भूमि अधिग्रहण समस्या के कुछ साधारण समाधान!

     इधर कुछ महीने से भूमि अधिग्रहण पर काफी गरमा-गरम बहस छिड़ी हुई है. जो नेता पहले भूमि-अधिग्रहण का विरोध करते थे अब समर्थन करने लगे हैं और जो समर्थन करते थे अब विरोध करने लगे. अंग्रेजों ने 1894 में पहला भूमि अधिग्रहण कानून बनाया था और उसी के अनुसार दो वर्ष पहले तक भूमि अधिग्रहण होता रहा. भूमि अधिग्रहणों से बड़ी संख्या में किसान विस्थापित हुए हैं. उनके पुनर्वास हेतु कई योजनायें भी चलायी गयी हैं लेकिन उन योजनाओं से विस्थापितों का कितना कल्याण हुआ वह विस्थापित ही बता सकते हैं.
     पुनः दूसरा भूमि अधिग्रहण वर्ष 2013 में UPA सरकार ने पास किया। यह कानून इतना पेंचीदा और अव्यवहारिक है कि इसके अन्तर्गत किसी भूमि का अधिग्रहण नहीं हो सका.  यह विडम्बना ही है कि ऐसे बहुत नेता हैं जिन्होने पूर्व में इस कानून का समर्थन किया था वे अब उसे अव्यवहारिक मानकर भूमि अधिग्रहण अध्यादेश लाये है, जिसका अभी विरोध हो रहा है. ऐसा दुनिया में शायद ही कहीं हुआ हो की विस्थापितों के पुनर्वास की व्यवस्था नहीं की गयी हो.
     प्रायः निम्न तीन बिन्दुओं पर ज्यादा विरोध हो रहा है:-
(क). मुआब्जा के मूल्यांकन:- चाहे जितना प्रचारित किया जाय लेकिन अधिग्रहित भूमि का मुआब्जा बाजार मूल्य से काफी कम मिलता है और जितना मिलना है उसे लेने में जूता-चप्पल घिस जाते हैं.
(ख). भूमि का अधिग्रहण जरुरत से बहुत ज्यादा किया जाता है. इसका सबसे बड़ा उदहारण यही है की पन्द्रह वर्ष पूर्व के अधिग्रहित काफी मात्रा में जमीन आज भी खाली पड़े हैं.
(ग). पुनर्वास की व्यवस्था नहीं के बराबर है.  

समाधान:-  

1. सेना के लिये:- समय के साथ-साथ आतंकवाद भी बढ़ रहा है. आतंकवादी लोग सिरफिरे भी होते हैं. यानि हमारे सैनिक प्रतिष्ठानों की सुरक्षा की भी आवश्यकता है. यदि आम आबादी से दूर जंगलों में सैनिक प्रतिष्ठान स्थापित किये जायें तो उनकी सुरक्षा व्यवस्था सुदृढ़ होगी। हमारे सैनिक प्रतिष्ठानों को जंगलों में स्थापित करने से वैसे वन-भूमि में भी हरियाली छा जायेगी जहाँ हरियाली कागजों पर ही अभी है. तीसरा लाभ यह होगा कि उग्रवादी घटनाओं में भी कमी आयेगी।

2. कारखाना/उद्योग के लिये:- एक अनुमान के अनुसार हमारे देश में लगभग 15% प्रतिशत भूमि बंजर है या उनमे वर्षा के अनुसार भदई फसल हो जाती है. सिंचाई के साधनों की भी कमी है. जानकार लोग बताते हैं कि Satellite Imagery भी इसकी पुष्टि करता है. श्री अटल बिहारी बाजपेयी ने टण्डवा, जिला चतरा(झारखण्ड) में ऐसी ही भूमि पर ताप बिजली घर बनाने हेतु शिलान्यास किया था, लेकिन उनके हटते ही स्थिति बदल गयी. यदि बंजर या पिछड़े इलाके में कारखाना/उद्योग लगाया जाय तो शायद अगली सदी तक भूमि की कोई कमी नहीं होगी।
     दुर्भाग्यवश निजी क्षेत्र के कारखाना/उद्योग की बात तो छोड़ दीजिये सार्वजानिक क्षेत्र के कारखाना/उद्योग भी बंजर या पिछड़े क्षेत्र में जाना नहीं चाहते। लोग तो अब यहाँ तक कहने लगे हैं की कालाहाण्डी/बुन्देलखण्ड/पलामू/चतरा आदि क्षेत्रों के लोग पिछले जन्म में कोई पाप किये हैं, जिस कारण उनके क्षेत्र में कारखाना/उद्योग नहीं लग रहा है. यदि अटलजी का राज होता होता तो उन जैसे पिछड़े लोगों का भी विकास हो जाता।        

