हमें अफगानिस्तान में सैन्य रूप से नहीं उलझना चाहिये

    अफगानिस्तान आर्थिक, व्यवसायिक और रणनीतिक रूप से एक महत्वपूर्ण देश है. यहाँ उच्च कोटि के अफीम और सूखे स्वादिष्ट फल बहुतायत से उपजाये जाते हैं. कुछ लोगों का मानना है कि अफगानिस्तान में बड़ी मात्रा में Rare Earths मिल सकते हैं. लेकिन व्यंग्य की भाषा में अब इन्हे Unobtanium कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी। उन्नीसवीं शताब्दी में रूसियों ने अपने व्यापार को बढ़ाने के लिये आमू दरिया के उद्गम स्थल तक रास्ता साफ करते हुए अपने जल-यान लाने का काफी प्रयास किया था. उसी के समानान्तर अंग्रेजों ने भी अफगानिस्तान पर कब्ज़ा करने का प्रयास किया लेकिन सफलता नहीं पायी। लेकिन तब जबकि अफगानिस्तान की दक्षिणी-पश्चिमी सीमा अरब सागर से मिलती थी वह सिमट कर समुद्र से दूर हो गयी. अभी भी समुद्री सीमा के बिना ही वहाँ समुद-तट का विभाग अस्तित्व में है. जापान आदि देश अफगानिस्तान में पूर्ण शान्ति चाहते हैं ताकि पूर्वी एशिया से यूरोप तक अफगानिस्तान होते हुए एक व्यवसायिक रेल और सड़क मार्ग बनाया जा सके.   
    अफगानिस्तान एक ऐसा देश है जहाँ विदेशी अपने सैनिक सैंकड़ों साल से भेजते रहे हैं. हाल का इतिहास सोवियत फ़ौज का रहा है. सोवियत संघ ने अफगानिस्तान में कम्युनिस्ट शासन बचाये रखने के लिये हर सम्भव प्रयास किया, लेकिन उसे अपने सोलह हजार सैनिकों को गंवाने के बाद एक तरह से वहाँ से भागना पड़ा. वहाँ से हटने के क्रम में उन्हें अपने कुछ हथियार वहीँ छोड़ने पड़े. तालिबान ने कम्युनिस्टों को सत्ता से बेदखल कर वहाँ अपना शासन कायम किया और शरिया कानून लागू किया।
    पुनः सितम्बर 11 की घटना के बाद संयुक्त राज्य अमेरिका ने अपने सहयोगी देश की सेना के साथ वर्ष 2001 में अफगानिस्तान में प्रवेश कर तालिबान शासन को हटा कर सैन्य शक्ति के बलपर करजई के नेतृत्व में एक कमजोर प्रजातन्त्र को स्थापित किया। अब अमेरिका ने भी बिना सफलता प्राप्त किये ही अपने लगभग पाँच हजार सैनिकों के गवाने के बाद इस वर्ष दिसम्बर में वियतनाम की तरह अफगानिस्तान से हटने का निर्णय लिया है और चरणबद्ध तरीका से अपने सैनिक वापस बुला रहा है. एक तरह से अफगानिस्तान विदेशी सैनिकों का कब्रगाह बनता जा रहा है.
    पुनः अमेरिकी सैनिकों के पूर्ण वापसी के बाद वहाँ राजनैतिक ताकतों की शून्यता पैदा होगी, जिसे भरने हेतु तालिबान संगठन पूरा प्रयास करेगा। चूँकि वहाँ का प्रजातन्त्र मजबूत नहीं है अतः अनुमान लगाया जा रहा है की तालिबान अपने पड़ोसी मित्र के सहयोग से अपना शासन स्थापित कर शरिया कानून लागू कर देगा। हमारे उपलब्ध सुरक्षा बल तालिबान के सैन्य ताकत का मुकाबला नहीं कर पायेंगे और भारत को वहाँ  करोड़ों रुपये के निवेश को गवां कर वहाँ से हटना पड़ेगा।
    तालिबान आज भी एक ताकतवर सशस्त्र संगठन है और जिहाद के नाम पर उसे सम्पन्न इस्लामिक राष्ट्रों से प्रचुर मात्रा में दान के रूप में नियमित रूप से धन प्राप्त होते रहता है. इस अकूत धन से तालिबान आधुनिक हथियार और अन्य आवश्यक संसाधन खरीदते रहते है. अफगानिस्तान के अवैध अफीम की तस्करी से भी इन्हे बहुत धन प्राप्त होते रहता है. इस्लामिक स्टेट के बढ़ते प्रभाव पर भी ध्यान देना ही होगा। वह दिन दूर नहीं जब पाकिस्तान का कुछ परमाणु बम तालिबान या इस्लामिक स्टेट के कब्जे में होगा।
    अब पुनः कई कोणों से भारत द्वारा सैन्य हस्तक्षेप की बात अभी से ही उठने लगी है. हमें वहाँ के आर्थिक और सामाजिक परिवेश को भी समझना चाहिये। अफगानिस्तान में ताज़िक, हज़ारा, पख्तून, अफ़रीदी आदि सैंकड़ों सशस्त्र कबिलाई गुट सक्रिय हैं और उनमे हिंसक झड़प होते रहती है. उनका जीवन अवैध अफीम की खेती पर आधारित है. वहाँ का समाज पुरुष प्रधान है और महिलाओं को भोग की वस्तु तथा बच्चा पैदा करने का साधन समझता है. वहाँ के समाज पर सशस्त्र गुटों और मौलवी लोगों का पूर्ण प्रभाव है और वे लोग प्रजातन्त्र को पसन्द नहीं करते। अगर भारत वहाँ अपने सैनिक भेजता है तो उनलोगों को नियन्त्रित कर पुनः प्रजातन्त्र बहाल करना काफी जोखिम भरा काम होगा।
    बेशक हमें वहाँ अपना सैनिक नहीं भेजने से कुछ नुकसान उठाना पड़ेगा। कुछ सम्भावित नुकसान निम्न प्रकार के हो सकते हैं:---
1. हमने जितने भी निवेश वहाँ किये हैं, उन सबको छोड़कर हमें वहाँ से भागना पड़ेगा।
2. हमें अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अपने अफगानिस्तान नाम के एक मित्र को खोना पड़ेगा।
3. लगभग चालीस इस्लामिक देशों के जिहादी लड़ाके अफगानिस्तान से ऊर्जा प्राप्त कर जम्मू और कश्मीर में घुस आवेंगे और कश्मीर को आज़ाद कराने के नाम पर जम्मू और कश्मीर में हिंसा का ताण्डव मचा देंगे।
4. अफगानिस्तान में हमें भी बहुमूल्य कच्चे पेट्रोलियम, खनिज पदार्थ और दुर्लभ धातुओं की खोज और उनके उत्खनन के अवसर से वंचित होना पड़ेगा। निश्चय ही इस अवसर का लाभ पाकिस्तान के माध्यम से चीन उठाएगा।
5. तालिबान के सहयोग से पाकिस्तान अफगानिस्तान पर कब्ज़ा कर वृहत पाकिस्तान का निर्माण कर सकता है.

