नक्सली Law & Order की समस्या है या Security की?

     नक्सली सुकमा में अपने संगठन की स्थापना   का हीरक जयन्ती मना रहे हैं और हम अभी तक यही तय नहीं पा कर रहे हैं कि नक्सली राज्य सरकार के बच्चे हैं या केन्द्र सरकार के? यहाँ "बच्चे" शब्द का अभिप्राय जवाबदेही से है. यानि नक्सलियों से निपटने की जवाबदेही किसकी है?
यदि नक्सल समस्या राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ी हुई समस्या है यानि सम्विधान की केंद्रीय सूची में है तो नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में AFSA(Armed Forces Special Act) क्यों नहीं लागू है?
     यदि नक्सल समस्या Law & Order से जुड़ी हुई समस्या है यानि हमारे सम्विधान की राज्य सूची में है तो केन्द्रीय सुरक्षा बलों के साथ जिला प्रशासन द्वारा कोई दण्डाधिकारी और लोकल पुलिस कार्यवाई के समय क्यों नहीं तैनात किया जाता है? साथ ही जब केन्द्रीय सुरक्षा बलों द्वारा नक्सलियों के विरुद्ध कोई अभियान चलाया जाता है यो सम्बंधित क्षेत्र में जिलाधिकारी द्वारा कर्फ्यू क्यों नहीं लगाया जाता है?
     जब वर्ष 2008 में तत्कालीन गृह-मन्त्री द्वारा घोर नक्सल प्रभावित राज्यों में नक्सलियों के विरुद्ध तब तक का सबसे बड़ा अभियान "ऑपरेशन ग्रीन हंट" के नाम से चलाया गया था तब कुछ राज्यों द्वारा यह कहकर उस अभियान का विरोध किया गया था कि Law & Order समस्या राज्य सरकार के अधीन आता है और यह अभियान हमारे देश के संघीय ढांचे पर एक बड़ा प्रहार है. इस विरोध के चलते कुछ राज्य सरकारों ने उस अभियान में अपना कोई सहयोग नहीं दिया और "ऑपरेशन ग्रीन हंट" बीच में ही बिना कोई अपेक्षित परिणाम प्राप्त किये ही बन्द कर दिया गया. नक्सल समस्या एक सामाजिक बिमारी है. जब तक डॉक्टर साहेब बिमारी की सही पहचान नहीं करेंगे तब तक उचित इलाज नहीं हो पायेगा।
     कुछ राज्यों के इस विरोध वाले दृष्टिकोण की व्याख्या पर कुछ लोगों का यहाँ तक कहना है कि उन राज्यों में बहुत से नेता नक्सलियों के प्रत्यक्ष या परोक्ष सहयोग से ही चुनाव जीतते हैं. इस कारण वैसे नेता बड़े नक्सलियों के विरुद्ध कोई बड़ी कार्यवाई पसन्द नहीं करते हैं.
     यह सर्वविदित है कि किसी भी संगठन को चलाने हेतु पैसा की जरुरत होती है. नक्सली अपने प्रभाव क्षेत्र में उत्खनन करने वाले लोगों और विकास कार्य से जुड़े ठेकेदारों पर टैक्स लगाते हैं और उसे कड़ाई से लागू भी करते हैं. अब यह भी चर्चा का विषय है कि आखिर नक्सली कितना टैक्स लगाते हैं और टैक्स लगाने का आधार क्या है? कुछ लोगों का कहना है कि इस मामले में नक्सली बहुत ईमानदार हैं. वे उतना ही टैक्स लगाते हैं जितना ठेकेदार अपना बिल पास कराने में कर्मचारी/अधिकारियों पर खर्च करते हैं. कमोवेश उत्खनन और वन्य-उत्पादों पर भी यही फार्मूला लागू किया जाता है. नक्सली स्थानीय लोगों को खुश करने के लिये इलाके में लड़कियों/महिलाओं के बलात्कार और उनके निजी सम्पत्ति लूट की शिकायत पर पहले जन-सुनवाई करते हैं और शिकायत सही पाये जाने पर जन-अदालत लगाकर आरोपियों को मृत्युदण्ड भी देते है और आरोपियों के शवों पर उनके अपराध की स्पष्ट निशानी बना देते हैं. बदले में नक्सली अपने प्रभाव क्षेत्र में अपने कर-दाताओं को पूर्ण सुरक्षा भी प्रदान करते हैं. इस व्यवस्था से उनके करदाता और स्थानीय लोग प्रसन्न रहते हैं और यथाशक्ति नक्सलियों को मदद भी करते हैं.
