मातृहन्ता: मनगढ़ंत अन्वेषण के दुष्परिणाम का एक सटीक उदहारण

ग्रामीण क्षेत्रों में किम्वदंतियों का बोलबाला होता है. लेकिन जब कोई ऐसा व्यक्ति कोई किम्वदंती सुनाये जिनकी विश्वसनीयता संदेह से परे हो तब लोग उस किम्वदंती की कहानी को सच मानने लगते हैं. ऐसी ही एक किम्वदंती के अनुसार---
एक गाँव में चार भाइयों का एक संयुक्त किसान परिवार रहता था. उनके पास कुल आठ बिगहा जमीन थी. उस परिवार में खुशहाली भी थी. अचानक एक भाई बीमार पड़ा. पहले इलाज की व्यवस्था भी अच्छी नहीं थी. अन्य भाइयों ने भी शहर में ले जाकर उसकी इलाज कराने में रूचि नहीं ली. बीमारी बढ़ती गयी और एक दिन उसकी की मृत्यु हो गयी. मृत भाई का एक दो साल का लड़का भी था. उस अबोध बच्चे की माँ की सुन्दरता भी उसके लिये मुसीबत बन गयी क्योंकि उसके पति का उससे बड़ा भाई उसपर अश्लील नज़र तो रखता ही था पर एक दिन उसने अश्लील हरकत भी कर दिया।
वह औरत इससे तंग आकर अपने अबोध पुत्र को लेकर अपने नैहर चली गयी. उस अबोध बालक का लालन-पालन उसके मामा घर ही हुआ. तब तक वह अपने ममहर में ही वर्ग सात तक की शिक्षा ग्रहण कर ली थी. इसके आगे पढ़ने हेतु गाँव से पॉँच कोस दूर जाना पड़ता जो उसके आर्थिक वश नहीं था. जब वह बालक किशोर हो चला तो वह अपने मामा के खेतों में ही काम करने लगा. कुछ ही वर्ष बाद अपना देश आज़ाद हुआ और वह जवान हो चला. बुजुर्गों से उसके पिता और उसके जमीन-जायदाद के बारे में जानकारी मिलने लगी. उसे अपने मामा के खेतों में काम करने पर उसके हमउम्र लड़के उसे चिढ़ाने लगे कि जिसे बाप-दादा को दो बिगहा जमीन हो उसे दूसरे के खेत काम नहीं करना चाहिये। यह बात उस नवजवान को भी चुभने लगी.
इसी बीच उसके विवाह का एक रिश्ता भी आया. उस नवजवान ने अपनी शादी से इनकार कर दिया और अपनी माँ से अपने गाँव चलने का जिद करने लगा. वह अपनी माँ से बोला कि वह अपना विवाह अपने गाँव के पुश्तैनी घर से ही करेगा। उसकी माँ भी मान गयी. वह अपने मामा से कुछ रुपये लेकर अपने गाँव के अपने पुश्तैनी घर लौट आया. तबतक उसकी माँ के हिस्से का पुश्तैनी घर खण्डहर भी हो चला था. उस नवजवान ने अपने मामा के घर से लाये पैसे से उस एक कमरे के घर को किसी तरह रहने लायक बनाया। वह नवजवान अपने गाँव के बुजुर्गों से अपने स्वर्गीय पिता और अपनी जमीन के बारे में पता करने लगा. उसे पता चल गया कि दो बिगहा उसके हिस्से की जमीन है जिसे उसके तीनों चाचा ने आपस में बाँट लिया है.
बारी-बारी से उसने अपने तीनों चाचा से अपने हिस्से की जमीन माँगी। उसके तीनों चाचा के मन में बेईमानी घर कर गयी थी सो उन लोगों के टालमटोल शुरू कर दिया। उस नवजवान के जिद करने पर तीनों भाइयों ने अगले जेठ माह में उसके हिस्से की जमीन छोड़ देने की बात कही. इस पर वह नवजवान भी मान गया और अपने गाँव के दूसरे लोगों के खेतों में मजदूरी करके अपना गुजर-बसर करने लगा.
उस नवजवान के एक चाचा अपने में दलाली करने लगे थे. दलाली के क्रम में उनकी जान-पहचान कई पुलिस पदाधिकारियों से चली थी. अब वे थानेदार से और नजदीकी बढ़ाने के क्रम में चावल, घी, दही आदि भी पंहुचाने लगे थे. वे जब भी मौका पाते अपने नवजवान भतीजे के झूठी बुरी संगत की बखान करते रहते। संयोगवश एक गाँव में डकैती की एक घटना घट गयी. इस सुनहरा मौका पाकर वे थानेदार से उस डकैती में अपने नवजवान भतीजे की संलिप्तता बता दी और कुछ इलाके के बदनाम नये अपराधियों के नाम भी बता दिये। उस थाने का थानेदार भी लालची और निकम्मा था. पैरवी के बल पर वह थानेदार बन गया था.
उस थानेदार की थानेदारी में में डकैती की यह पहली घटना थी और वह किसी भी तरह इस डकैती की घटना का उद्भेदन करना चाहता था. इसी बीच उस दलाल ने उस डकैती में लूटे गये सामानों का पता लगाकर उससे मिलता-जुलता चार-पॉँच साड़ी, गहना और एक फुलहा लोटा बाजार से खरीदकर कर और उस लोटे पर डकैती के पीड़ित परिवार के एक सदस्य का नाम लिखवा दिया। मौका पाकर उस दलाल ने अपने नौजवान भतीजे के घर के पिछवाड़े छिपा दिया। अगले ही दिन उसने डकैती में लूटे गये सामानों के मिलने की पूरी सम्भावना उस थानेदार को बता दी.
