धूर्त नेताओं द्वारा अपनायी गयी कुछ जाँची-परखी चुनावी रणनीति।

     राजतन्त्र, व्यक्तिगत अधिनायकवाद, सामूहिक अधिनायकवाद और प्रजातन्त्र में प्रजातन्त्र को सबसे अच्छा इसलिये भी माना जाता है कि सत्ता हस्तानान्तरण में सबसे कम हिंसा होती है और शासक को बदलने का अवसर चार-पाँच साल में जनता को मिल जाता है. जनता शासक को बदल कर भी सन्तुष्ट हो जाती है. क्या हमने कभी इस बात पर ध्यान दिया है कि हमारा प्रजातन्त्र कितना शुद्ध है या कितना मिलावटी है? जनता की भागीदारी कम होने के कारण हमारा प्रजातन्त्र मिलावटी हो गया है यानि हमारे प्रजातन्त्र में 55% जनता की भागीदारी और शेष 45% तिकड़म मिला हुआ है. पिछले चुनावों में तीन-चार प्रतिशत के वोटों के इधर-उधर होने से ही सरकारें बनती-बिगड़ती रही हैं. धूर्त या चुनाव के प्रति गम्भीर नेता जानते हैं कि कई बार जीत और हार का अन्तर कुछ वोटों का भी रहा है. अतः ऐसे नेता कई तरह के तिकड़म अपनाते रहते हैं.
     पिछले चुनावों में धूर्त नेता अपने-अपने तरफ से तिकड़म के तहत नयी-नयी चुनावी रणनीति अपनाते रहे हैं. कुछ नेताओं की रणनीति सफल हो जाती है तो कुछ की विफल। चुनावी रणनीतियों को मोटा-मोटी दो भागों में बांटा जा सकता है-- (1) Front Political Campaign और (2) Back Channel Political Campaign. अभी भी पहले प्रकार के चुनाव प्रचार, जिसमे चुनावी रैली और कार्यकर्त्ता सम्मलेन आदि शामिल है, का महत्व अपने जगह है. लेकिन दूसरे प्रकार के चुनाव का महत्व भी कम नहीं है.
      Back Channel Political Campaign यह चुनाव से करीब छः माह पहले से ही शुरू हो जाता है. बड़े नेता चाहते हैं कि उनके सम्भावित मतदाता या सकारात्मक मतदाताओं में एकजुटता बनी रहे लेकिन नकारात्मक मतदाताओं में अधिक से अधिक बिखराव हो. अफवाह और काला धन इन नीतियों की सफलता में सहायक रहा है. इसी सुविचारित चुनावी नीतियों के अन्तर्गत धूर्त नेता निम्न प्रकार की योजनाओं में लग जाते हैं:---
(क) गरेड़ियों की पहचान या वोटों के सौदागर:- अभी भी बहुत से लोग अपने मोहल्ले के प्रभावशाली लोगों के कहने के अनुसार ही मत देते हैं यानि भेड़-गरेड़िया सिद्धान्त अभी भी लागू है. धूर्त नेता वोटों के सौदागरों की पहचान कर तरह-तरह के सम्मेलनों के माध्यम से उनसे सम्पर्क करते हैं. उत्तर भारत में जातीय सम्मलेनों का आयोजन भी इसी कड़ी का एक हिस्सा हो सकता है. जब वोटों के सौदागर पट जाते हैं तब उन्हें तरह-तरह से उपकृत किया जाता है. ऐसे नेता मानते हैं कि यदि गरेड़ी पट गया तो भेड़ मानसिकता वाले मतदाता गरेड़ी के पीछे-पीछे चले ही आवेंगे। इसलिये वोटों के सौदागरों का बहुत महत्व है.
(ख) मतदाता सूचि से नाम हटवाना और जुड़वाना:- हमारे उत्तर भारत के अधिकांश मतदाता भोले-भाले हैं. गम्भीर राजनैतिक दल या गम्भीर सम्भावित प्रत्याशी इस बात का पता भले ही न लगा पायें कि अमुक मतदाता या अमुक मोहल्ला के मतदाता उन्हें वोट देंगे ही, लेकिन इस बात का पता वे लोग लगा ही लेते हैं कि अमुक मतदाता या अमुक मोहल्ला के मतदाता उन्हें वोट नहीं ही देंगे। पता लग जाने पर मतदान के कुछ माह पूर्व होने वाले मतदाता पुनरीक्षण कार्य में लगे कर्मचारियों से मिलकर कुछ मतदाताओं का नाम मतदाता सूचि से हटवा या जुड़वा देते हैं.
