PSU के निर्माण/विनिवेश से भी राष्ट्रीय सम्पदा का सृजन हो सकता है.
प्रथम, द्वितीय और तृतीय पञ्च वर्षीय योजनाओं में मिश्रित अर्थ-व्यवस्था पर काफी जोर दिया गया और सिर्फ यही व्यवस्था हमारे देश के अनुकूल बताया गया. यह भी बताया गया कि मिश्रित अर्थ-व्यवस्था ही हमारे देश को एक आर्थिक महाशक्ति के रूप में स्थापित करेगा। इसी अवधारणा को साकार करते हुए बोकारो, चितरंजन, दुर्गापुर, हटिया, राउरकेला और भिलाई आदि स्थानों पर बड़े-बड़े केन्द्रीय सार्वजनिक उपक्रम लगाये गये. इन्ही नीतियों का अनुसरण करते हुए राज्य सरकारों ने भी बहुत से सार्वजनिक उपक्रम लगाये। इन उपक्रमों के चालू हो जाने से प्रगति का एक नया युग का प्रारम्भ हुआ और बड़ी संख्या में प्रतिभावान लोगों को नौरकरी मिली तथा आगे भी विद्यार्थियों को मन लगाकर पढ़ने की प्रेरणा मिली।
फिर पिछली शताब्दी के सत्तर के दशक के आसपास आया राष्ट्रीयकरण का एक युग. इस युग में निजी कोयला कम्पनियों, निजी बैंकों आदि का राष्ट्रीयकरण किया गया. इससे भी कई निजी कम्पनियाँ रातोंरात सरकारी कम्पनियों में बदलने लगीं। अब ये सभी कम्पनियाँ सरकारी उपक्रम कहलाने लगीं।
अस्सी के दशक में इन उपक्रमों की प्रबन्धकीय व्यवस्था पर धूर्त नेता और नौकरशाह काबिज होने लगे. छोटे-बड़े सभी कामगारों की योग्यता की उपेक्षा होने लगी. प्रबन्धकीय व्यवस्था पर काबिज नेता और नौकरशाह यूनियनबाज़ी को प्रोत्साहन देने लगे. कुल-मिलाकर सरकारी उपक्रम एक तरह से चरागाह बनने लगे. काबिज नेता और नौकरशाह अपने-अपने लोगों को अनावश्यक बहाली करने लगे. इससे धीरे-धीरे over-staffing होने लगी. कामगार अब काम करने के बजाय राजनीति पर गप्प करने लगे जिससे श्रम-उत्पादकता घटने लगी. राजनैतिक हस्तक्षेप और यूनियनबाज़ी बढ़ने से काबिल कामगार और अधिकारी अपने को चुप रहने में ही भलाई समझने लगे. आरक्षण भी कुछ हद तक अपना कुप्रभाव दिखाने लगा.
अबतक इन सरकारी उपक्रमों में जो मशीनरी और तकनीकि थी वे सभी पुरानी पड़ने लगीं। परिणामतः इन उपक्रमों द्वारा उत्पादित सेवा और उत्पादों के लगत मूल्य बढ़ने लगे तथा ये सब खुली बाजार की प्रतिस्पर्धा में पिछड़ने लगे. तत्कालीन प्रबन्धन नयी मशीनरी और नयी तकनीकी को लाने और श्रम-उतपादकता बढ़ाने में असफल रहा और एक एक कर सरकारी उपक्रम घाटे में जाने लगे.