उस थानेदार ने इस मामले में गहराई से जाँच करने के बजाय अपने दलाल की बात को ही सच मान कर दलाल के बताये अनुसार जगह पर छापेमारी कर दी. थानेदारजी भी डकैती में लूटे गये सामानों से मिलता-जुलता सामान और एक लोटा पर नाम लिखा पाकर बहुत खुश हुए. उन्होंने अपने मुक़दमे को और पुख्ता करने हेतु उन सामानों को दलाल के नवजवान भतीजे के कमरे से बरामदगी दिखा दी और उस नवजवान को गिरफ्तार कर लिया। गाँववाले भी आश्चर्यचकित रह गये. वह नवजवान और उसकी माँ गिरगिराते रह गयी लेकिन किसी ने भी उन दोनों की नहीं सुनी। डकैती का पीड़ित परिवार भी बरामद सामानों को अपने सामानों के रूप में पहचान लिया।
इस बीच उसकी विधवा माँ अपने हिस्से के दो बिगहा जमीन पर अपना अधिकार मांगने हेतु अपने समाज के गण्यमान लोगों से गुहार करती रही, लेकिन किसी उस विधवा की मदद नहीं की. उसने समाज के लोगों के द्वारा सुझाये गये प्रशासन के कई द्वार पर भटकती रही. लेकिन प्रशासन के किसी इकाई में उसकी जमीन पर उसके अधिकार की बात नहीं सुनी गयी. अंट में वह अपने किस्मत का लेखा समझ कर हार गयी.
न्यायलय में जल्दी ही उस डकैती के मामले की सुनवाई शुरू हुई. पैसा के अभाव में न्यायलय में उस नवजवान की कोई अच्छी पैरवी भी नहीं हुई. न्यायलय में उस दलाल चाचा, उसके बनाये गये एक दूसरे झूठे गवाह और पीड़ित परिवार की गवाही को सच मान लिया गया और उस डकैती के मामले में उस निर्दोष नवजवान को आजीवन कारावास की सजा सुना दी गयी. पैसा के अभाव और कही से मदद नहीं मिलने के कारण उस नवजवान ने ऊँचे न्यायलय में अपील भी नहीं की. एक तरफ अपने बेटे के जमीन के लेकर हुई दुश्मनी के फंसाये जाने पर उसकी रोते-बिलखते रहती तो दूसरी और उसका जवान बेटा जेल में रोते-बिलखते रहता। जेल के कैदियों और जेल के कर्मचारियों को उसकी निर्दोषिता की सच्चाई मालूम हो गयी. लेकिन व्यवस्था के आगे सभी लाचार थे.
उसी जेल में उसी फंसे जवान के इलाके के एक संपन्न किसान का एक जवान बेटा भी क्रोधवश किये गये गये हत्या के एक मामले में दो साल से आजीवन कारावास की सजा काट रहे थे. उनका जेल में बहुत दबदबा था. कैदियों और जेलकर्मियों ने उस निर्दोष जवान को उन्ही की सेवा में लगा दिया। उस जवान ने भी मान लिया कि किस्मत में यही लिखा था, वरना अपना विवाह रचाकर अपने मामा के यहाँ ख़ुशीपूर्वक नहीं रहता। उसकी माँ भी अपने नैहर जाने से इनकार कर दिया और ससुराल में ही दूसरे के घर मजदूरी कर अपना दुःखभरा जीवन बिताने लगी. उसने भी मान लिया कि उसके किस्मत में ज्यादा दुःख ही लिखा है.
जेल में वह जवान बहुत ही धार्मिक प्रवृत्ति का हो गया और अपना सात्विक जीवन बिताने लगा. वह जेल में रहकर अपने देश का कानून और व्यवस्था का अध्ययन करने लगा. जेल में एक बार कैदियों के बीच बलवा हो गया. वह अपनी जान की परवाह नहीं करते हुए बलवाइयों के बीच कूद कर बलवा शान्त करा दिया। उसके इस व्यवहार से खुश होकर जेलर ने उसकी सजा छः महीने कम करने की अनुशंसा कर डी. बलवाइयों ने भी उससे क्षमा माँगी। जेल में सभी कैदी उसे बाबा कहकर आदर देने लगे. किसी तरह समय बीता। पहले बड़े किसान जिनका नाम श्याम बाबू था, अपने चौदह साल की सजा काटकर रिहा हुए. पहले आजीवन कारावास को चौदह साल की सजा ही माना जाता था. अंगरेजों के समय से ही यह परम्परा चली आ रही थी. अंग्रेजों का मानना था कि परिवार और अपने समाज से दूर जेल में चौदह साल बिताने के बाद कोई दुबारा अपराध करने के योग्य नहीं रहता।
अच्छे आचरण और बलवा रोकने के कारण जेल प्रशासन ने उस फंसाये गये कैदी को एक साल पहले ही यानि तेरह साल की सजा काटने के बाद ही उसे रिहा कर दिया। जेल से छूटने पर वह बाबा सीधे अपने से एक साल पहले रिहा हुए बड़े किसान किसान यानि श्याम बाबू के पास पँहुचा। श्याम बाबू भी उसकी एक साल पूर्व रिहाई पर बहुत खुश हुआ. जेल में उसकी सेवा से तो वह पहले से ही प्रभावित था ही अतएव उसने उसे आगे जीवन बसर करने हेतु उसे अपनी जमीन में से दो बिगहा जमीन और वहीँ दो जन के रहने लायक एक अस्थाई माकन देने का प्रस्ताव कर दिया। वह सजायाफ्ता व्यक्ति भी जिसका नाम नकुल था अबतक समझ गया था कि उसके अपने जमीन पर अधिकार पाना इतना आसान नहीं है. अतः उसने इस प्रस्ताव को मान लिया। नकुल ने कुछ रुपये भी उन्ही से उधार ले लिये।
नकुल अब अपनी माँ को यहाँ लाने हेतु हेतु अपने गाँव चला. जब वह अपनी माँ के पास पहँचा तो उसकी बीमार माँ तो अपने बेटे को बढे हुए दाढ़ी-बाल में देखकर पहली झलक पहचान ही नहीं पायी; जब पहचानी तो उसकी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा. वह अपने बेटे को गले लगाना चाही लेकिन कमजोरी के कारण दिल के अरमान दिल में ही रह गया. काफी देर तक नकुल अपनी माँ का पैर दबाते रहे. फिर अपने एक मात्र जर्जर हो चले घर के कमरे को निहारता रहा. उसे खाने-पीने की कोई वस्तु नहीं मिली। वह अपने ही गाँव में एक दुकान का पता लगाते हुए वहाँ गया और आवश्यकता के अनुसार सामान ख़रीदा। वह जेल खाना बनाना और प्राथमिक उपचार तो सीख ही गया था. इन दोनों हुनरों में वह पारंगत हो चला था.