3. रेल लाइन/नहर/सड़क हेतु :- प्रायः रेल विभाग दो सौ फीट चौड़ाई में जमीन का अधिग्रहण रेल लाइन बिछाने हेतु करता है. स्टेशनों के लिये अधिक भूमि की आवश्यकता होती है. नहर और सड़क हेतु 30 से 300 फीट की चौड़ाई में भूमि का अधिग्रहण किया जाता है. पूर्व के अधिग्रहणों से बहुत से किसानों की जमीन होकर भी रेल लाइन/नहर और सड़कें गुजरती हैं यानि एक ही खेत का एक भाग रेल लाइन/नहर/सड़क के उसपार पड़ गये हैं. ऐसे मे खेती करना खतरनाक और दुष्कर कार्य हो गया है. धीरे-धीरे ऐसे किसानों की संख्या बहुत हो गयी है. ऐसे किसानों को समझ में नहीं आता कि संवैधानिक रूप से कल्पित हमारा देश कल्याणकारी राज्य कैसे है?
      पहले रेल लाइन/नहर/सड़क की जमीन को कागजों पर चिन्हित कर दी जाय और उसके मध्य रेखा से दोनों तरफ आवश्यकता से दस गुना जमीन अधिग्रहण किया जाय. फिर उसमें से रेलवे अपनी आवश्यकतानुसार जमीन निकाल कर दोनों तरफ के जमीनों का चकबन्दी कर शेष लगभग 90% जमीन को जमीन मालिक किसानों को लौटा दिया जाय. इस तरह किसी भी किसान का उनके अधिग्रहित जमीन का दसवां भाग से अधिक जमीन नहीं जायेगा। उन्हें जितना मुआब्जा देना हो दे दिया जाय. ऐसे में कोई किसान विस्थापित भी नहीं होगा और उसके मन से उसके रोजगार छीने जाने का भय भी समाप्त हो जायेगा। इस समाधान को 10x-9x फार्मूला से भी जाना जा सकता है.   
4. सौर/पवन ऊर्जा सम्बन्धित योजनाओं हेतु:-  अभी रेलवे/नहर/राजमार्ग एवम सार्वजानिक उपक्रमों के पास पर्याप्त स्थान हैं जहाँ सौर ऊर्जा के Panels आसानी से लगाये जा सकते हैं. चार एवम छः गलियारे वाले सड़कों के बीच में Sunflower सोलर जनरेटर आसानी से लगाये जा सकते हैं. एक फसली खेतों के बीच भी सनफ्लॉवर सोलर जनरेटर  भी लगाये जाने चाहिये। बंजर जमीन भी काफी है. पवन ऊर्जा के Turbines हमारे नदियों में लगाये जाने चाहिये। Offshore Wind Turbines भी विदेशों में काफी लोकप्रिय हो रहे हैं.
    सौर ऊर्जा की लोकप्रियता को देखते हर एक फसली जमीन को बीस-पच्चीस वर्ष के लीज पर लिया जा सकता है और उसका विशेषज्ञों द्वारा तय राशि को किसानों के जन-धन खातों में मासिक किश्त को जमा करने से शायद किसान भी खुश रहेंगे और उस सोलर फार्म में उसके रख-रखाव हेतु सम्बन्धित किसानों और उसके परिजनों को काम भी मिल जायेगा। किश्त की राशि को Inflation से समायोजित करने से किसानों की ख़ुशी और बढ़ जायेगी।
5. विविध कार्यों हेतु:- देहातों में और अर्ध शहरी इलाकों में पहले से ही अस्पताल/विद्यालयों में काफी जमीन है. पुराने भावनों को तोड़कर आवश्यकतानुसार बहुमंजिला भवन बनाकर नये अस्पताल, विद्यालय आदि बनाये जा सकते हैं.
6. नये भूमि अधिग्रहण विधेयक में जरुरत से ज्यादा भूमि अधिग्रहण करने वाले अधिकारियों पर क़ानूनी कार्यवाही करने का कोई प्रावधान नहीं है. इस प्रावधान को जोड़ा जाय.
7. भूमि-अधिग्रहण से मिलने वाली मुआबजा राशि को पहली पीढ़ी को 40% ही भुगतान किया जाय  और दूसरी तथा तीसरी पीढ़ी के लिये  उनके बालिग होने तक तीस-तीस प्रतिशत की राशि बैंक में उचित व्याज पर फिक्स कर दिया जाय. इससे पीड़ित परिवार के दूसरी और तीसरी पीढ़ी के बच्चों को कुछ सहारा मिल जायेगा।
8. अगर भूमि-अधिग्रण से पीड़ित परिवार के तीसरी पीढ़ी को आधा प्रतिशत का संवैधानिक आरक्षण मिल जाता तो सोने पे सुहागा हो जाता।
     पूर्व के भूमि अधिग्रहणों के पीड़ित किसानों के परिजनों की दुर्दशा को देखकर किसान डरे हुए हैं. पीड़ित परिवार की पहली पीढ़ी तो निकल गयी लेकिन उनकी दूसरी और तीसरी पीढ़ी के लोग की हालत बहुत ख़राब है. सरकार को इस पर एक अध्ययन कराना चाहिये। यह विडम्बना ही है कि जिनके राज में पूर्व के भूमि अधिग्रहण हुए थे, वे नेता भी अपनी चुप्पी तोड़कर घड़ियाली आंसू बहा रहे हैं. घड़ियाली आंसू  बहाने वाले नेताओं को अधूरे पड़े मण्डल(पलामू, झारखण्ड) और दुर्गावती(कैमूर, बिहार) की परियोजनाओं से पीड़ित किसानों के बच्चों से मिलना चाहिये।

