अराजक और हिंसक होती राजनीति!

    अब राजनीति धीरे-धीरे अराजक होते जा रही है. हमारे युवा पीढ़ी के लोग भले ही इसके दुष्परिणाम से वाकिफ न हों; हमारे प्रौढ़ व्यक्तियों और बुजुर्गों को इसके दुष्परिणाम को उजागर करना चाहिये। पहले भी Simon Commission से लेकर पिछले उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनाओं तक बड़े नेताओं को विरोध स्वरुप काला झण्डा दिखाया जाता रहा है. मसौढ़ी, पटना(बिहार) से नेता के चेहरे पर कालिख/स्याही पोतने से लेकर चेहरे पर स्याही और जूता फेंकने का सिलसिला रुक नहीं रहा है. लेकिन अब विरोध ज्यादा हिंसक होते जा रहा है.
   इस चुनाव में नेताओं के भड़काऊ भाषण बहुत बढ़ गये हैं. भड़काऊ भाषण उनके समर्थकों में उन्माद और विरोधियों में नफरत पैदा कर रहा है, जो हिंसा के पूर्व की अवस्था होती है. मौका मिलते ही उन्मादी समर्थक या नफरत करने वाले विरोधी दल के कार्यकर्त्ता अराजक और हिंसक गतिविधि में लिप्त हो रहे हैं. 
   राजनैतिक दलों द्वारा पदाधिकारियों का घेराव, रोड जाम, बन्द और रेल रोको आंदोलनों से सामान्य गतिविधि ठप होने लगती है और आम जनता को काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है. ये सब राजनीति को अराजक बना देती है. प्रशासन तो ऐसी स्थिति में प्रायः मूक दर्शक बना रहता है और आम जनता लाचार।
    नेताओं पर अंडे और जूते फेंकने की घटनायें भी बढ़ रही है. स्याही, अंडा और जूते फेंकने वाले पकड़े भी जा रहे हैं लेकिन ऐसा करने वाले का उद्देश्य उजागर नहीं हो रहा है. कुछ लोग तो यहाँ तक कह रहे हैं कि इसमें पीड़ित नेताओं का ही हाथ होता है. इससे पीड़ित नेता जनता का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने में सफल हो जाते हैं और उन्हें कुछ सहानुभूति भी मिल जाती है.       
    यहाँ पर एक पुरानी और प्रचलित कहानी उद्धृत करना प्रासांगिक लगता है. "पुराने ज़माने में खड़े होकर लघुशंका करना अनैतिक माना जाता था. एक बुजुर्ग को एक नव-धनाढ्य घर के एक लड़का के द्वारा खड़े होकर लघु-शंका करते देख कर बुरा लगा. उस बुजुर्ग ने उस लड़के को कुछ कहने के बजाय उसके पिता से इसकी शिकायत करना उचित समझा। जब वह बुजुर्ग उस लड़के के घर के पास पँहुचा तो देखा कि उसके पिता अपने नये बने पक्का के मकान के छत से ही लघु-शंका कर रहे हैं. वह बुजुर्ग झेंप गया और चुपचाप अपने घर चला गया. उसको लगा कि वह लड़का कोई गलती नहीं कर रहा था. वह तो मात्र अपने पिता के व्यवहार का अनुसरण कर रहा था."
     कहने का तात्पर्य यह है कि जब वरीय नेता ही नैतिकता और कानून का सम्मान नहीं करेंगे तो उनके युवा समर्थक अराजक व्यवहार करते हुए हिंसा करेंगे ही. इसका ताज़ा उदाहरण कानपुर के जुनियर डाक्टरों की हड़ताल है, जिस कारण दर्जनों मरीज मर चुके हैं और मानवता शर्मशार हो रही है. इस घटना की शुरुआत भी एक जन-प्रतिनिधि से ही हुई थी.
