उस ज्ञान का क्या लाभ जो राष्ट्र निर्माण के काम ना सके.
हमारे देश में ज्ञानियों की संख्या बहुत है। ऐसे लोगों के पास ऐसी जानकारियां हैं जिनके सदुपयोग से हमारा राष्ट्र कम समय में ही काफी प्रगति कर सकता है। दुनिया में शायद ही ऐसा कोई व्यक्ति होगा जिसके पास राष्ट्र निर्माण के योग्य कोई न कोई महत्वपूर्ण जानकारी नहीं होगी। ऐसे बहुत लोग दुनिया से विदा हो गये लेकिन अपने पास की विशेष जानकारी दूसरों को नहीं दे पाये। इसका सबसे बड़ा खामियाजा हमारे आयुर्वेद को उठाना पड़ा है.
जब हमारा देश आज़ादी और गुलामी के बीच के संक्रमण काल से गुजर रहा था तब भी बहुत से ज्ञानी और चिन्तक चुप रहे. वे चाहते तो गुलामी का दुष्परिणाम सामान्य लोगों को समझा सकते थे लेकिन उन लोगों ने चुप रहना ही उचित समझा। शायद उन्हें लगा कि उन्हें अगला शासक और उसके आदमी इसलिये तंग नहीं करेंगे क्योंकि वे तो तटस्थ हैं. यही स्थिति आज बढ़ती जनसँख्या और विकराल होती बेरोजगारी ने पैदा कर दी है. आज पुनः हम एक संक्रमण काल से गुजर रहे हैं.
धीरे-धीरे संसाधनों की कमी हो रही है. सरकारी अस्पताल हो या सरकारी स्कुल या रेल गाड़ी हो हर जगह भीड़ देख कर इसे अनुभव किया जा सकता है. यानि राष्ट्रीय संसाधनों को प्राप्त करने के लिये संघर्ष करना पड़ रहा है. हमारे संसाधनों पर विदेशियों और विदेशों में अपनी आत्मा भटकाने वाले लोगों की नज़र है और उन्हें लूटने पर आमादा हैं. हमारे बाज़ारों पर भी विदेशी कब्ज़ा करना चाह रहे हैं. हम जिन वस्तुओ का उत्पादन कर सकते हैं उनका भी उत्पादन करने में बाधा पँहुचाई जा रही है. डार्विन बाबा के "अस्तित्व के लिये संघर्ष" का काल निकट है और ज्ञानी और चिन्तक चुप हैं.
आज सोशल मीडिया ने एक बहुत ही अच्छा और बड़ा मञ्च बनता जा है जहाँ हम अपने विचारों का आदान-प्रदान कर सकते हैं. विचारों के आदान-प्रदान के क्रम में ऐसी कई महत्वपूर्ण जानकारियां उभर कर सामने आती हैं जो हमारे राष्ट्र निर्माण में काम आ सकती हैं.
लेकिन दुर्भाग्यवश ज्ञानी लोग राष्ट्र के ज्वलन्त मुद्दों पर भी बहस या चर्चा में भाग लेना नहीं चाहते। कम से कम ज्ञानी लोगों को यह भी बताना चाहिये कि आखिर वे लोग बेहस या चर्चा से क्यों भागते हैं? ऐसी भी स्थिति बनती रही है जिसमें ज्ञानी लोग मतदान में भाग भी लेना नहीं चाहते। जब ज्ञानी लोग चर्चा में भाग नहीं लेंगे; मतदान में भाग नहीं लेंगे तो फिर उनलोगों के पास सरकार के क्रिया-कलापों और सरकारी नीतियों में खोट निकालने का भी नैतिक अधिकार भी नहीं होना चाहिये।
अगर आपको लोकल ट्रेनों में यात्रा करने का मौका मिला हो और सौभाग्य से आपको बैठने की जगह भी मिल गयी हो तो वहाँ ज्वलन्त मुद्दों पर चल रही गरमा-गरम बहस का आनन्द उठा सकते हैं. क्या उसी तरह का मौका और मञ्च आज सोशल मीडिया प्रदान नहीं कर रहा है?
