धार्मिक उन्माद मानवता के विरुद्ध एक अपराध है!

      1953 में पश्चिमी देशों की कम्पनियों ने अरब देशों में कच्चे तेल खोज कर व्यावसायिक रूप से काफी लाभदायक बना दिया। इससे अरब देशों में बेशुमार दौलत आने लगी. शासक वर्ग अपने शासन को सुचारू रूप से चलाने के लिये धर्म का सहारा लेने लगे. आधुनिक इतिहास में धर्म का दुरूपयोग यहीं से शुरू होता है. इसके पहले नेपोलियन ने सफलता पूर्वक धर्म को राजनीति से अलग किया था. उसके राज के इस काल खण्ड में फ्रांस में विकास भी अधिक हुआ था. वहां की लड़कियों और महिलाओं को अधिकतर अधिकार उसी काल-खण्ड में मिले थे.
       अस्सी के दशक में सोवियत सैनिकों को अफगानिस्तान से भगाने के लिये भी धर्म का सहारा लिया गया था. इसके लिये अफगानिस्तान की सीमा पर बड़े पैमाने पर मदरसे खोले गये थे. इन मदरसों में प्रारम्भिक शिक्षा के साथ-साथ जिहाद(दूसरे धर्म के लोगों के विरुद्ध युद्ध) की भी शिक्षा दी जाने लगी. उन क्षेत्रों में ईश-निन्दा कानून पहले से ही लागू था, लेकिन आपराधिक न्याय प्रणाली कमजोर होने के कारण प्रायः पीड़ितों को न्याय नहीं मिल पाता था और ईश-निन्दा के आरोपियों को प्रायः मृत्यु-दण्ड दिया जाता. सोवियत सैनिकों और उनके साम्यवादी समर्थकों को काफिर बताया गया और बच्चों में धार्मिक उन्माद काफी बढ़ा दिया गया तथा सोवियत सैनिकों और उनके समर्थकों का सफाया ही जिहाद का प्रमुख उद्देश्य रह गया. धार्मिक शिक्षा प्राप्त कर बच्चे बड़े हुए और उनलोगों ने उक्त काफिरों के विरुद्ध शस्त्र उठा लिया और सोवियत सैनिकों को भगा कर तालिबान शासन की स्थापना की.    
      आदि काल के धर्म के बारे में जानना भी जरुरी है. आज से लगभग पचीस लाख वर्ष पहले मानव प्रजाति का प्रादुर्भाव अफीका के जंगलों में हुआ। ऐसा उद्विकास के सिद्धांत और काल निर्धारण पद्धति पर वैज्ञानिक मानते हैं(Homo erectus ⇨Homo rhodesiensis ⇨ Homo sapiens)। प्रारम्भिक काल में मनुष्य अपने को जिन्दा रखने के संघर्ष में अपनी ताक़त और अल्प विवेक का उपयोग अधिक करता था। ताक़तवर और छली व्यक्ति अधिक दिनों तक मौजमस्ती करते हुए जिन्दा रहते थे, जबकि कमजोर और ईमानदार व्यक्ति कष्ट में रहते थे और अल्पावधि में ही काल-कलवित हो जाते थे।
     मानव धीरे-धीरे कई परिवारों को मिलाकर समूह में रहने लगा और सभ्यता का विकास होने लगा। समूह से समाज बना। साधू-संत लोग काफी चिन्तन और शास्त्रार्थ के बाद "क्या नैतिक है?" और "क्या अनैतिक है?" बताने लगे. समाज "क्या करना है" और "क्या नहीं करना है" निर्धारित करने लगा। "क्या नहीं करना है" ही पाप या आज का अपराध बना। आप शान्त चित्त होकर किसी कार्य के करने या न करने पर विचार करें। यदि आपका विवेक कहता है कि इस कार्य को नहीं करना चाहिये अर्थात यह गलत कार्य है तो यही गलत कार्य पाप या अपराध की श्रेणी में आता है। प्रारम्भ से ही "क्या नहीं करना है" का अनुपालन कराना समाज के लिये कठिन कार्य रहा है। कुछ लोग "क्या करना है" और "क्या नहीं करना है" को धर्म भी कहते हैं। धर्म पूर्वजों के बनाये गये रीति-रिवाजों से भी जुड़ा होता है. हमारे सनातन धर्म में मानव बनने पर जोर दिया गया है और हमारा सनातन धर्म सभी दूसरे धर्मावलम्बियों के जीने के अधिकार का सम्मान करता है.