अपने घर आकर नकुल ने घर की सफाई किया और खाना पकाने में जुट गया. यह सब उसकी माँ भावाविभोर होकर निहारती रही. खाना पक जाने पर पहले नकुल ने अपनी माँ को खिलाया उसके बाद स्वयं भोजन किया। बीमारी के बावजूद ख़ुशी में उसकी माँ थोड़ा सा खाना खा ली. उसके बाद नकुल पड़ोस के गाँव एक वैद्यजी के पास गया और बीमारी के बारे में बताकर दवाई ले आया. कहते हैं न कि अपनों के हाथ से दवा खाने पर बीमारी जल्दी ठीक होती है सो नकुल की माँ भी जल्दी ही ठीक हो गयी. नकुल भी अपनी माँ की बीमारी का प्राथमिक उपचार मन लगाकर करता और अपनी माँ के कपडे भी साफ करता। नकुल की माँ नकुल की शादी जल्दी कराने की कामना करने लगी. उसने अपने गाँव और नैहर अपने बेटे की शादी का करा देने का आग्रह करने लगी. कुछ प्रस्ताव आये भी लेकिन नकुल के चाचा सभी को भड़का कर उसकी शादी काट देते।
नकुल को अपने ही गाँव में तरह-तरह के के ताने सुनने को मिलने लगा. उसके लाख सफाई देने पर भी उसे कोई निर्दोष मानने को तैयार नहीं हुआ. ताना सुनसुनकर कर उसके मन का जेल में बना साधु स्वभाव जागने लगा. अब नकुल ने मान लिया कि विवाह कर अब वह अपना घर नहीं बसा पायेगा। नकुल ने अपनी को अपने मददगार श्याम बाबू के बारे में विस्तार से बताया और उसे वहीँ चलने को कहा. उसकी माँ ने अपने बेटे को समझाया कि और जहाँ और जिस घर में व्याह कर आती है उसकी अर्थी वहीँ से उठती है. उसने अब कहीं दूसरे गाँव में जाने से इनकार कर दिया।
अब नकुल को जीवन की जटिलता और सांस्कृतिक मान्यताओं ने उलझन में डाल दिया। एक तरफ ग्रामीणों के ताने थे तो दूसरी तरफ जिन्दगी की उलझने। अब उसके मन में अपने चाचा लोगों से और उन सबसे बदला लेने की भावना उठने लगी जिन लोगों उसकी जिन्दगी को तबाह किया है. लेकिन बदला लेने के क्रम में उसे अपराध करना पड़ेगा जो इतना आसान नहीं। अपराध करने पर फिर से उसे जेल की सजा काटनी पड़ेगी जिसके लिये अब उसका शरीर तैयार नहीं है. अब उसके मन में आतंरिक संघर्ष चलने लगा. वह मन ही मन कई तरह के अपराध की योजना बनाने लगा. उसका साधू मन सीधा-सीधा उपदेश देने लगा कि अगर तुम चुप बैठ जायेगा तो फिर कोई तुम्हारे चाचा जैसा व्यक्ति अपने सगा को किसी मामले में जेल भेजवाकर उसकी सम्पत्ति हड़पते रहेगा। फिर कोई पुलिस वाला लालचवश किसी निर्दोष को जेल भेजता रहेगा।
कहते हैं न कि जो जैसा सोचता है उसे सपना भी वैसा ही आता है. एक दिन उसे सपना आया कि उसका जन्म ही इसलिये हुआ है कि वह सुधारने हेतु निर्दोष को फंसाने वालों को फंसाये। ऐसा करना पूण्य का कार्य होगा। सपना टूटा तो वह अपने को और उलझा हुआ पाया। अब उसके मन में कई तरह की आपराधिक भावनायें पनपने लगीं। वह अपने चाचा को किसी मामले में फंसा भी देना चाहता था और साथ ही साथ बच भी जाना चाहता था. कहा जाता है न कि जिसके मन में बदले की आग लगी हो उसमे फूल नहीं खिलते। इसी उधेड़-बुन में उसने अपनी माँ की ही हत्या कर अपने तीनों चाचा को फंसाने की एक जघन्य कुकृत्य करने का निर्णय कर लिया। उसको लगा कि इसी से उसकी माँ को भी इस दुनिया से मुक्ति मिल जायेगी।
नकुल अब अपने उक्त निर्णय को क्रियान्वित करने हेतु तयारी में जुट गया. वह बाजार से एक कुदाल खरीद कर ले आया और चुपके-चुपके उसे धारदार बनाते रहा. वह चाहता था कि एक ही वार में उसकी माँ का गर्दन कट जाये ताकि मरने में उसे ज्यादा कष्ट न हो. खेती का दिन भी आ ही गया था. एक दिन वह अपने गर्दन के पिछले भाग पर एक रस्सी से रगड़-रगड़ कर पर नकली जख्म का निशान बनाया। उसके बाद वह अपने चाचा के पास गया और उनको चुनौती दी कि वह आज अपने खेत में खेती करने जा रहा है अगर उनमे हिम्मत है तो हल-कुदाल लेकर उसके खेत पर आये. फिर उसने अपनी माँ को उसका खाना लेकर खेत पर आने को कहा. वह अपना कुदाल छिपाकर अपने एक खेत पर चला गया. चुनौती स्वीकार कर उसके तीनों चाचा भी पंहुच गये और उसे खेत को न कोड़ते को कहते रहे. नकुल चुपचाप अपनी माँ के आने की प्रतीक्षा करते रहा.
