बोगस मतदाता कार्ड बनवाते रहते हैं. जन-गणना विभाग और चुनाव आयोग द्वारा जारी वृद्धि-दर में भारी अन्तर बोगस मतदाता के स्तित्व को प्रमाणित करता है. गहन मतदाता पुनर्निरीक्षण भी कारगर नहीं रहा है. जन-शिकायत निवारण की प्रभावी व्यवस्था का आभाव भी हमारे प्रजातन्त्र को कमजोर कर रहा है.
    हमारे चुनाव कार्य में लगे कर्मचारियों और हमारे सैनिकों को मतदान का मौका नहीं मिलता। जबकि इनकी संख्या अब करोड़ से पार कर गयी है. बिहार, झारखण्ड और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों से बड़ी संख्या में लोग काम करने हेतु अन्य विकसित राज्यों में जाते हैं. उनकी हैसियत ऐसी नहीं कि अपना काम छोड़कर और काफी खर्च कर सिर्फ मतदान करने के लिये अपने गाँव आवें। कहने को तो हमारे यहाँ डाक से मतदान की व्यवस्था है, लेकिन इसका उपयोग अज्ञात कारणों से नहीं के बराबर है. ये सभी लोग हमारे देश के जागरूक मतदाता हैं. हर हालत में हमें मतदान का प्रतिशत बढ़ाना होगा। मतदान का प्रतिशत बढ़ाने के लिये अभी डाक-बैलट मतदान का उपयोग बढ़ाना होगा. दुर्भागयवश हमारा प्रजातन्त्र इनमे से अधिकांश के विचारों का प्रतिनिधित्व नहीं करता है.
    खर्चीली चुनावी व्यवस्था:- चुनाव दर चुनाव हमारी चनावी व्यवस्था महंगी होते जा रही है. पन्द्रहवीं लोकसभा के लिये एक प्रत्याशी चालीस लाख रुपये तक खर्च कर सकता था, जबकि सोलहवीं लोकसभा(2014) के लिये यह सीमा बढ़ाकर सत्तर लाख रुपये कर दी गयी है. किसी राजनैतिक दल के लिए खर्च की कोई सीमा नहीं है.
    राजनैतिक चन्दा:- आये दिन मीडिया में इस आशय की ख़बरें आती रही हैं कि बड़े राजनैतिक दलों को करोड़ों रुपये का बेनामी चन्दा मिलती रही है. हमें यह स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिये कि कोई भी पूंजीपति करोड़ों का चन्दा यूँ ही नहीं देता बल्कि वह बड़े राजनैतिक दलों को एक बड़ी कम्पनी मानकर उसमें बेहतर कमाई की उम्मीद में निवेश करता है. यह निवेश हमारे देश में Crony Capitalism पैदा कर रहा है जो उद्योग और व्यापार जगत में स्वस्थ स्पर्धा को कुन्द कर रहा है. परिणाम स्वरुप महँगाई बढ़ रही है. ऐसी परिस्थिति में जिसके पास पैसा कम हो और संगठन भी कमजोर हो उसे जीत की उम्मीद नहीं करनी चाहिये। Crony Capitalism हमारे देश को आर्थिक गुलामी की जंजीरों में जकड़ सकता है.
    बोगस मतदाता और दूसरे के नाम पर मतदान करना आज भी एक समस्या बनी हुई है. भले ही आधार कार्ड योजना की आलोचना की जाती रही हो, लेकिन एक बात निर्विवाद रूप से सत्य है कि एक आधार नम्बर का एक से अधिक व्यक्ति के नाम से आधार कार्ड नहीं बनाया जा सकता है. यदि आधार कार्ड से मतदाता पहचान पत्र को जोड़ दिया जाय तो बोगस मतदाता की समस्या का समाधान हो जायेगा। प्रभावी वीडियो रिकॉर्डिंग से दूसरे के नाम पर मतदान की समस्या का समाधान भी हो सकता है.
    तकनीकि विकास ने देश के अधिकांश लोगों के पास टीवी की सुविधा उपलब्ध करा दिया है. आज हम अमेरिका के 1960 से आगे बढ़ गए हैं. इस चुनाव में हम 1960 के निक्सन-केनेडी John F Kennedy'speech टीवी बहस दुहरा सकते हैं, जिसमें देश के भावी प्रधान मन्त्री के उम्मीदवारों के बीच तीन-चार चक्र के बहस के बाद देश के मतदाता को अपना नेता चुनने में सहुलियत हो. यह हमारे चुनावी खर्च को भी कम कर सकता है.
    समय-समय पर चुनाव खर्च को सरकार द्वारा उठाये जाने की बात भी उठती रही है. चनाव का कुछ खर्च सरकार के उठाये जाने पर काबिल एवं ईमानदार साधारण नेताओं के भी लोक-सभा/विधान सभा में पँहुचने की सम्भावना बनेगी। चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशियों को बूथ प्रबन्धन में काफी ऊर्जा और पैसा खर्च करना पड़ता है.
