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Showing posts from February, 2017

उस ज्ञान का क्या लाभ जो राष्ट्र निर्माण के काम ना सके.

हमारे देश में ज्ञानियों की संख्या बहुत है। ऐसे लोगों के पास ऐसी जानकारियां हैं जिनके सदुपयोग से हमारा राष्ट्र कम समय में ही काफी प्रगति कर सकता है। दुनिया में शायद ही ऐसा कोई व्यक्ति होगा जिसके पास राष्ट्र निर्माण के योग्य कोई न कोई महत्वपूर्ण जानकारी नहीं होगी। ऐसे बहुत लोग दुनिया से विदा हो गये लेकिन अपने पास की विशेष जानकारी दूसरों को नहीं दे पाये। इसका सबसे बड़ा खामियाजा हमारे आयुर्वेद को उठाना पड़ा है. जब हमारा देश आज़ादी और गुलामी के बीच के संक्रमण काल से गुजर रहा था तब भी बहुत से ज्ञानी और चिन्तक चुप रहे. वे चाहते तो गुलामी का दुष्परिणाम सामान्य लोगों को समझा सकते थे लेकिन उन लोगों ने चुप रहना ही उचित समझा। शायद उन्हें लगा कि उन्हें अगला शासक और उसके आदमी इसलिये तंग नहीं करेंगे क्योंकि वे तो तटस्थ हैं. यही स्थिति आज बढ़ती जनसँख्या और विकराल होती बेरोजगारी ने पैदा कर दी है. आज पुनः हम एक संक्रमण काल से गुजर रहे हैं. धीरे-धीरे संसाधनों की कमी हो रही है. सरकारी अस्पताल हो या सरकारी स्कुल या रेल गाड़ी हो हर जगह भीड़ देख कर इसे अनुभव किया जा सकता है. यानि राष्ट्रीय संसाधनो

गलतियों का विश्लेषण और उनके सुधार।

     गलती मानव से ही होती है(To err is Human). किशोरों से लेकर बूढ़े तक जीवन में हर उम्र में लोगों से गलतियां होते रहती हैं. जब गलती हो जाती है तो उसका प्रभाव भी तीव्रता के अनुरूप व्यक्ति के जीवन पर, उसके परिवार पर या समाज पर पड़ना स्वाभाविक है. अपनी गलती का आभास होने पर प्रायश्चित कर लेने से भी जीवन में सुधार हो जाता है. किशोरावस्था में तो लगता है कि अपनी गलती पकड़ी ही नहीं जायेगी। इस अवस्था को देहात में गदह पच्चीसी भी कहा जाता है     आईये हम समझें कि गलती का आशय क्या है. पहले हम घर से ही शुरू करते हैं. बचपन में बताया जाता है कि हर सामान को रखने हेतु एक स्थान निर्धारित होता है. अगर हम अपने घरेलु सामानों को उसके निर्धारित स्थान पर रखेंगे तो जरुरत पड़ने पर वह सामान बहुत ही शीघ्रता से मिल जायेगा। कभी-कभी हमें अपने सामानों को रखने में इतनी हड़बड़ी होती है कि सामानों को जहाँ बुझाया वहीँ रख देते हैं। कुछ दिनों के बाद हम यह भी भूल जाते हैं कि उस सामान को हम कहाँ रखे थे और जब बाद में उस सामान की जरुरत होती है तब वह सामान समय पर नहीं मिलता और घर में तनाव हो जाता है. प्रायः सभी घरों का अपना एक नियम

आरक्षण अब अधिकांश लोगों को कष्ट देने लगा है.

     26 जनवरी 1950 को हमारा सम्विधान लागू हुआ. हमारे सम्विधान निर्माताओं ने हमें सबको बराबरी का दर्जा दिया था. इस समानता के अधिकार की खूब चर्चा हुई थी और दुनिया भर में हमारे प्रजातन्त्र और सम्विधान की खूब प्रशंसा हुई. लेकिन अगले ही साल 1951 में प्रथम सम्विधान संसोधन के माध्यम से हमारे देश के नीति निर्धारक नेताओं ने हमसे समानता का अधिकार सदा के लिये छीन लिया और सरकारी नौकरी में आरक्षण की व्यवस्था कर दी. समय बीतने के साथ आरक्षण के लाभ-हानि भी सामने आने लगे. अब आरक्षण अधिकांश लोगों को कष्ट देने लगा है. इस कारण आरक्षण पर बहस भी तेज होने लगी है.        क्या यह हास्यास्पद नहीं है कि अब तीसरी पीढ़ी के लोग भी आरक्षण का मलाई खा रहे हैं और उसकी चौथी पीढ़ी के युवा लोग भी आरक्षण का लाभ लेने हेतु कतार में खड़े हैं. अर्थात आरक्षित वर्ग के सम्पन्न लोग ही अपने वर्ग के गरीबों का हक़ मार रहे हैं. संचार बढ़ने से इस बात की भी सम्भावना है कि निकट भविष्य में ही अपने अस्तित्व की रक्षा के लिये आरक्षित वर्ग में ही आंतरिक संघर्ष(Intra- Class Struggle for Existence) प्रारम्भ हो जाय. योग्यता:-   स रकारी नौकरी हेतु