जब उसकी माँ खाना लेकर आ गयी तो नकुल अपने चाचा लोगों का जोर-जोर से प्रतिकार करने लगा. इस हल्ला-गुल्ला पर कुछ दूर खेतों में काम कर रहे किसान और मज़दूर दूर से ही देखने लगे. इसी बीच उसने अपनी माँ को खाना निकालने को कहा. जैसे ही उसकी माँ खाना निकालने को झुकी वैसे ही नकुल ने अपनी माँ के गर्दन पर कुदाल से वार कर दिया। एक ही झटके में उसकी माँ का गर्दन कट गया और उसकी माँ का शरीर जमीन पर गिरकर छटपटाने लगा; खून भी काफी बहा और वहाँ की जमीन भी खून से लथपथ हो गयी. नकुल अब जोर-जोर से चिल्लाने लगा. यह अप्रत्याशित दृश्य देखकर उसके तीनों चाचा वहाँ से भाग चले. उनके भागने पर आसपास के किसान और मज़दूर वहाँ जुटने लगे. अब नकुल भी जोर-जोर से अपनी माँ के शरीर से लिपटकर रोने का नाटक करने लगा.
इस हत्या की बात सुनकर उसके गाँव का चौकीदार दौड़ते हुए थाना गया और वहाँ हत्या की सूचना दी. चौकीदार ने भी इस हत्या को सच मान लिया। जल्दी ही पुलिस के लोग हत्या वाले स्थल पर पँहुच गये और सभी औपचारिकतायें पूरी कर नकुल की माँ के शव को पोस्ट मोर्टेम और नकुल के गर्दन पर के जख्म की जाँच हेतु जिला अस्पताल भेज दिये। नकुल के गर्दन के पिछले भाग के जख्म लाठी द्वारा कारित ही लगता था.
पोस्ट मोर्टेम बाद शव को नकुल अपने घर लाया और अपनी माँ की इच्छानुसार उसकी अर्थी को लेकर पुश्तैनी श्मशान घाट पर उसका दाह-संस्कार कर दिया। तेरहवें दिन नकुल ने अपनी माँ का श्राद्ध-कर्म का रश्म भी पूरा कर दिया। किसी को भी नकुल के इस कुकृत्य पर कोई सन्देह नहीं हुआ.
श्राद्ध के दूसरे ही दिन नकुल अपना गाँव छोड़कर श्याम बाबू के यहाँ पँहुच गया लेकिन उनसे भी उसने सच्चाई नहीं बतायी। वहाँ नकुल सबों की सहानुभूति का पात्र बन गया. वहाँ पर नकुल श्याम बाबू के खेतों में कामकर और उनकी सेवाकर अपना समय बिताने लगा. उसे पता चला कि जल्दी ही उस हत्या के मामले में उसके तीनों चाचा गिरफ्तार कर लिये गये. उनकी निर्दोषिता पर भी पुलिस को विश्वास नहीं हुआ और मामला न्यायलय पँहुच गया.
श्याम बाबू ने भी इस मामले में नकुल की पूरी मदद की. कुछ ही साल में जिला अदालत में मामला खुला और गवाही गुजरी। कुछ गाँववालों ने भी चश्मदीद गवाह के रूप में अपनी गवाही नकुल के तीनों चाचा के विरुद्ध गवाही दी. जिला अदालत से तीनों आरोपियों को आजीवन कारावास की सजा सुनायी गयी. जल्दी ही नकुल के तीनों चाचा उसी जेल में पहुँच गये जहाँ नकुल ने अपनी जवानी बितायी थी. एक दिन नकुल भी उस जेल पर गया. उसके पुराने साथी कैदियों ने नकुल की खूब खातिरदारी की. नकुल ने उनलोगों से नकली ही सही लेकिन बहुत दर्द भरी कहानी सुनायी। कैदियों ने उसके उस चाचा का नाम पूछा जिसने उसकी माँ की हत्या की थी. नकुल ने अपने उस चाचा का नाम बता दिया जिसने उसे डकैती के झूठे आरोप में फँसाया था.
उसी दिन नकुल श्याम बाबू के यहाँ लौट आया. कुछ दिन के बाद श्याम बाबू को मालूम चला की जेल में कैदियों ने नकुल के एक चाचा की कम्बल-कुटाई जमकर की है जिस कारण उन्हें इलाज हेतु अस्पताल में भर्ती कराया गया है. इस बात को श्याम बाबू ने नकुल को बतायी। नकुल शान्त रहा. उसकी प्रतिक्रिया थी कि यह तो होना ही था. अब श्याम बाबू भी लोगों को उपदेश देने लगे कि हर व्यक्ति को अपने पापों की सजा इसी जीवन में भुगतना पड़ता है.
एक दिन एकान्त में नकुल ने श्याम बाबू से उसकी माँ की हत्या की सच्चाई बतायी और रोने लगा. उसने इस पाप के प्रायश्चित के उपाय भी पूछे। श्याम बाबू तो इस बात को सुनकर दंग रह गये. अब श्याम बाबू भी नकुल से डरने लगे. एक दिन नकुल ने श्याम बाबू से उस थानेदार को भी जेल भेजवाने की इच्छा प्रकट की जिसने उसे अनावश्यक रूप से लालचवश पैसा लेकर डकैती में झूठा फँसाया था. श्याम बाबू को अब और भी डर लगने लगा. अब तो श्याम बाबू को उसे मदद करने पर पछतावा भी होने लगा. श्याम बाबू अब नकुल से छुटकारा पाने के उपाय तलाशने लगे.