घाटे में चलने वाले उपक्रम सरकारी ख़ज़ाने पर बोझ बनने लगे. इनसे निज़ात पाने के लिये बहुत से उपक्रमों को मिट्टी के भाव बेंच दिया गया. भारतीय खाद निगम की एक इकाई सिन्दरी(झारखण्ड) सहित कुछ उपक्रमों को बन्द भी कर दिया गया. फिर आया विनिवेश का दौड़. सरकारी उपक्रमों को स्ट्रेटेजिक और नॉन-स्ट्रेटेजिक भाग में बांटा गया और नॉन-स्ट्रेटेजिक उपक्रमों में विनिवेश के बाद भी हमारे बहुत से गैर रण-नीतिक सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में अनावश्यक रूप से बहुत ज्यादा धन पड़ा हुआ है. जैसे कुछ बैंक, कुछ कोयला कम्पनियाँ, कुछ स्टील कम्पनियाँ आदि. अगर इनमे 10% भी विनिवेश कर दिया जाये तो नयी कम्पनियों के निर्माण हेतु काफी पैसा उपलब्ध हो जायेगा और विनिवेशित कम्पनियों की कार्य-क्षमता में भी सुधार आ जायेगा।
मार्च 2017 में संसद में घाटे में चलने वाले केन्द्रीय सार्वजनिक उपक्रम के बारे में सरकार की ओर से काफी कुछ बताया गया है. इस सूचना के अनुसार 43 ऐसे केन्द्रीय सार्वजनिक उपक्रम हैं जो विगत तीन वर्षों से लगातार घाटे में चल रहे हैं. इसके अलावे राज्य सरकार के अन्तर्गत भी ऐसे दर्जनों सार्वजनिक उपक्रम हैं जो बहुत दिनों से घाटे में चल रहे हैं. इन सरकारी कम्पनियों में हो रहे घाटे का मुख्य कारण कमजोर प्रबन्धन, प्रति यूनिट उत्पादन लागत का बढ़ना और संसाधनों का कम उपयोग आदि बताया जा रहा है.
मिश्रित अर्थ-व्यवस्था की अवधारणा को आरक्षण ने भी काफी कमजोर किया है. हर दूसरे ट्रेन दुर्घटना का कारण आरक्षण के चलते अयोग्य जूनियर का प्रमोशन बताया जाता है. राजनैतिक हस्तक्षेप और यूनियनबाज़ी में कमी आने से सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में अच्छे परिणाम देखने को मिल सकते हैं. सार्वजनिक क्षेत्र के अधिकांश उपक्रमों में ओवर स्टाफिंग की समस्या है, जिससे इनके कामगारों की कार्य-क्षमता का स्तर अपेक्षाकृत कम है. किसी-किसी उपक्रम में ठेका प्रथा और आउट सोर्सिंग भी कामगारों के मनोबल को कमजोर करता है. सार्वजनिक उपक्रमों के प्रबन्धकों को हमारे श्रम कानूनों के कुछ प्रावधान निरुत्साहित करते हैं जब कि निजी क्षेत्र के प्रबन्धक उन प्रावधानों को उत्कोच के सहारे बड़ी आसानी से पार पा लेते हैं.
विनिवेश के लाभ:-
1. विनिवेशित सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम पर नये निवेशकों का प्रभाव बढ़ेगा। इससे उसकी कार्यक्षमता और श्रम-उत्पादकता में सुधार आवेगा।
2. विनिवेश से प्राप्त धन से नये सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम के निर्माण में सहुलियत होगी,
3. कहा जाता है कि हमारे स्टॉक मार्केट पर कुछ दर्जन पूंजीपतियों का ही कब्ज़ा है. विनिवेश से स्टॉक मार्केट का आधार बड़ा होगा जिससे विनिवेशित उपक्रमों के कामगारों सहित और भी सामान्य लोग स्टॉक मार्किट से जुड़ेंगे। इससे स्टार्ट अप कम्पनियों को पूँजी आसानी से उपलब्ध होगी और हमारे देश की प्रगति की रफ्तार बढ़ेगी।
आज के परिदृश्य में ऊर्जा का बहुत महत्व है. हमारा देश Mobility और बिजली गुल होने पर आवश्यक उपकरण को चलाने के लिये पेट्रोलियम उत्पादों पर निर्भर है. हमारा देश लगभग 85% कच्चा तेल जिससे मुख्य रूप से पेट्रोलियम उत्पाद बनते हैं, को विदेशों से आयात करता है. यह आयात हमारे विकास के अनुरूप दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है. चूँकि हम इस आयात अनुरूप अपना निर्यात नहीं बढ़ा पा रहे हैं इसलिये हमारा विदेशी व्यापार घाटा हर वर्ष बढ़ता ही जा रहा है. इस कारण भी हमारा रुपया कमजोर होते जा रहा है. इस स्थिति से बचने का एक उपाय यह भी है कि हम भी अमेरिका, जर्मनी चीन आदि के बैटरी चालित वाहनों के निर्माण में सम्मिलित हों. इसके हमें बैटरी चालित वाहनों के मुख्य हिस्से बैटरी और मोटर के निर्माण अपने देश में ही करें। यह सर्वविदित है कि हमारे अन्तरिक्ष यानों में देश में ही निर्मित बैटरी 12 वर्षों तक चलती है.