    यहाँ पर चुनाव से जुड़ी एक छोटी घटना का उल्लेख करना प्रासंगिक होगा। संयोगवश एक सम्भ्रांत किसान घर का इंजिनियरिंग की पढाई पूरा कर युवक अपने गाँव आया. अगले ही माह विधान सभा का आम चुनाव होने वाला था. उसके मन में समाजसेवा की भावना जगी और राजनीति से अनजान रहते हुए भी उसने निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में परचा भर दिया। उसने अपने पिता के लाख समझाने पर भी अपना परचा वापस नहीं लिया और अपने पिता की साईकिल से चुनाव प्रचार में निकल पड़ा. उस चुनाव क्षेत्र में करीब तीन सौ गाँव थे. उसने यथाशक्ति  करीब एक तिहाई गावों में जाकर अपनी नीतियों और अपने कार्यक्रम को मतदाताओं के बीच समझाया। मतदान के दो दिन पहले उनके पिता को लगा कि उनके बेटे का जमानत नहीं बच पायेगा, अतः उन्होंने अपने प्रभाव क्षेत्र के आस-पास के गावों के कुछ लोगों को पत्र और प्रति मतदाता एक सौ रूपया के अपने नये नेता पुत्र को यह समझा कर भेजा कि "कम से कम मेरे इज्जत का सम्मान करो और अपना जमानत बचा लो".
     वह अपने पिता की बात मानकर लिखित पते वालों के यहाँ जाकर पत्र और पैसा पँहुचा दिया। वे लोग पत्र तो ले लिये, लेकिन पैसा नहीं लिया। नेता जी अब अपनी अद्यतन स्थिति समझ चुके थे. वे निराश होकर अपने घर लौट आये. पत्र पाने वालों ने अपने बीच के लोगों को बुलाकर उस किसान की बात रखी. उस किसान को लोग मालिक कहते थे, जो कठिन समय में प्रायः सभी लोगों को मदद कर चुके थे. उनलोगों ने नेता जी के पक्ष में मतदान करने का फैसला लिया और एक स्वर से लोगों ने कहा कि इस बार बिना पैसा लिये मतदान करना है और दूसरे नेता से लिया हुआ दो सौ रुपया प्रति मतदाता लौटा देना है. उन लोगों ने इसी अनुरूप मतदान किया और नये नेताजी का जमानत बच गया. उस चुनाव में बाहर का एक नव-धनाढ्य और पेशेवर नेता चुनाव जीत गया.
     इंजीनियर साहब ने DEBRIEFING किया। उन्होंने उन गावों का फिर से भ्रमण किया, जहाँ वे पहले प्रचार हेतु जा चुके थे और उन्होंने नेता को मतदान करने की प्रक्रिया समझी। उन्होंने अपना Debriefing Report अपनी डायरी में लिखी और अपने पिता से माफ़ी माँगकर नौकरी प्राप्त करने के लिये निकल पड़े.  गाँव वाले बताते हैं कि आज इंजीनियर साहब कहीं अच्छी पर तैनात हैं. उनके डायरी में एक लाइन का Debriefing Report था, जिसमें लिखा था "प्रजातन्त्र की कम समझ रखने वाले और लालची लोगों को जन प्रतिनिधि के रूप में राजनीति का धूर्त व्यापारी ही मिलेगा".
     जैसा कि हम जानते हैं कि हर चीज या सेवा का अपना एक मूल्य होता है. अतः हमें अपने प्रजातन्त्र को मजबूत बनाने हेतु जागरूक नागरिकों कुछ चन्दा अपने पास से देना चाहिये और उक्त बिमारियों को समझते हुए इसकी चुनावी प्रणाली का हिस्सा बनकर इसमें भाग लेना चाहिये। हमारी चुनावी व्यवस्था में भी कुछ खामियाँ हैं. पाठकों से अनुरोध है कि इस पर विचार करें और समय-समय पर अपनी आवाज उठाते रहें।
निम्नलिखित उपाय हमारे प्रजातन्त्र को मजबूत बना सकता है---
1. वोट देकर और दूसरों को वोट देने हेतु प्रेरित कर,
2. चुनावी बेईमानियों को समझने का प्रयास करें,
3. 1967 में पटना(बिहार) में एक नारा "केबी से नोट लो और महामाया को वोट दो" बहुत लोकप्रिय हुआ था. यानि आप नोट लेने में पीछे मत रहो, लेकिन अपना वोट अपने मनपसन्द उम्मीदवार को ही दें,
4. डम्मी प्रत्याशियों को पहचाने और उनको वोट कत्तई न दें,
5. मतदान के पहले सामूहिक चर्चाओं में भाग लें और प्रत्याशियों और उनके पार्टी के गुण-अवगुणों पर चर्चा करें,
6. प्रत्याशियों के Trust, Taxes, Team  और उनके Transparency पर चर्चा जरुर करें।
7. एक ट्विप्ल या अन्य Social Media वाले अपने फोन से कम से कम दो निराश मतदाताओं को मतदान के लिये प्रेरित अवश्य करें।
https://twitter.com/BishwaNathSingh

Update किसी ने क्या खूब लिखा है
"दिया नहीं अगर आपने वोट,
तो मत निकालना सरकार मे खोट,
चाहे न मिले हों शराब और नोट।
फिर भी जरूर देना अपना अपना वोट।"
Reader's contribution
1.  https://twitter.com/samarjeet_n के अनुसार जब राजनैतिक कार्यकर्त्ता चुनाव में काम करने के लिए अपने पार्टी से पैसे लेंगे तो पैसा कहाँ से आयेगा?
              

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