जल्दी ही श्याम बाबू को नकुल से छुटकारा का एक उपाय सूझा। उन्होंने नकुल को बताया कि मातृहन्ता के लिये सबसे अच्छा पश्चाताप है किसी बेसहारा बूढी विधवा को अपनी माँ मानकर उसकी सेवा करना। चूँकि नकुल प्राथमिक उपचार और खाना बनाना अच्छी तरह से जानता है अतः किसी बेसहारा बूढी विधवा की सेवा वह अच्छी तरह कर सकता है. नकुल वेश-भूसा से तो साधू लगता ही है अतः ऐसे में किसी बेसहारा बूढी विधवा का पता लगाना बहुत कठिन नहीं है. जहाँ तक जीवन-यापन का प्रश्न है उसके लिये पाँच कट्ठा जमीन कहीं भी खरीदने हेतु वे नकुल को पैसा देने को तैयार हैं. नकुल ने श्याम बाबू की दोनों बातों को मान लिया और मात्र पाँच सौ रुपये लेकर श्याम बाबू का पैर छू कर उनका आशीर्वाद लिया और वहाँ से विदा लिया। नकुल के जाने के बाद श्याम बाबू ने राहत की सांस ली.
नकुल अब उस थानेदार का पता लगाने में जुट गया जिसने उसे लालच वश डकैती के एक मामले में झूठा फंसाकर आजीवन कारावास की सजा दिला दी थी. आखिरकार एक माह के अन्दर ही नकुल अपने लक्ष्य के समीप पँहुच गया. उस थानेदार की नौकरी भी अब तीन साल ही बची थी. इसलिये उन्ही के कार्यक्षेत्र में नकुल ने शहर के निकट ही एक पाँच कट्ठा की जमीन एक साल की दो सौ रुपये में बन्दोबस्ती पर एक साल के लिये ले लिया और आधा पैसा अग्रिम जमा कर दिया। शीघ्र ही उसने उसी खेत पर एक कच्चा कुआँ और झोपडी बनाकर वहीँ रह कर सब्जी की खेती प्रारम्भ किया। उसका मानना था कि अगर सब्जियों की बिक्री और उत्पादन दोनों पर पकड़ हो तो सब्जी की खेती बहुत लाभदायक है. उसे यह भी पक्का विश्वास था कि इस तरह से वह अपने लक्ष्य को आसानी से जेल भेजवा पायेगा।
तीन महीने के अन्दर ही नकुल के खेत में सब्जी की पहली फसल तैयार हुई. नकुल में अब शारीरिक ताकत तो अब ज्यादा बची नहीं थी लेकिन उसका दिमाग अभी भी खूब चलता था. उसने एक मजदूर सालभर के लिये दैनिक मजदूरी पर रख लिया। नकुल के पास अब श्याम बाबू का दिया हुआ पैसा भी ख़त्म हो चला था. वह मजदुर के माथे पर सब्जी लेकर शहर के एक मोहल्ले में पँहुच कर एक मोड़ पर बैठ गया. चूँकि वह एक दिन पहले ही बाजार से अपनी सब्जी का भाव जान चुका था अतः बाजार भाव पर सब्जी बेंचने लगा. वह स्थानीय लोगों का विश्वास प्राप्त करने हेतु लगभग दस प्रतिशत सब्जी लांछा में दे देता। स्तानीय क्रेता भी नकुल के इस स्वभाव से बहुत खुश होने लगे. पहला दिन था अतः अपना बाजार जमाते हुए पूरी सब्जी बेंचने में लगभग एक घंटे लग गये. अब नकुल को श्याम बाबू के पैसे की जरुरत नहीं थी. सब्जी के उत्पादन और विक्री पर नकुल का पूरा नियन्त्रण था. जब नकुल को अपने उस मजदूर पर विश्वास हो चला तो सब्जी की विक्री उसी के हवाले कर दिया।
अब सब्जी की खेती से समय मिलने पर वह अपने लक्ष्य से मिलने का प्रयास करने लगा. एक दिन उसे सफलता मिल गयी. वह थानेदार से मिला और अपने दिमाग पर जोर देकर उसे पहचान लिया, लेकिन थानेदार नहीं पहचान सका. नकुल ने उस थानेदार से एक भूमि सम्बन्धी काल्पनिक विवाद पर अपने को एक काल्पनिक व्यक्ति द्वारा सताये जाने की शिकायत की. थानेदार तो लालची था ही लेकिन काम के एवज में पैसा(घूस) लेने का पुराना तरीका यानि दलाल के मार्फ़त ही वह अपनाये हुए था. सो उसने नकुल को अमुक दलाल से मिलने को कहा. नकुल ने अभी उस दलाल से मिलना उचित समझा क्योंकि उसे शिकायत पत्र की रशीद चाहिये थी. अतः इस कार्य हेतु वह कचहरी के एक ताईद(वकील का निजी क्लर्क) से मिला और उससे अपनी भू-विवाद की दर्दभरी काल्पनिक कहानी सुनायी। ताईद को तो पैसे से मतलब था अतः उसने नकुल को बीस रुपैया लेकर कल आने को कहा. कुछ मोलतोल के बाद पन्द्रह रुपये में बात पक्की हो गयी.