जब हमारे देश में ही उत्तम प्रकार के बैटरी तकनीक उपलब्ध है. BHEL उच्च कोटि का विद्युत् मोटर भी बनाता है. अतः इन दोनों तकनीकों का सदुपयोग करने हेतु एक PSU स्थापित किया जाये। यह PSU वाहनों के लिये बैटरी और मोटर का विनिर्माण करे तो हम भी बैटरी चालित वहाँ विनिर्माण में विश्व में अग्रिम पंक्ति में शामिल हो सकते हैं. इससे ऊर्जा के क्षेत्र में हमें आत्मनिर्भर बनने में सहायता मिलेगी। इससे अत्यधिक रोजगार का सृजन होगा। साथ ही इससे हमारी राष्ट्रीय सम्पदा भी बढ़ेगी।
हमारी सेना, न्यायपालिका और राज्य सभा के सांसदों में अभी भी आरक्षण लागू नहीं है. उसी अनुरूप दक्षता को सर्वोपरि रखते हुए सरकारी क्षेत्र में नये उपक्रमों के निर्माण हेतु सम्विधान में उचित संशोधन किये जा सकते हैं. दक्षता के लाभ से इनकार नहीं किया जा सकता। प्रतिस्पर्द्धा से कामगारों की दक्षता में सुधार होता है.
श्री दीपक आहूजा, सुन्दर पिचाई आदि बहुत से भारतीय अपनी योग्यता के बल पर दुनिया के नामी-गिरामी कम्पनियों के उच्च पदों पर आसीन हैं. इन लोगों से कुछ सलाह लेकर नये सरकारी उपक्रम बनाये जा सकते हैं और जैसे ही ये उपक्रम लाभ देने लगे वैसे ही उनमे उचित विनिवेश कर काफी पैसा निकाला जा सकता है. और इस तरह से लगातार चलने वाली प्रक्रिया से राष्ट्रीय सम्पदा का नियमित रूप से सृजन किया जा सकता है. ऐसा होने से पुनः बड़ी संख्या में प्रतिभावान लोगों को नौकरी मिलेगी और हमारे देश से प्रतिभा का पलायन भी रुकेगा। यह प्रगति-पथ हमारे देश को एक आर्थिक महाशक्ति की ओर तेजी से बढ़ने में भी हमारा मार्ग प्रशस्त करेगा।
ऐसे बहुत से क्षेत्र हैं जिनमे बड़ी-बड़ी कम्पनियों का बोलबाला है. दवा क्षेत्र ऐसा ही एक क्षेत्र है. इस क्षेत्र में पहले IDPL का बड़ा नाम था. IDPL का पुनरुद्धार कर सरकार की दवा की प्रशासनिक मूल्य नीति को भी कारगर ढंग से साकार करने से सही मायने में हमारे सम्विधान की परिकल्पना के अनुरूप भारत को एक जन-कल्याणकारी और मजबूत राष्ट्र के रूप मजबूती से स्थापित किया जा सकता है.