पूर्व के कुछ भूमि जन-आन्दोलन 

    पूर्व के भूमि अधिग्रहणों से पीड़ित किसानों की आर्थिक स्थिति पहले से काफी कमजोर हो गयी है. जिन किसानों की पूरी की पूरी जमीन ले ली गयी उनके परिवार के लोग वहाँ के ठेकेदारों के अस्थायी मजदूर बन कर रह गये. धीरे-धीरे वे लोग राष्ट्र की मुख्य धारा से कटते चले गये. कहा जाता है कि भूमि-अधिग्रहणों से जो कुछ मुआबजा मिला वह तीन वर्ष के अन्दर जीवन यापन के ढर्रा बदलने के कारण ख़त्म हो गया और उसके बाद वे लोग गरीबी में जीने को अभिशप्त हो गये. कुछ पीड़ित परिवारों का कहना है कि मुआब्जे के बदले अगर विस्थापितों का उचित पुनर्वास होता तो शायद उनकी जिन्दगी आज बेहतर होती। कुछ युवक तो अपने पूर्वजों के लालची और विलासी स्वाभाव को भी अपनी अवनत्ति का कारण मानते हैं.
    जहाँ के लोग जागरूक थे या जिनको उचित मार्ग-दर्शन मिला वे प्रचण्ड भूमि बचाओ आन्दोलन चलाकर अपनी जमीन बचाने में कामयाब भी रहे और इसकी परिणति सम्बंधित परियोजनाओं को रद्द करने में हुआ. यह भी सत्य है कि रेलवे लाइन को छोड़कर रेलवे स्टेशन सहित अधिकतर भूमि अधिग्रहणों में जहाँ एक परिवार पीड़ित होता है, वहाँ अगल-बगल के दर्जनो परिवार के जमीनों के दाम काफी बढ़ जाते हैं और परिणामस्वरुप वे लोग काफी धनी हो जाते हैं. इन्ही लोगों के प्रभाव से आन्दोलन कुछ ही दिनों के बाद दम तोड़ देता है.

1. कोयल-कारो जल-विद्युत परियोजना बन्द करो आन्दोलन:- जन-आन्दोलन के कारण ही झारखण्ड में दक्षिण कोयल और कारो नदी पर बनने वाली यह सिंचाई सह विद्युत् उत्पादन योजना का कार्य स्थगित करना पड़ा है.

2. मण्डल सिंचाई सह विद्युत् उत्पादन योजना:- झारखण्ड में उत्तरी कोयल नदी पर बनने वाली यह योजना हिंसक जन आन्दोलन के कारण करीब चालीस वर्षों से लम्बित पड़ा है. इस योजना से झारखण्ड में बिजली उत्पादन होना था और झारखण्ड तथा बिहार में सिंचाई होनी थी. सभी समस्याओं के जड़ में शहरीकरण लगता है. देहातों में ही आवश्यक आधारभूत संरचनाएं विकसित की जानी चाहिये। ये सभी समाधान छोटे हैं. भले ही इसपर अमल न हो लेकिन इसपर विचार-विमर्श और चर्चायें तो की ही जा सकती हैं.

नोट:- इस आलेख से असहमति रखने वालों से मेरी विनम्र विनती है कि समय निकाल कर पूर्व के भूमि अधिग्रहणों से पीड़ित परिवार से मिलकर उनकी स्थिति जान लें और अपना अनुभव जरूर लिखें।
https://twitter.com/BishwaNathSingh

Update: दैनिक भाष्कर के राँची संस्करण दि.19.12.2017 के मुख्यपृष्ठ पर DVC के लिये अधिग्रहित हजारों एकड़ भूमि के पीड़ितों की समस्या सम्बन्धी एक समाचार छपा है. इसके अनुसार लगभग 60 साल बाद भी पीड़ितों को पूर्ण लाभ नहीं मिला है. पीड़ित परिवार की महिलाओं ने अपनी समस्या पर व्यापक ध्यानाकर्षण हेतु अपने नग्न फोटो खिंचवा कर अपने नेता को सरकार के पास भेजने हेतु दिया है. पाठकों से आग्रह है कि इस आशय के समाचार नीचे दिये गये उक्त अख़बार के कतरन के फोटो में पढ़ें और अपनी टिप्पणी दें. मुझे पूरा विश्वास है कि अख़बार वालों ने इस खबर की पुष्टि कर ली होगी।       




         




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