अगले दिन पन्द्रह रुपये लेकर नकुल उस ताईद के पास पँहुचा और उसे सब रपये दे दिये। उस ताईद ने एक साधारण वकील साहेब पकड़ा और उन्हें तरह रुपये थमाकर नकुल का काम करा देने को कहा. उस समय चार-पाँच वकीलों को कोई चालू ताईद ही काम दिलवाता था और तरह या पन्द्रह रुपये ज़माने में काफी थे. वकील साहेब समझ गये कि ताईद अपने हिस्से का दो रुपये रख लिया है. उस ज़माने में वहाँ भाड़े के गवाह भी मिलते थे. वकील साहेब नकुल बताये अनुसार एक कोर्ट नालिशी बनवाकर एसडीओ साहेब के कोर्ट में पेश कर दिये। कोर्ट ने इस नालिशी को नकुल के लक्ष्य के पास ही उचित कायवाई कर प्रतिवेदन देने हेतु भेजवा दिया। नकुल को तो सिर्फ दस्तावेजी सबूत से ही मतलब था. कोर्ट का चपरासी उस नालिशी को सही जगह पंहुचाने के लिये नकुल से माँगा। नकुल ने भी अपने नालिशी की एक प्रति पर कोर्ट का मुहर और हस्ताक्षर प्राप्त कर चपरासी को दो रुपये देकर चलते बना.
दो दिन बाद नकुल उस दलाल से मिला जिसके बारे में थानेदार ने बताया था और अपना काम कराने को कहा. दलाल थानेदार साहेब से मिला और बाहर आकर नकुल से काम करने के एवज में पैसा(घूस) का मोलतोल करने लगा. अन्त में मामला दो सौ रुपये में तय हुआ. दलाल पुनः थानेदार साहेब के पास जाकर सब बात बतायी। थानेदार तो लालची था ही सो उसने सांकेतिक भाषा में कहा कि यह तो साधारण श्रेणी का टिकट है उसे तो फर्स्ट क्लास का टिकट चाहिये। दलाल वापस आकर नकुल को बताया कि साहेब इतना में नहीं मान रहे हैं और काम कराने का पूरा साढ़े तीन सौ रुपये लगेंगे जिसमे से पच्चास रुपये उसी का हिस्सा होगा। नकुल मान लिया और एक सौ रुपया देकर पूरा रूपया का प्रबन्ध करने हेतु दस दिन समय माँगा। रूपया लेकर दलाल थानेदार साहेब के पास गया और थोड़े ही देर वापस आकर नकुल से बोला कि साहेब मान गये हैं लेकिन पूरा पैसा मिलने पर ही काम होगा। नकुल मन ही मन खुश हो रहा था. नकुल अपने झोपड़ी के लिये रवाना हो गया.
अगले सुबह ही नकुल यहाँ से करीब चालीस कोस दूर भ्रष्टाचार निरोधक शाखा का कार्यालय हेतु बस से प्रस्थान कर गया. दोपहर होते-होते पता लगाकर वह नियत कार्यालय पँहुचा और भ्रष्टाचार की एक शिकायत की मंसा वहाँ के कर्मियों को बताई। एक कर्मी ने उसे शिकायत दर्ज करने वाले पदाधिकारी के पास पँहुचा दी. नकुल ने बड़ी होशियारी दुःखी और लाचार बनकर अपने लक्ष्य के विरुद्ध शिकायत दर्ज करायी। साथ ही उसने एसडीओ कोर्ट में दर्ज अपनी शिकायत की एक हस्तलिखित सच्ची प्रतिलिपि और कोर्ट का सम्बन्धित प्रविष्टि का विवरण दिया। एक घण्टे के अन्दर ही सक्षम अधिकारी द्वारा नियमानुसार एक वॉचर की प्रतिनियुक्ति हो गयी. उस वॉचर को निर्देश मिला कि वह शिकायतकर्ता नकुल के आरोपी थानेदार के पास जाकर निगरानी कर अपना प्रतिवेदन दो दिन में दे दे. वह वॉचर उसी दिन नकुल के साथ चल दिया। देर शाम को दोनों सम्बन्धित थाने के पास पँहुचे। नकुल ने वॉचर से कल सुबह थानेदार के पास चलने और आज की रात उसकी झोपडी में विताने का अनुरोध किया। वॉचर ने इस अनुरोध को स्वीकार कर लिया।
अगले दिन सुबह ही नकुल वॉचर को अपना रिश्तेदार बताते हुए अपने लक्ष्य से मिला। नकुल ने नाटकीय अन्दाज में में थानेदार से विनती की कि उसे कोई कर्ज नहीं दे रहा है सो उसका काम अग्रिम के रूप में दिये गये एक सौ रुपये में ही कर कर दिया जाये। थानेदार साहेब नहीं माने तब नकुल ने उनसे दूसरी विनती एक सप्ताह और समय देने की की ताकि और रुपये का प्रबन्ध किया जा सके. थानेदार साहेब मान गये।  यह सब नज़ारा वॉचर चुपचाप निहारता रहा. दोनों थानेदार साहेब से विदा लेकर वहाँ से चल दिये। कुछ दूर जाने के बाद वॉचर ने नकुल को एक सप्ताह बाद उसके कार्यालय में आने को कहा. वह वॉचर शीघ्र ही अपने कार्यालय जाने हेतु बस पकड़ लिया। नकुल भी अपनी झोपडी पर चला आया और अपने काम में जुट गया.
छः दिन के बाद ही नकुल वॉचर के कार्यालय पँहुच गया. नकुल को वहाँ ऐसा लगा कि पदाधिकारी उसी का की प्रतीक्षा कर रहे हों. वॉचर के रिपोर्ट पर नकुल की शिकायत पर उस थानेदार के विरुद्ध भ्रष्टाचार की क़ानूनी प्राथमिकी दर्ज कर ली गयी थी और छापामार दस्ता भी बना दिया गया था. नकुल को सक्षम अधिकारी द्वारा दस्तखत किये गये और रंग लगाये गये दो सौ टकिया नम्बरी नोट दो सौ रुपये एक लिफाफा में भर कर दिये गये. उसे निर्देश दिया गया कि लिफाफा से कुछ पहले ही दोनों नोटों को निकाल ले और आरोपी थानेदार को देना है. अगर आरोपी उन नोटों को स्वीकार कर ले तब बाहर आकर पास ही छिपे छापामार दल को बता दे. छापामार दल नकुल को लेकर देर रात प्रस्थान किया और अगले सुबह आरोपी के थाना के करीब तीन सौ गज पहले ही नकुल को गाड़ी से उतार दिया और आगे निर्देशानुसार काम करने को कहा. नकुल अब पक्का अपराधी बन चुका था. उसे कोई घबड़ाहट नहीं थी क्योंकि दृढ़निश्चयी था.