साधु, साधक, चिन्तक और विचारक आदि लोगों के पास समाज के अन्य लोगों की अपेक्षा ज्यादा जानकारी होती यानि समाज में ये लोग ज्ञानी कहलाते हैं लेकिन देश की आर्थिक गतिविधियों पर चर्चा करने से ये लोग कतराते रहते हैं. ऐसे ज्ञानी लोग समाज के लिये कम पर अपने लिये ज्यादा सोचते हैं. ऐसे ज्ञानी लोग हमारे समाज की सृजनशीलता और लोगों के श्रम-उतपादकता बढ़ाने में अपना अपेक्षित योगदान नहीं कर रहे हैं. बार-बार की जाने वाली गलतियों का प्रतिकार नहीं करना हमारी सामाजिक कमजोरी है. और ऐसे भी कमजोर समाज को जिन्दा रहने का अधिकार प्रकृति भी नहीं देती।
इस स्थिति का लाभ हमारे धुर्त नेता खूब उठा रहे हैं। क्या यह ज्ञानियों के अपने राष्ट्रिय दायित्त्वों से भागना नहीं है? प्रजातन्त्र का सबसे महत्वपूर्ण अववय(Component) प्रजा होती है. समाज में प्रगति के पथ पर सरपट चलने में असमर्थ लोगों की कठिनाइयों पर आवाज उठाना भी ऐसे ज्ञानियों का कर्तव्य होना चाहिये। कुल मिलाकर ऐसे ज्ञान का कोई लाभ नहीं है जो हमारे राष्ट्र निर्माण में काम नहीं आ सके.
नोट:- इस ब्लॉग में लिखी बातों से असहमति रखने वाले पाठकों से मैं क्षमा प्रार्थी हूँ. पाठकों की खट्टी-मीठी टिप्पणियों का सदैव स्वागत रहेगा।
https://Twitter.com/BishwaNathSingh
Comments through Twitter
1. Pramod Srivastava @pksrivastava6 on 21.02.2017
जब हमारा देश आज़ादी और गुलामी के बीच के संक्रमण काल से गुजर रहा था तब भी बहुत से ज्ञानी और चिन्तक चुप रहे. वे चाहते तो गुलामी का दुष्परिणाम सामान्य लोगों को समझा सकते थे लेकिन उन लोगों ने चुप रहना ही उचित समझा। शायद उन्हें लगा कि उन्हें अगला शासक और उसके आदमी इसलिये तंग नहीं करेंगे क्योंकि वे तो तटस्थ हैं. यही स्थिति आज बढ़ती जनसँख्या और विकराल होती बेरोजगारी ने पैदा कर दी है. आज पुनः हम एक संक्रमण काल से गुजर रहे हैं.
धीरे-धीरे संसाधनों की कमी हो रही है. सरकारी अस्पताल हो या सरकारी स्कुल या रेल गाड़ी हो हर जगह भीड़ देख कर इसे अनुभव किया जा सकता है. यानि राष्ट्रीय संसाधनों को प्राप्त करने के लिये संघर्ष करना पड़ रहा है. हमारे संसाधनों पर विदेशियों और विदेशों में अपनी आत्मा भटकाने वाले लोगों की नज़र है और उन्हें लूटने पर आमादा हैं. हमारे बाज़ारों पर भी विदेशी कब्ज़ा करना चाह रहे हैं. हम जिन वस्तुओ का उत्पादन कर सकते हैं उनका भी उत्पादन करने में बाधा पँहुचाई जा रही है. डार्विन बाबा के "अस्तित्व के लिये संघर्ष" का काल निकट है और ज्ञानी और चिन्तक चुप हैं.