(ग) डम्मी(वोटकटवा) उम्मीदवार खड़ा करना:- नकारात्मक वोटों में विखराव पैदा करने हेतु कई डम्मी(वोटकटवा) उम्मीदवार खड़े किये जाते हैं. ऐसे उम्मीदवारों को सभ्य भाषा में Non-Serious उम्मीदवार भी कहा जाता है. कई बार तो कुछ मतदाताओं को भरमाने हेतु सम्भावित प्रतिद्वंद्वी उम्मीदवार का पता लगाकर उसी नाम का डम्मी उम्मीदवार खड़ा कर भी कई बार मतदाताओं को भरमाने का सफल/असफल प्रयास किया गया है.
(घ) विधि-व्यवस्था या चुनाव ड्यूटी पर तैनात कर्मचारियों से कड़ाई या ढिलाई करवाना:- विधि-व्यवस्था या चुनाव ड्यूटी पर तैनात कर्मचारियों की कड़ाई या ढिलाई से भी कुछ वोटों का अन्तर हो जाता है. कुछ गम्भीर प्रत्याशी ऐसे कर्मचारियों को मिलाने का तरह-तरह से प्रयास करते हैं और अपने सकारात्मक वोटों के बूथों पर मतदान कार्य में ढिलाई और नकारात्मक वोटों वाले बूथों पर कड़ाई करवाने का भरपूर प्रयास करते हैं. कभी-कभी तो ऐसे नेता अपने मिशन में सफल भी हो जाते हैं.
(च) असुरक्षा की भावना पैदा कर राज्य/देश की मुख्य समस्याओं से ध्यान हटाना:-  हर जाति, उपजाति और धर्म के लोग प्रायः एक ही जगह पर पहले ही से बसे हुए हैं और अभी भी इस मानसिकता में कोई खास बदलाव नहीं आया है. जहाँ पर सम्भावित सकारात्मक लोग आस-पास के नकारात्मक बहुसंख्यक जाति, उपजाति और धर्म के लोगों के पास हैं वहाँ के लोगों को दीवाल लेखन, पर्चा और पियक्कड़ों के माध्यम से भ्रम फैलाकर धूर्त नेता पृष्ठभूमि में रहकर डरवा देते है.
(छ) मतदान का सामूहिक वहिष्कार करवाना:- नकारात्मक मतदाताओं वाले इलाकों में भोले-भाले लोगों को गुमराह कर इस तरह भड़का देते हैं कि वे लोग मतदान का ही वहिष्कार कर दें. इससे विपक्षी उस इलाके से वोट पाने से वंचित हो जाता है. बहुत बार यह तरकीब सफल हो जाती रही है.  
    जब जनता की भागीदारी कम होगी तो निश्चित रूप से तिकड़म हमारी राजनीति पर हावी होगा। विगत सालों में बनी संयुक्त सरकारें हमारे प्रजातन्त्र को लगातार महँगा करती रही हैं. हमारे ही वोट से प्रजातन्त्र महंगे होते रहे हैं और हम ही सांसदों और विधायकों को मिलने वाले वेतन और अन्य सुविधाओं पर सवाल उठाते रहते हैं. कुछ लोग तो यहाँ तक कहते हैं कि जो लोग मतदान के दिन वोट देने से ज्यादा छुट्टियां पसन्द करते हैं उन्हें राजनैतिक टिप्पणियां करने का कोई नैतिक अधिकार नहीं होना चाहिये. चुनाव आयोग को इन छोटी बातों पर भी ध्यान देना चाहिये और ऐसे धूर्त नेताओं की पहचान कर उनके विरुद्ध कड़ी कार्यवाई करनी चाहिये।
नोट:- जिन्हें इस ब्लॉग के तथ्यों से असहमति है, उनसे मैं क्षमाप्रार्थी हूँ. पाठकगण की खट्टी-मीठी टिप्पणियों का स्वागत है.   
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