    नेताओं के अनुयायी प्रायः अपने नेताओं के आचरण की अवधारणा का शिकार हो जाते हैं. देहाती कहावत है कि अगर कोई ताड़ के गाछ के नीचे दूध भी पीयेगा तो लोग समझेंगे कि वह ताड़ी ही पी रहा है. यानि जब विधायक विरोधियों पर कुछ फेकेंगे या बड़े नेता दिवाल पर चढ़ने का प्रयास अच्छे नीयत से भी करेंगे तो उनके कट्टर अनुयायी हिंसा पर उतारू हो ही जायेंगे।
    जब नेता/जन-प्रतिनिधि ही कानून अपने हाथ में लेंगे तब पुलिस या तो मूक-दर्शक बन जाती है या उग्र हो जाती है और आम जनता में निराशा फैलने लगती है. यह स्थिति विधि-व्यवस्था के लिए अच्छी नहीं लगती है. आजकल किसी पर भी आरोप लगाना सस्ती लोकप्रियता प्राप्त करने का एक अच्छा जरिया हो गया है. इससे भी समाज में अराजकता बढ़ रही है.
Why do people commit crime?
     आदर्श चुनाव आचार-संहिता लागु हो चुका है. इनके पालन की जवाबदेही बड़े नेताओं की ज्यादा है. चुनाव आयोग तो यथा-शक्ति इस संहिता के प्रावधानों को लागु करवाएगा ही. हम सभी को चुनाव आयोग को यथा-सम्भव सहयोग करना चाहिये।
     मेरी समझ से हमारे प्रजातन्त्र के बहुमत की परिभाषा अंतर्राष्ट्रीय माप-दंडों पर सही नहीं उतरती। प्रायः प्रजातान्त्रिक देशों में विजयी प्रत्याशी कुल प्राप्त वैध मतों के आधे से एक मत अधिक पाने पर ही उसे बहुमत पाकर विजेता घोषित किया जाता है, लेकिन हमारे देश में जो प्रत्याशी सबसे ज्याद मत प्राप्त करता है उसे ही विजेता घोषित किया जाता है. प्रायः अपने देश में औसतन 30% मत प्राप्त करने वाला चुनाव जीत जाता है. ये लोग चुनाव तो जीत जाते हैं लेकिन औसतन 70% तो उनके विरोधी ही रहते हैं, जो विजयी जन-प्रतिनिधि को अपेक्षित सहयोग नहीं करते .
     पहले भी "जो हमसे टकड़ायेगा, चूर-चूर हो जायेगा" के नारे के साथ सशस्त्र प्रदर्शन होते रहते थे. लेकिन अब यह इतिहास का विषय हो गया है.
     जंगल में पहले पगडण्डी ही बनती है. बाद में क्रमिक विकास से वहाँ अच्छी सड़क बन जाया करती है. इस दुनिया में बेईमानी ही पहले आयी थी. जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली कहावत चरितार्थ होती थी. सभ्यता के विकास के क्रम में लोगों ने माना कि अमुक काम गलत है. कम गलत काम को अनैतिक कहा गया और अधिक गलत काम को अपराध कहा गया. अपराध करने वालों को दण्डित भी किया जाने लगा. हमारी जन-संख्या भी हमारे संसाधनो की तुलना में बहुत ज्यादा है. ऐसी स्थिति में सभी का प्रयास अपने अस्तित्व बनाने या बचाये रखने का चल रहा है. सभी हमारे सीमित संसाधनों में से अपना हिस्सा पाना चाहते हैं. इस अस्तित्व के संघर्ष में कुछ हिंसा और अराजकता भी लाजिमी है.
     बढ़ती अराजक घटनायें चिन्ता का विषय है. अराजक घटनाओं की जवाबदेही सम्बन्धित बड़े नेताओं को लेनी चाहिये अन्यथा माना जायेगा कि वे समाज के प्रति जवाबदेह नहीं हैं और इसी अनुरूप उनकी विश्वसनीयता घटती जायेगी। कानून को अपना काम निष्पक्ष रूप से करना चाहिये और हिंसा करने वालों के विरुद्ध विधि-सम्मत कार्यवाई होनी चाहिये। धीरे-धीरे स्वतः ही कानून का शासन स्थापित होते जायेगा।
     प्रतिष्ठित पुलिस अधिकारी रहीं किरण बेदीजी का यह कहना कि चुनाव से सम्बन्धित हिंसक मामलों का त्वरित विचारण होना चाहिये, आज समय की माँग लगती है. प्रशासन को इस ओर ध्यान देना चाहिये।        
https://twitter.com/BishwaNathSingh



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