दण्ड विधानों में सतत सुधार की आवश्यकता।

                     दण्ड विधानों में सतत सुधार की आवश्यकता। 

    1857 के बगावत के बाद अंग्रेजों ने भारतीय दण्ड विधान को 6 अक्टूबर 1860 में पास कर पहली जनवरी 1862 को पूरे भारत में लागू किया। अंग्रेजों ने अपने पहले विधि आयोग की स्थापना लॉर्ड मैकॉले की अध्यक्षता में की थी। इस आयोग ने अपना प्रतिवेदन तत्कालीन गवर्नर-जेनरल के Council में 1837 में प्रस्तुत किया। गहन मन्थन के बाद इसे 1860 में उक्त Council ने पास किया।
     इस कानून के लागू होने के पहले अपने देश की लगभग नब्बे प्रतिशत आबादी गावों में बस्ती थी, जहाँ ग्राम-सभा एक मजबूत संस्था हुआ करती थी. गावों के लोग एक जगह पर बैठ कर अपनी समस्याओं पर विचार-विमर्श कर उनका समाधान निकाल लेते थे. छोटे-मोटे अपराधों का निपटारा भी वहीँ हो जाता था. भारतीय दण्ड विधान लागू होने से यह ग्रामीण संस्था कमजोर पड़ते चला गया.  
     इसके पहले अंग्रेजी सरकार अपने कुछ आदेशों के द्वारा शासन करती थी। आदेशों के अनुपालन में अंग्रेज अधिकारी काफी मनमानी करते थे और कभी-कभी तो बहुत ही क्रूर व्यवहार करते थे। सबसे ज्यादा क्रूरता तो अंग्रेज अधिकारियों ने प्रथम स्वतन्त्रता सन्ग्राम के दौरान अंग्रेजी शासन के विरोध करने वालों के साथ बरती। जगह-जगह स्वतन्त्रता सेनानियों को गाछ के डाल से लटका कर फांसी दे दी गयी और कड़ी हिदायत दी गयी कि जो भी व्यक्ति लटकाये गये शवों को उतारकर उनका अंतिम संस्कार करेगा, उसकी भी यही गति होगी।
     अंग्रेजों की इस क्रूरता का लाभ अपने ही देश के कुछ धूर्त लोग उठाने लगे और अधिकरियों से मिलकर अपने विरोधियों को (निर्दोष लोगों को) भी मरवा दिये। प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम यानि धूर्त चापलूसों की भाषा में बगावत तो दब गया, लेकिन अंग्रेजों की क्रूरता की कहानी संचार में हुए तरक्की के कारण पूरी दुनिया में फैलने लगी और सर्वत्र अंग्रेजों की निन्दा तथा आलोचना होने लगी. अंग्रेजों का Magna Carta ध्वस्त होने लगा.
      अगर अंग्रेजी सरकार चाहती तो बड़ी आसानी से अपने देश(England) के आपराधिक कानून में एक छोटा संशोधन कर कि "यह कानून भारत पर भी लागू होगा" हमारे देश में भी कानून का अच्छा शासन स्थापित कर सकती थी। लेकिन ऐसा न कर उन्होंने भारत के लिये इस कानून को यानि "भारतीय दण्ड विधान" बनवाया। इससे अंग्रेजों को दो लाभ हुए। पहला कि उन्होंने दुनिया में यह प्रचार कर कि भारत में कानून का शासन स्थापित कर दिया और दूसरा कि भारतीयों को न्यायलय के घन चक्कर में फंसाकर अपनी मनमानी परोक्ष रूप से जारी रखी.

कानून की जटिलताएं हमारे बीच के सभी तरह के प्रतिस्पर्द्धाओं को कुन्द कर रही हैं.
सुधार हेतु सुझाव----- 
1. जब दीवानी मामले में कोई आपराधिक मामला सच होता प्रतीत हो तो दोनों की सुनवाई एक ही न्यायलय में हो और दोनों मामलों की में फैसला साथ-साथ सुनाई जाय.
2. आज मीडिया के ख़बरों के अनुसार अपने देश में लगभग नब्बे करोड़ मोबाइल फोन है जबकि मतदाताओं की संख्या करीब 82 करोड़ पँहुचने को है. इसका लाभ उठाते हुए अगर गवाहों और आरोपियों का मोबाइल नम्बर न्यायलय को उपलब्ध करा दिया जाय तथा Summons & Bailable Warrants के जगह SMS का उपयोग किया जाय तो किसी भी मामले का वर्त्तमान विचरण समय से आधा से भी कम हो सकता है.
3. कानून का पालन करने वाले और जिनकी पहचान सत्यापित हो, वैसे आरोपियों को जमानत के बदले वडापत्र(Undertaking) लेने का प्रावधान होना चाहिये।
4. इ-कोर्ट की शुरुआत हो चुकी है. अब इसको जल्दी ही आगे बढ़ाने की आवश्यकता है.
5. न्यायलय से VIP कार्य संस्कृति समाप्त की जानी चाहिये।
6. महत्वपूर्ण मामलों की कार्यवाही का वेब प्रसारण किया जाना चाहिये।
 