आज सोशल मीडिया ने एक बहुत ही अच्छा और बड़ा मञ्च बनता जा है जहाँ हम अपने विचारों का आदान-प्रदान कर सकते हैं. विचारों के आदान-प्रदान के क्रम में ऐसी कई महत्वपूर्ण जानकारियां उभर कर सामने आती हैं जो हमारे राष्ट्र निर्माण में काम आ सकती हैं.
लेकिन दुर्भाग्यवश ज्ञानी लोग राष्ट्र के ज्वलन्त मुद्दों पर भी बहस या चर्चा में भाग लेना नहीं चाहते। कम से कम ज्ञानी लोगों को यह भी बताना चाहिये कि आखिर वे लोग बेहस या चर्चा से क्यों भागते हैं? ऐसी भी स्थिति बनती रही है जिसमें ज्ञानी लोग मतदान में भाग भी लेना नहीं चाहते। जब ज्ञानी लोग चर्चा में भाग नहीं लेंगे; मतदान में भाग नहीं लेंगे तो फिर उनलोगों के पास सरकार के क्रिया-कलापों और सरकारी नीतियों में खोट निकालने का भी नैतिक अधिकार भी नहीं होना चाहिये।
अगर आपको लोकल ट्रेनों में यात्रा करने का मौका मिला हो और सौभाग्य से आपको बैठने की जगह भी मिल गयी हो तो वहाँ ज्वलन्त मुद्दों पर चल रही गरमा-गरम बहस का आनन्द उठा सकते हैं. क्या उसी तरह का मौका और मञ्च आज सोशल मीडिया प्रदान नहीं कर रहा है?
साधु, साधक, चिन्तक और विचारक आदि लोगों के पास समाज के अन्य लोगों की अपेक्षा ज्यादा जानकारी होती यानि समाज में ये लोग ज्ञानी कहलाते हैं लेकिन देश की आर्थिक गतिविधियों पर चर्चा करने से ये लोग कतराते रहते हैं. ऐसे ज्ञानी लोग समाज के लिये कम पर अपने लिये ज्यादा सोचते हैं. ऐसे ज्ञानी लोग हमारे समाज की सृजनशीलता और लोगों के श्रम-उतपादकता बढ़ाने में अपना अपेक्षित योगदान नहीं कर रहे हैं. बार-बार की जाने वाली गलतियों का प्रतिकार नहीं करना हमारी सामाजिक कमजोरी है. और ऐसे भी कमजोर समाज को जिन्दा रहने का अधिकार प्रकृति भी नहीं देती।
इस स्थिति का लाभ हमारे धुर्त नेता खूब उठा रहे हैं। क्या यह ज्ञानियों के अपने राष्ट्रिय दायित्त्वों से भागना नहीं है? प्रजातन्त्र का सबसे महत्वपूर्ण अववय(Component) प्रजा होती है. समाज में प्रगति के पथ पर सरपट चलने में असमर्थ लोगों की कठिनाइयों पर आवाज उठाना भी ऐसे ज्ञानियों का कर्तव्य होना चाहिये। कुल मिलाकर ऐसे ज्ञान का कोई लाभ नहीं है जो हमारे राष्ट्र निर्माण में काम नहीं आ सके.
नोट:- इस ब्लॉग में लिखी बातों से असहमति रखने वाले पाठकों से मैं क्षमा प्रार्थी हूँ. पाठकों की खट्टी-मीठी टिप्पणियों का सदैव स्वागत रहेगा।
https://Twitter.com/BishwaNathSingh
Comments through Twitter
1. Pramod Srivastava @pksrivastava6 on 21.02.2017
ऐसे ज्ञानियों के ज्ञान का क्या लाभ यदि यह राष्ट्र निर्माण के
काम न आ सके और भ्रष्ट प्रजांतत्र का निराकरण न कर सके?
2.
We are living in a society where expression of opinion is suppressed.
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