      बाद में समानान्तर रूप से अन्य सभ्यताएं भी पनपी और यहूदी धर्म का उदय हुआ. इस धर्म में भी "ईश्वर की दस आज्ञाएं" लागू की गयीं और उनके धर्म गुरुओं ने भी उनके लिए कुछ रीति-रिवाज भी बनाये। सिकन्दर जब अपने विश्व विजय अभियान पर निकला तो हिन्दू कुश पर्वत के पूर्वी भाग के इलाकों के लोगों को हिन्दू कहा, जिसका अर्थ काला और अपेक्षतया कम सभ्य होता है. इसके बाद सनातन धर्मावलम्बियों को हिन्दू कहा जाने लगा.
      उसके बाद ईशा मसीह ने ईसाई धर्म की स्थापना की. इस धर्म में Confession और Reconciliation तथा गरीबों की सेवा पर अधिक जोर दिया गया. इन्ही तीन सिद्धान्तों पर यह धर्म एशिया और अफ्रीका के सुदूरवर्ती जंगली क्षेत्रों में खूब पनपा। प्रारम्भ काल से ही धार्मिक नेता राजनीति में हस्तक्षेप करते रहे हैं. नेपोलियन ने सफलता पूर्वक राजनीति से धर्म को अलग किया था और उसी के कार्यकाल में लड़कियों और महिलाओं की उन्नत्ति सबसे ज्यादा हुई थी. बाद में सेवा की आड़ में गरीबों के धर्मान्तरण की बातें भी मीडिया में उछलती रही हैं.
    छठी शताब्दी में अरब देश में मोहम्मद साहेब नाम के पैगम्बर हुए. वे वहाँ के गुफाओं में जाकर तपस्या करते और परमेश्वर का आदेश(Sunnah) लाते, जिन्हे आयतों में लिखकर कुरान नामक धर्म-ग्रन्थ की रचना की गयी और इस तरह इस्लाम नाम के धर्म का उदय हुआ. इस धर्म में जिहाद की प्रधानता है. मोहम्मद साहेब खलीफा भी बनाये गये थे. मोहम्मद साहेब के देहान्त के बाद हज़रत यज़ीद-1 खलीफा बने और मोहम्मद साहेब के अन्य दर्जनों चेलों को वहाँ से भगा दिया। सभी चेलों ने इस्लाम की अलग-अलग व्याख्या कर अलग-अलग पन्थ की स्थापना की. लेकिन अबू बक्र को मोहम्मद साहेब के असली वारिस और खलीफा बने और उनके अनुयायी सुन्नी कहलाये और इमाम हुसैन इब्न अली के अनुयायी शिया कहलाये। करबला के युद्ध में हुसैन इब्न अली मारे गये  इसके अलावे मोहम्मद साहेब के अन्य समर्थकों के अनुयायी से अहमदिया, बोहरा, हज़ारा, उइगर, कुर्द आदि सम्प्रदायों या पंथ का उदय हुआ. दुनिया भर में सुन्नी मुसलमानों की संख्या सबसे अधिक है. सीरिया और इराक के बड़े इलाके में एक नये खलीफा हज़रत अबु बक्र अल बगदादी बनाये गए है, जिन्होंने ISIS नाम के अलग राष्ट्र की घोषणा की है. ये लोग शिया, कुर्द, बोहरा, अहमदिया आदि सम्प्रदाय के लोगों को भी विधर्मी मानते और उनके सफाये के लिये हिंसक आन्दोलन चलाये हुए हैं. ईसाई धर्म के लोग भी उनके निशाने पर हैं.
     इधर हम्मास नाम के धार्मिक आतंकवादी संगठन इजराइल के विरुद्ध खतरनाक युद्ध लड़ रहा है और यहूदियों के सफाये की कसमें खाता रहता है. इसके पहले जर्मनी में हिटलर ने यहूदिओं के सफाये के लिये हिंसक आन्दोलन चलाया था, जिसमे साठ लाख यहूदी गैस चैम्बर में मारे गये थे. अपने अस्तित्व बचाने के लिये इजराइल(यहूदी) हम्मास के रिहायशी इलाकों में बनाये गये बंकरों पर आक्रमण को आत्म रक्षा की कार्यवाई बताता रहता है यानि धार्मिक उन्माद चरम पर है।
     किसी को सामूहिक रूप से सिर्फ इसलिये मार दिया जाय या उनके जन्म स्थान से उन्हें खदेड़ दिया जाय कि वे नीचे स्तर के धर्म के मानने वाले हैं, मानवता के विरुद्ध अपराध है. कश्मीरी पण्डितों और श्रीलंका के तमिलों तथा यजिदियों का हिंसक उत्पीड़न भी इसके उदहारण हैं.