नोट:- यह एक विचार है जो बहुत से सेवा-निवृत्त अधिकारियों से चर्चा से उभरे तथ्यों पर आधारित है. अगर इस विचार से किसी को असहमति और आपत्ति हो तो मैं उनसे क्षमा प्रार्थी हूँ. पाठकों की खट्टी-मीठी टिपणियों का सदैव स्वागत रहेगा।
https://Twitter.com/BishwaNathSingh
Comments through Twitter
1. Shailesh Maurya @shail_my 06.05.2017
2. Shailesh Maurya @shail_my 06.05.2017
फिर पिछली शताब्दी के सत्तर के दशक के आसपास आया राष्ट्रीयकरण का एक युग. इस युग में निजी कोयला कम्पनियों, निजी बैंकों आदि का राष्ट्रीयकरण किया गया. इससे भी कई निजी कम्पनियाँ रातोंरात सरकारी कम्पनियों में बदलने लगीं। अब ये सभी कम्पनियाँ सरकारी उपक्रम कहलाने लगीं।
अस्सी के दशक में इन उपक्रमों की प्रबन्धकीय व्यवस्था पर धूर्त नेता और नौकरशाह काबिज होने लगे. छोटे-बड़े सभी कामगारों की योग्यता की उपेक्षा होने लगी. प्रबन्धकीय व्यवस्था पर काबिज नेता और नौकरशाह यूनियनबाज़ी को प्रोत्साहन देने लगे. कुल-मिलाकर सरकारी उपक्रम एक तरह से चरागाह बनने लगे. काबिज नेता और नौकरशाह अपने-अपने लोगों को अनावश्यक बहाली करने लगे. इससे धीरे-धीरे over-staffing होने लगी. कामगार अब काम करने के बजाय राजनीति पर गप्प करने लगे जिससे श्रम-उत्पादकता घटने लगी. राजनैतिक हस्तक्षेप और यूनियनबाज़ी बढ़ने से काबिल कामगार और अधिकारी अपने को चुप रहने में ही भलाई समझने लगे. आरक्षण भी कुछ हद तक अपना कुप्रभाव दिखाने लगा.
अबतक इन सरकारी उपक्रमों में जो मशीनरी और तकनीकि थी वे सभी पुरानी पड़ने लगीं। परिणामतः इन उपक्रमों द्वारा उत्पादित सेवा और उत्पादों के लगत मूल्य बढ़ने लगे तथा ये सब खुली बाजार की प्रतिस्पर्धा में पिछड़ने लगे. तत्कालीन प्रबन्धन नयी मशीनरी और नयी तकनीकी को लाने और श्रम-उतपादकता बढ़ाने में असफल रहा और एक एक कर सरकारी उपक्रम घाटे में जाने लगे.
घाटे में चलने वाले उपक्रम सरकारी ख़ज़ाने पर बोझ बनने लगे. इनसे निज़ात पाने के लिये बहुत से उपक्रमों को मिट्टी के भाव बेंच दिया गया. भारतीय खाद निगम की एक इकाई सिन्दरी(झारखण्ड) सहित कुछ उपक्रमों को बन्द भी कर दिया गया. फिर आया विनिवेश का दौड़. सरकारी उपक्रमों को स्ट्रेटेजिक और नॉन-स्ट्रेटेजिक भाग में बांटा गया और नॉन-स्ट्रेटेजिक उपक्रमों में विनिवेश के बाद भी हमारे बहुत से गैर रण-नीतिक सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में अनावश्यक रूप से बहुत ज्यादा धन पड़ा हुआ है. जैसे कुछ बैंक, कुछ कोयला कम्पनियाँ, कुछ स्टील कम्पनियाँ आदि. अगर इनमे 10% भी विनिवेश कर दिया जाये तो नयी कम्पनियों के निर्माण हेतु काफी पैसा उपलब्ध हो जायेगा और विनिवेशित कम्पनियों की कार्य-क्षमता में भी सुधार आ जायेगा।
मार्च 2017 में संसद में घाटे में चलने वाले केन्द्रीय सार्वजनिक उपक्रम के बारे में सरकार की ओर से काफी कुछ बताया गया है. इस सूचना के अनुसार 43 ऐसे केन्द्रीय सार्वजनिक उपक्रम हैं जो विगत तीन वर्षों से लगातार घाटे में चल रहे हैं. इसके अलावे राज्य सरकार के अन्तर्गत भी ऐसे दर्जनों सार्वजनिक उपक्रम हैं जो बहुत दिनों से घाटे में चल रहे हैं. इन सरकारी कम्पनियों में हो रहे घाटे का मुख्य कारण कमजोर प्रबन्धन, प्रति यूनिट उत्पादन लागत का बढ़ना और संसाधनों का कम उपयोग आदि बताया जा रहा है.