नकुल थाने के पहले लिफाफा खोला और रूपया लेकर थानेदार के आवास पँहुच गया. नकुल ने दोनों हाथ जोड़कर आरोपी थानेदार से बोला कि साहेब रूपया का प्रबन्ध हो गया है इसे स्वीकार कर लीजिये और उसका काम कर दीजिये। थानेदार साहेब नकुल के दिये दोनों नोट ले लिये और बोले कि कल अपना गवाह लेकर आना; काम हो जायेगा। नकुल थानेदार साहेब से विदा लेकर छपामार दल के पास आया और सारी बातें बता दी. छापमार दल के लोग फुर्ती दिखाते हुए घूस का दोनों वही नम्बरी बरामद कर लिये। सभी क़ानूनी खानापूर्ति करते हुए आरोपी थानेदार छापामार दल द्वारा गिरफ्तार कर लिये गये. तबतक आसपास में यह खबर बिजली की तरह फ़ैल गयी. उसके बाद आरोपी के कार्यालय की तलाशी भी ली गयी और वहाँ से नकुल का कोर्ट नालिशी और सम्बन्धित रजिस्टर जप्त किये। शीघ्र ही छापामार दल आरोपी और नकुल को लेकर अपने कार्यालय के लिये प्रस्थान कर गया.
दो दिन बाद नकुल अपनी झोपडी पर लौट आया. उसका मिशन पूरा हो जाने पर उसका मन हल्का हो गया था. अब वह भूस्वामी के साथ किये गये सौदे का सम्मान करने और कुछ और पैसा(पाँच सौ रुपये से ऊपर) का प्रबन्ध करने हेतु जमकर खेती करनी जरुरी थी. क्योंकि अब उसे जल्दी ही अपने अगले मिशन "किसी बेसहारा बूढी विधवा को अपनी माँ मानकर सेवा" करने का था. अब उसे कोई अन्य खर्च भी नहीं करने थे. अब वह सब्जी की खेती और उसके बिक्री में जुट गया. अब उसे कमाये गये पैसे की चोरी या लूट का डर सताने लगा क्योंकि वह एक निर्जन स्थान पर रहता था. उसे लगा कि अपने मुक़दमे में कचहरी का चक्कर तो अगले तीन-चार तक तो लगाना ही पड़ेगा। उसे यह भी विश्वास था कि उसका अगला लक्षय जेल यात्रा कर रहे थानेदार के कचहरी के दो-तीन मील के अन्दर मिल ही जायेगी। निस्वार्थ सेवा हेतु उसे वहीँ कहीं एक सब्जी का खेत भी कई वर्षों के लिये बन्दोबस्ती पर लेना पड़ेगा।
एक महीना बाद जब कुछ पैसा इकठ्ठा हो गया तो वह कचहरी के पास के एक बैंक में खाता खुलवा लिया। बैंक वाले ने बताया कि उसके खाता का तीन महीने के अन्दर वहीँ किसी खाताधारी से परिचय भी करने पड़ेगा। उसने वॉचर साहेब से सम्पर्क किया तो पता चला कि उनका खाता उसी बैंक में है. अब वह निश्चिन्त हो गया कि उसका काम हो जायेगा। इसके बाद हर पन्द्रह दिन पर ही वहाँ जाने लगा. पहले वह कुछ सब्जी वॉचर साहेब के यहाँ पँहुचा देता और फिर तबतक जमा पैसा बैंक में जमा कर देता। अब उसे लगा कि उसके अगले लक्ष्य की तलाशी में एक सारंगी की आवश्यकता होगी। सो अगली बार कचहरी वाले शहर से एक सारंगी खरीद लाया। सारंगीवादन से उसका एकांकीपन भी दूर होने लगा. नकुल अपने धुन का पक्का तो था ही सो जल्दी वह अच्छा सारंगी बजाने लगा. कहते हैं न कि छोटे-छोटे नियमित उपहार भी कुछ कार्य करा देता है. इसी सिद्धांत पर वॉचर साहेब से अपना बैंक खाता को "परिचित" करा लिया।
अब नकुल जब भी बैंक आता तो अपना पैसा जमा करके उस शहर के आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों में सारंगी बजाते हुए अपने अगले लक्ष्य की तलाशी में जुट जाता। इस क्रम में उसे गाँव में रात में ठहरना भी पड़ता। कुछ ही महीनों के प्रयास से उसका तीसरा लक्ष्य लगभब मिल ही गया, लेकिन नकुल अपना पूर्व की खेती की बंदोबस्ती का वादा पूरा कर लेना चाहता था. बंदोबस्ती की समय-सीमा पूरा होने के पहले ही नकुल भूस्वामी का बकाया एक सौ रूपया चुकता कर दिया और खेत छोड़कर अन्यत्र जाने की अपनी इच्छा बतायी। नकुल ने शेष पन्द्रह दिन की सब्जी का मालिकाना हक़ उस मजदूर को दे दिया। नकुल सबों से विदा लेकर अपने नये गन्तव्य पर प्रस्थान कर गया.