   हमारे कानूनों की कुछ विसंगतियां(विशेषज्ञों की नजर में ये कुकृत्य विसंगति नहीं भी हो सकती है):-  
1. अगर आप अनजाने में तेजी और लापरवाही से वाहन चलकर किसी व्यक्ति को दुर्घटनाग्रस्त कर देते हैं, जिसमे उसकी मौत हो जाती है तो आपको तीन साल तक की सजा हो सकती है. जबकि इन्ही परिस्थितयों में मरने वाला कोई पालतू जानवर हो तो आपको पाँच साल तक की सजा हो सकती है.
2. आज भी पीड़ित पक्ष के लोग जख्म प्रमाण और अन्त्य परिक्षण प्रतिवेदन की प्रति वैध तरीके से नहीं ले सकते; उन्हें इसके लिये उत्कोच का सहारा लेना पड़ता है, जबकि अभियुक्त पक्ष को अभियोजक से वैध तरीके से मिल जाता है.
3. पीड़ित पक्ष अपना वकील नहीं रख सकता है. कभी-कभी अभियुक्त पक्ष लोक अभियोजक को मिला लेते हैं, जिससे पीड़ित पक्ष को न्याय मिलने में काफी कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है और न्यायिक प्रक्रिया लम्बी खींचती चली जाती है.
4. अभी पीड़ित पक्ष को आपराधिक मामले में फैसला प्रतिकूल आने पर अपील का अधिकार नहीं है, जबकि अभियुक्त पक्ष को सर्वोच्च न्यायलय तक अपील का अधिकार है. इसे विडम्बना ही कही जा सकती है की धनी अभियुक्त प्रतिकूल फैसला आने पर उच्च न्यायलय का फैसला नहीं मानकर सर्वोच्च न्यायलय में गुहार लगा देते हैं और गरीब अभियुक्त को उच्च न्यायलय भी जाने का औकात नहीं होता है.   
    आज़ादी के बाद पहला संसद में (1952-1957) अधिकांश सांसद कानून के जानकार थे. वे लोग भली-भांति जानते थे इस कानून में बहुत सी विसंगतियां हैं, फिर भी इस कानून को हू-ब-हू अंगीकार कर लिया गया। विसंगतियों की चर्चा समय-समय पर होती रहती है और कई संशोधन भी हुए है और कई नये प्रावधान जोड़े भी गये हैं। फिर भी समाज शास्त्रियों द्वारा लगातार चर्चा होनी चाहिये ताकि भारतीय दण्ड विधान में अपेक्षित संशोधन हो सके.
    हमारी आपराधिक न्याय प्रणाली में बहुत ज्यादा कागज की खपत हो रही है. इससे हमारे जंगलों पर और विश्व के पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है. इस नाते भी इसमें सुधार और आधुनिकीकरण की आवश्यकता है.
 
    न्यायिक सुधारों की उपेक्षा समाज में अराजकता फैला सकती है. एक देहाती सनकी व्यक्ति चिल्ला-चिल्ला कर बोलता था कि "जल्दी ही न्याय की गुहार करने वाला यानि फरयादी बंधा जायेगा और गुनहगार छूट जायेगा"। कहीं उस सनकी व्यक्ति की यह युक्ति सही न होने लगे. आज बड़ी संख्या में युवा वर्ग सोसल मीडिया के माध्यम से अपने विचारों का आदान-प्रदान बड़ी तेजी से कर रहा है. शायद यह वर्ग कानून की जटिलताओं को नहीं समझ सके और अपने मन में कानून के प्रति सम्मान खोने लगे.

To be completed soon. Suggestions are cordially invited to improve it.
twitter.com/BishwaNathSingh

 

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