मिश्रित अर्थ-व्यवस्था की अवधारणा को आरक्षण ने भी काफी कमजोर किया है. हर दूसरे ट्रेन दुर्घटना का कारण आरक्षण के चलते अयोग्य जूनियर का प्रमोशन बताया जाता है. राजनैतिक हस्तक्षेप और यूनियनबाज़ी में कमी आने से सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में अच्छे परिणाम देखने को मिल सकते हैं. सार्वजनिक क्षेत्र के अधिकांश उपक्रमों में ओवर स्टाफिंग की समस्या है, जिससे इनके कामगारों की कार्य-क्षमता का स्तर अपेक्षाकृत कम है. किसी-किसी उपक्रम में ठेका प्रथा और आउट सोर्सिंग भी कामगारों के मनोबल को कमजोर करता है. सार्वजनिक उपक्रमों के प्रबन्धकों को हमारे श्रम कानूनों के कुछ प्रावधान निरुत्साहित करते हैं जब कि निजी क्षेत्र के प्रबन्धक उन प्रावधानों को उत्कोच के सहारे बड़ी आसानी से पार पा लेते हैं.
विनिवेश के लाभ:-
1. विनिवेशित सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम पर नये निवेशकों का प्रभाव बढ़ेगा। इससे उसकी कार्यक्षमता और श्रम-उत्पादकता में सुधार आवेगा।
2. विनिवेश से प्राप्त धन से नये सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम के निर्माण में सहुलियत होगी,
3. कहा जाता है कि हमारे स्टॉक मार्केट पर कुछ दर्जन पूंजीपतियों का ही कब्ज़ा है. विनिवेश से स्टॉक मार्केट का आधार बड़ा होगा जिससे विनिवेशित उपक्रमों के कामगारों सहित और भी सामान्य लोग स्टॉक मार्किट से जुड़ेंगे। इससे स्टार्ट अप कम्पनियों को पूँजी आसानी से उपलब्ध होगी और हमारे देश की प्रगति की रफ्तार बढ़ेगी।
आज के परिदृश्य में ऊर्जा का बहुत महत्व है. हमारा देश Mobility और बिजली गुल होने पर आवश्यक उपकरण को चलाने के लिये पेट्रोलियम उत्पादों पर निर्भर है. हमारा देश लगभग 85% कच्चा तेल जिससे मुख्य रूप से पेट्रोलियम उत्पाद बनते हैं, को विदेशों से आयात करता है. यह आयात हमारे विकास के अनुरूप दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है. चूँकि हम इस आयात अनुरूप अपना निर्यात नहीं बढ़ा पा रहे हैं इसलिये हमारा विदेशी व्यापार घाटा हर वर्ष बढ़ता ही जा रहा है. इस कारण भी हमारा रुपया कमजोर होते जा रहा है. इस स्थिति से बचने का एक उपाय यह भी है कि हम भी अमेरिका, जर्मनी चीन आदि के बैटरी चालित वाहनों के निर्माण में सम्मिलित हों. इसके हमें बैटरी चालित वाहनों के मुख्य हिस्से बैटरी और मोटर के निर्माण अपने देश में ही करें। यह सर्वविदित है कि हमारे अन्तरिक्ष यानों में देश में ही निर्मित बैटरी 12 वर्षों तक चलती है.
जब हमारे देश में ही उत्तम प्रकार के बैटरी तकनीक उपलब्ध है. BHEL उच्च कोटि का विद्युत् मोटर भी बनाता है. अतः इन दोनों तकनीकों का सदुपयोग करने हेतु एक PSU स्थापित किया जाये। यह PSU वाहनों के लिये बैटरी और मोटर का विनिर्माण करे तो हम भी बैटरी चालित वहाँ विनिर्माण में विश्व में अग्रिम पंक्ति में शामिल हो सकते हैं. इससे ऊर्जा के क्षेत्र में हमें आत्मनिर्भर बनने में सहायता मिलेगी। इससे अत्यधिक रोजगार का सृजन होगा। साथ ही इससे हमारी राष्ट्रीय सम्पदा भी बढ़ेगी।
हमारी सेना, न्यायपालिका और राज्य सभा के सांसदों में अभी भी आरक्षण लागू नहीं है. उसी अनुरूप दक्षता को सर्वोपरि रखते हुए सरकारी क्षेत्र में नये उपक्रमों के निर्माण हेतु सम्विधान में उचित संशोधन किये जा सकते हैं. दक्षता के लाभ से इनकार नहीं किया जा सकता। प्रतिस्पर्द्धा से कामगारों की दक्षता में सुधार होता है.