     कुछ धर्म प्रवचनकर्ता धार्मिक आस्था जगाने के बजाय अपने धर्म की श्रेष्ठता बताने में लगे हैं और धार्मिक उन्माद फैला रहे हैं. यही धार्मिक उन्माद दूसरे धर्म के प्रति नफरत भी फैला रहा है. अपने धर्म को दूसरे धर्म से श्रेष्ठ बताना और धार्मिक उन्माद फ़ैलाने से विभिन्न धर्मों के लोगों में एक साथ रह कर जीने की प्रवृत्ति कम कर रहा है. धार्मिक उन्माद दूसरे धर्म के प्रति नफरत पैदा करता है. धार्मिक उन्माद बढ़ने के कारण विभिन्न धर्मों के बीच तनाव और कटुता बढ़ रही है. जब धार्मिक रूप से उन्मादी व्यक्ति के हाथ में हथियार आ जाय या ऐसे व्यक्ति के कमान में शस्त्रधारी दस्ता आ जाय, तो व्यापक हिंसा होना लाजिमी है.   
    मानवता के विरुद्ध इस तरह के अपराध से निपटने के लिये संयुक्त राष्ट्र संघ में UNHRC नामक संगठन और अन्तर्राष्ट्रीय न्यायलय बनाये गये थे, जो अब बहुत कारगर नहीं रह गये हैं और इसका बड़ी ताकतों द्वारा राजनैतिक दुरूपयोग भी किया जाता रहा है.
    अपने राज को अधिक दिनों तक चलाने हेतु अपने विरोधियों को कमजोर करने या समाप्त करने हेतु कई देशों के राजा या राष्ट्राध्यक्ष धर्म को बढ़ावा देते रहे हैं. इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु वे लोग आतंकवादी संगठनों को आर्थिक मदद करते रहे हैं. जब उन्मादी सत्ताधारी लोग ही मजहब की राजनीति करने लगे और अन्य धर्मावलम्बियों के जीने का अधिकार छीनने लगे तथा बलपूर्वक धर्म परिवर्तन कराने लगे तो ऐसे में शान्ति की उम्मीद कैसे की जा सकती है.
    अल कायदा, बोको हराम, ISIS, हम्मास, सिमी(अब आईएम) आदि धार्मिक संगठनों की गतिविधियां धार्मिक उन्माद बढ़ा कर आतंकवाद का रूप ले चुकी हैं और इराक, इजराइल आदि देशों की प्रति-आतंकवादी गतिविधियां मानव जाति के नरसंहार की ओर अग्रसर हैं. अब इस ओर भी ध्यान देने की आवश्यकता है कि लड़ने वाले पक्षकारों के पास आधुनिक हथियार हैं और वे संगठन दिन-प्रतिदिन पहले से अधिक विनाशक हथियारों से लैस होते जा रहे हैं. अगर स्थिति में सुधार नहीं हुआ तो शीघ्र ही इन संगठनों के पास नाभकीय, जैविक और रासायनिक महाविनाशक हथियार आ सकते हैं. बढ़ता हुआ धार्मिक उन्माद आतंकवाद को बढ़ावा दे रहा है, जो मानवता के विरुद्ध अपराध है. संयुक्त राष्ट्र संघ को अब अधिक निष्पक्ष, कारगर और सकारात्मक भूमिका निभानी चाहिये।
नोट:- इस आलेख का उद्देश्य किसी के धार्मिक भावनाओं को ठेस पंहुचाना नहीं है. अगर किसी पाठक को इससे असहमति हो या उनकी धार्मिक भावनाओं को ठेस पँहुचती हो तो मैं उनसे क्षमा प्रार्थी हूँ.
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Readers' comment through Twitter
1.
BhUpEnDrA SiNgH@bps19
धार्मिक आतंकवाद साशय अपराध है इंसानियत के प्रति
2.  16.12.2014
"This is true, but people from some religions do not care about it. Sad, but true".
3.  26.03.2017
बिगड़ा हुआ लोकतंत्र और भटका हुआ धर्म सबसे बड़े दुश्मन हैं मानवता के।ये असंभव से लक्ष्य की उम्मीद में मानसिक गुलाम बनाते हैं.
दो विश्वयुद्धों से भी अधिक मानव धार्मिक उन्माद में मारे जा चुके हैं।

Comments

  1. धार्मिक आतंक उचित शब्द नहीं लगता. इसको धार्मिक उन्माद कर दें तो ठीक होगा

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