नकुल अपने नये लक्ष्य वाले गाँव जाकर वहाँ के मुखिया से मिला और अपनी इच्छा प्रकट की कि वह अमुक बूढी विधवा को अपनी माँ मानकर उनकी सेवा करना चाहता है. उसने यह भी स्पष्ट किया कि उस विधवा की चल-अचल सम्पत्ति से इसको कोई मतलब नहीं है. उसने मुखियाजी को यह भी बताया कि वह खाना बनाने और प्राथमिक उपचार यानि मरहम-पट्टी करना भी भली-भांति जानता है और अनुमति मिलने पर उसी गाँव में किसी उचित स्थान पर प्राथमिक उपचार केन्द्र भी खोलना चाहता है. अनुमति मिल जाने के बाद शहर के कुछ निकट वह बन्दोबस्ती पर पाँच कट्ठा जमीन लेकर उसी जमीन पर सब्जी उपजा कर अपनी आजीविका चलावेगा। उसने मुखियाजी से आगे निवेदन किया कि वे अपने गाँव वालों और उस बुढ़िया से मिलकर कोई जल्दी निर्णय कर लेते तो अच्छा रहता अन्यथा उसे अपना मिशन पूरा करने हेतु उसकी माँ के समतुल्य किसी विधवा की तलाश में आगे जाना पड़ेगा।
मुखियाजी ने नकुल साधू के उक्त सभी प्रस्ताव गाँव वालों और उस बुढ़िया के समक्ष रखा. मामूली हिचकिचाहट के बाद गाँव वालों और उस बुढ़िया ने नकुल साधू के प्रस्ताव पर अपनी सहमति दे दी. मुखियाजी ने भी गाँव वालों और उस बुढ़िया के सामने ही इनपर अपनी अनुमति दे दी. नकुल साधू ने सभी के सामने उस बुढ़िया को अपनी माँ मानते हुए उसका पैर छूकर आशीर्वाद लिया। वह बुढ़िया भी इस अप्रत्याशित घटना से बहुत खुश थी. सभी गाँव वालों ने भी नकुल साधू को उसके कार्य में भरपूर सहयोग किया। गाँव वालों और उस बुढ़िया ने उससे अनुरोध किया कि इसी गाँव में वह कोई जमीन लेकर सब्जी की खेती करे और गाँव वाले ही उसके द्वारा उपजायी गयी सब्जियों को ईमानदारी से शहर में उसका पैसा चुका देंगे।
पहली रात तो नकुल साधू ने अपने पैसे से सामान खरीदकर और खाना बनाकर अपनी नयी माँ के साथ वहीँ सोया। अगले सुबह उसके घर और कपड़ों की सफाई की. वह बूढी औरत तो पहले से किसी तरह अपना खाना बना ही लेती थी. वह किसी साधू से खाना बनवाना उचित नहीं समझती थी. गाँव वाले भी ऐसा ही चाहते थे. उनका कहना था कि जबतक बुढ़िया शरीर चल रहा है उसे खाना बनाने दीजिये। मुखियाजी चाहते थे कि नकुल साधु उनके घर रात्रि विश्राम करे. नकुल साधू ने मुखियाजी को समझाया कि किसी साधू के लिये किसी के घर में ठहरना वर्जित है; वह उस बूढी औरत के यहाँ इसलिये ठहरे थे क्योंकि वह उसे अब अपनी माँ मान चुके हैं और आगे भी जरुरत पड़ने पर रात्रि-विश्राम करते रहेंगे।
जल्दी ही उसी गाँव उन्हें तीन साल की बन्दोबस्ती पर दो सौ रुपये वार्षिक पर एक पॉँच कट्ठे की जमीन मिल गयी. वह शहर से प्राथमिक उपचार का सामान खरीद लाया। गाँव वाले इतनी बड़ी मात्रा में प्राथमिक उपचार का सामान देखकर बहुत खुश हुए. उन सामानों में लगभग एक पसेरी साबुत हल्दी और आधा सेर चूना देखकर एक व्यक्ति ने पूछा कि हल्दी और चूना का क्या उपयोग? नकुल साधू ने विनम्रतापूर्वक उत्तर दिया कि इस क्षेत्र में लोगों के हाथ-पैर में मोच आने की बहुत घटनायें होती हैं; उसी में हल्दी-चूना का लेप लगाया जायेगा। इस उत्तर से वहाँ उपस्थित सभी लोग संतुष्ट हो गये. अगले ही दिन गाँव वालों ने श्रमदान से एक उचित स्थान पर प्राथमिक उपचार केन्द्र बना दिया। उसी गाँव का एक व्यक्ति प्राथमिक उपचार केन्द्र एक सहायक भी बन गया. नकुल साधू अब लगभग आधा गृहस्थ हो चला. उसकी सभी इच्छायें अब पूरी हो चली थीं. उसके मन में संतोष और शान्ति थी तथा चेहरे पर प्रसन्नता। अब वहाँ एक समाज सेवक और मातृ-सेवक के रूप में नया नकुल था.
कुछ शब्दों के अर्थ 
1. बिगहा:- जमीन के क्षेत्रफल की एक इकाई(बीस कट्ठा = एक बिगहा, लेकिन अलग-अलग इलाकों में एकड़ और डिसमिल में बदलने पर अलग-अलग परिणाम आते हैं. किम्वदंती वाले इलाके में एक एकड़ = बाइस कट्ठा)
2. पसेरी = वस्तुओं के वजन मापने की पुरानी इकाई( एक पसेरी = लगभग साढ़े चार किलो ग्राम) 
नोट:-  इसका अगला भाग विशुद्ध रूप से काल्पनिक होगा। उसमे नकुल साधू को कैदी-सुधारक के रूप में निरूपित किया जायेगा।पास के बड़े जेल में उसके प्रवचन हो होंगे। प्रवचन के शीर्षक बदला, क्रोध, लालच, शीघ्र धनी होने की लालसा, न-आसक्ति, कुसंगति आदि होंगे। ये सभी शीर्षक अपराध करने को उत्प्रेरित करते हैं. इसके अलावे "अपराध से प्राप्त धन का खर्च", "हूनर  और पुनर्वास" आदि पर भी चर्चा होगी। अगले भाग को ubhartabharat.com पर प्रकाशित किया जायेगा। पाठकों के अनुरोध पर अन्य टॉपिक्स भी प्रवचन में जोड़े जा सकते हैं. 
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