श्री दीपक आहूजा, सुन्दर पिचाई आदि बहुत से भारतीय अपनी योग्यता के बल पर दुनिया के नामी-गिरामी कम्पनियों के उच्च पदों पर आसीन हैं. इन लोगों से कुछ सलाह लेकर नये सरकारी उपक्रम बनाये जा सकते हैं और जैसे ही ये उपक्रम लाभ देने लगे वैसे ही उनमे उचित विनिवेश कर काफी पैसा निकाला जा सकता है. और इस तरह से लगातार चलने वाली प्रक्रिया से राष्ट्रीय सम्पदा का नियमित रूप से सृजन किया जा सकता है. ऐसा होने से पुनः बड़ी संख्या में प्रतिभावान लोगों को नौकरी मिलेगी और हमारे देश से प्रतिभा का पलायन भी रुकेगा। यह प्रगति-पथ हमारे देश को एक आर्थिक महाशक्ति की ओर तेजी से बढ़ने में भी हमारा मार्ग प्रशस्त करेगा।
ऐसे बहुत से क्षेत्र हैं जिनमे बड़ी-बड़ी कम्पनियों का बोलबाला है. दवा क्षेत्र ऐसा ही एक क्षेत्र है. इस क्षेत्र में पहले IDPL का बड़ा नाम था. IDPL का पुनरुद्धार कर सरकार की दवा की प्रशासनिक मूल्य नीति को भी कारगर ढंग से साकार करने से सही मायने में हमारे सम्विधान की परिकल्पना के अनुरूप भारत को एक जन-कल्याणकारी और मजबूत राष्ट्र के रूप मजबूती से स्थापित किया जा सकता है.
नोट:- यह एक विचार है जो बहुत से सेवा-निवृत्त अधिकारियों से चर्चा से उभरे तथ्यों पर आधारित है. अगर इस विचार से किसी को असहमति और आपत्ति हो तो मैं उनसे क्षमा प्रार्थी हूँ. पाठकों की खट्टी-मीठी टिपणियों का सदैव स्वागत रहेगा।
https://Twitter.com/BishwaNathSingh
Comments through Twitter
1. Shailesh Maurya @shail_my 06.05.2017
"PSUs ने पहले भी साबित किया है।भ्रष्ट अफसरों और नेताओं को अलग कर स्वतंत्र CEO के हवाले कर दें तो PSUs संपत्ति व रोजगार दोनों में सहायक होंगे।"
पुराना बेच कर फिर नया खड़ा करो ? IDPL खंडहर हो चुका है, आज की नामी बड़ी बड़ी दवाई कम्पनी के मालिक खुद या उनके परिवार के IDPL में ही कभी नौकरी करते थे और वहां से researched formulations चुरा कर pharma companies खोल ली। HMT इतनी बढिया घड़िया बनाते थे ,what happened ? सरकारी शुगर मिलों से रेल की पटरिया तक बेच खाये ।
ReplyDeletePSU बेवकूफी का काम है ।
बाकी बाद में ।
मैंने अपने ब्लॉग पर आपकी आन्तरिक टिप्पणी पढ़ी; बहुत ख़ुशी हुई. आपने यह तो माना कि IDPL के खण्डहर के ईंटों से भी कई इमारतें खड़ी हो गयीं। इसे एक दुर्घटना मानकर इसकी कमियों को दूर करते हुए इस शीर्षक की अवधारणा को आगे बढ़ाना ही जिन्दगी है. NASA को भी......
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