को-लैटेरल डैमेज:- शायद ही दुनिया में सैनिकों या सुरक्षा बलों का कोई ऐसा अभियान होगा जिसमे कोई को-लैटेरल डैमेज नहीं हुआ हो. को-लैटेरल डैमेज से अभिप्राय यह है कि सिविल समाज को हुई वह क्षति जिसको लक्षित नहीं किया जाता हो लेकिन अभियान क्षेत्र में सिविल समाज को उपस्थित रहने के कारण उन्हें भी कुछ क्षति उठानी पड़ती है. नक्सली इस विषय पर बहुत चतुर हैं और ग्रामीणों को एक ढाल के रूप में इस्तेमाल करते रहे हैं. इतिहास में अबतक का सबसे बड़ा कोलैटेरल डैमेज Napalm Girl के नाम से जाना जाता है. मात्रात्मक रूप से वह अन्य बड़े-बड़े कोलैटेरल डैमेज से भले ही छोटा था लेकिन "नापाम गर्ल" वाले फोटो ने दुनिया भर के बुद्धिजीवियों को हिला कर रख दिया था और उस घटना से जुड़े बड़े-बड़े नेताओं को भी परेशान कर दिया था.
     सुकमा की ताज़ा घटना ने पुनः इस ओर लोगों को सोचने पर मजबूर कर दिया है. लोग गुस्से में हैं और नक्सलियों के विरुद्ध कठोर कार्यवाई की मांग कर रहे हैं. टीवी पर कुछ सुरक्षा विशेषज्ञों का मानना है कि हमारे देश का लगभग 40% भाग अभी नक्सल समस्या से ग्रसित है. आज देश लगभग दो भागों में वैचारिक रूप से बंटता जा रहा है. पहला भाग नक्सल समस्या को Law & Order की समस्या मानता है जबकि दूसरा भाग इसे राष्ट्रीय सुरक्षा से जुडी समस्या मानता है.
     लेकिन जब आगे कभी "ऑपरेशन ग्रीन हंट" की तरह बड़े नक्सलियों के विरुद्ध कार्यवाई होगी तब पुनः इस विषय पर सम्वैधानिक स्थिति पर चर्चा होगी। उस अभियान में अगर कोई नक्सली मारा जायेगा तो तथाकथित मानवाधिकारवादी और बुद्धिजीवी लोग इतना तो सवाल जरूर पूछेंगे कि यदि सुरक्षा बल के लोग चाहते तो उसे जिन्दा पकड़ सकते थे. क्या हम को-लैटेरल डैमेज को बर्दाश्त कर पायेंगे? क्या हम तथाकथित मानवाधिकारवादी और बुद्धिजीवी लोगों के इस तरह के सवालों के जवाब  देने को तैयार होंगे? इस तरह से मतभिन्नता और सवालों के कारण नक्सलियों के विरुद्ध अभियान से जुड़े सुरक्षा कर्मियों के मनोबल पर इसका प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा? अतः अब नक्सल विरोधी कोई भी अभियान एक सम्वेदनशील मुद्दा बनता जा रहा है.
नोट:- यह ब्लॉग सांध्यकालीन बुजर्गों की चर्चाओं से निकले तथ्यों पर आधारित है. इस पर असहमति रखने वाले लोगों के विचार का मैं सम्मान करता हूँ. इस पर खट्टी-मीठी टिप्पणियों का सदैव स्वागत रहेगा।
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Comments posted through Twitter
1.  26.04.2017 "बच्चे किसी के भी हों अगर बिगड़ जाएँ तो उन्हें नियंत्रित करना आवश्यक है."
    Reply "पहले बच्चों की गलती पर उनके अभिभावकों को उलाहना देने की परम्परा थी. जब पता ही नहीं चलेगा कि बिगड़ैल बच्चे किसके हैं तब उनकी गलतियों पर उलाहना किसे दिया जायेगा?"
 2. 
  26.04.2017 "U hv raised very important points, GOI & states shd ponder."
3.   27.04.2017
"हम आतंकवाद के मुद्दे पर भयानक तरीके से दिग्भ्रमित हैं, कश्मीर हो या नक्सलवाद। केंद्र व राज्यों के बीच इतनी बड़ी खाईं चिंतनीय है।"
4.   01.05.2017   
"Law and Order ki"



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