    उक्त नुकसानों के मोह में यदि हम अफगानिस्तान में सैन्य रूप से उलझे तो भी हमें कुछ समस्यायों का सामना करना पड़ेगा और नुकसान उठाने पड़ेंगे। कुछ सम्भावित नुकसान निम्न प्रकार के हो सकते हैं:---
1. अफगानिस्तान सोवियत संघ और अमेरिका की तरह हमारे लिये भी दलदल साबित हो सकता है. उन दोनों ताकतवर राष्ट्रों की तरह हमें भी जानी नुकसान उठाना पड़ सकता है. तालिबान से युद्ध की स्थिति में पाकिस्तान अपना सड़क या वायु मार्ग हमारे लिये बन्द कर सकता है. तब अफगानिस्तान जाने के लिये हमें ईरान या रूस से होकर जाना पड़ेगा, जो रास्ता काफी खर्चीला है.
    लम्बी दूरी और वह भी वायु मार्ग से हमारे सैनिकों के रख-रखाव का खर्चा लगभग दस गुना बढ़ा देगी। क्या हमारी आर्थिक स्थिति ऐसी है कि हम इतना खर्च का बोझ उठा पायेंगे?
2. तालिबान आतंकवादियों को वहाँ के नागरिकों से अलग करना सम्भव नहीं है. यदि किसी बड़े तालिबान लड़ाके का पता चलता है और उसपर हमारे सुरक्षा बल हमला करेंगे तो निश्चित रूप से कुछ नागरिक भी मारे जायेंगे। क्या हम पश्चिम नियंत्रित मीडिया के मानवाधिकार सम्बन्धी हमला सहने को तैयार हैं?
3. जब तालिबान द्वारा विस्फोटित बारूदी सुरंग में मारे गये हमारे सुरक्षा बल के जवानों का शव विलम्ब से अपने देश लौटेगा तो क्या हम उस सदमे को सहने के लिये तैयार हैं?
4. हम उनके लिये अपने खर्चे पर उतनी दूर जाकर क्यों लड़ें, जो हमारे लिये सहानुभूति तक नहीं रखते हों?
5. अफगानिस्तान का आपराधिक न्याय प्रणाली बहुत ही कमजोर है. यदि कोई आतंकवादी पकड़ा भी जायेगा तो उन्हें सजा दिलाना असम्भव सा कार्य होगा।
6. तालिबानी आतंकवादी अपनी परम्परा को निभाते हुए हमारे आदमियों का अपहरण करेंगे ही. तब पश्चिम समर्थित हमारी मीडिया गला फाड़-फाड़ कर अपहृत के बदले हमारे अभियान रोकने या पकडे गए खूंखार आतंकवादियों की रिहाई के लिये हमें वाध्य करने का प्रयास करेंगे। क्या हम इस स्थिति से निपटने को तैयार हैं?
    हमारे सैनिक शान्ति सेना के रूप में लिट्टे से लड़ने के लिये श्रीलंका भेजे गये थे. हमारे युवा पीढ़ी को उसका कटु अनुभव भले ही नहीं हो, लेकिन उससे सबक तो सीखा ही जा सकता है. बाद में हम अफगानिस्तान से निकलने के लिये जितना भी छटपटायेंगे, हम उस दलदल में उतना ही उलझते जायेंगे।
जब हर हालत में हमें आतंकवादियों से लड़ना ही है तो क्यों न हम अपने देश में ही उनसे जम कर लड़ें और वह भी सुविचारित नीतियों और तैयारियों के साथ। यह बात हमें याद रखनी होगी कि "मच्छर मारने से मलेरिया नहीं जाता"। निश्चित रूप से हमारी जीत होगी।
    यदि संयुक्त राष्ट्र संघ हमें आदेश देगा तो और शान्तिप्रिय देशों के साथ मिलकर वहाँ लड़ने पर विचार करना हमारी सरकार के लिये उचित होगा। ऐसी स्थिति में पाकिस्तान हमें अपना वायु मार्ग उपलब्ध कराने के लिये वाध्य होगा।
नोट:- यह आलेख मेरे जैसे एक तुच्छ नागरिक के विचारों और मीडिया से प्राप्त जानकारियों पर आधारित है. पाठकों से अनुरोध है कि इस आलेख को पढ़कर इस अत्यन्त संवेदनशील मुद्दे पर कोई अपनी धारणा न बनावें।
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