बंटते हैं लोग, बांटने वाला चाहिये। चुनाव की एक पुरानी रणनीति!

             Only for Adults who understand divisive politics. 

     विगत एक हजार वर्षों से राजा, सम्राट और अंग्रेज हमारे समाज को बांटते रहे हैं. साशक-वर्ग भली-भांति यह जनता है कि आर्थिक हित अन्य हितों पर भारी पड़ता है और हमलोग जल्दी ही किसी पर विश्वास कर लेते हैं. साशक-वर्ग अपने तरफ़दारों को सरकारी सुविधायें बाँटते रहा है और जो इन सुविधाओं का वास्तविक हकदार होता है उनमे निराशा का भाव पनपते रहा है और उनमें दूरियां बढ़ती रही हैं.
     1967 से पैसे वाले नेता समाज को जातियों में और जातियों को उपजातियों में बांट कर चुनाव जीतते रहे हैं. यह पुरानी रणनीति हो सकता है, लेकिन इसे आनेवाले चुनावों में भी आजमाया जा सकता है. पैसे वाले नेतागण अपने कमरों और होटलों में बैठकर सामाजिक, क्षेत्रीय, जातीय और उपजातीय नेताओं से सेटिंग कर चुनाव जीत जाते हैं. चुनावी जनसभायें तो आम जनता के बीच अपनी उपस्थिति दर्ज कराने मात्र के लिये होती हैं. मैंने इस नीति के दुष्परिणामों को देखा है अतः मैं इसे नयी पीढ़ी के युवकों और युवतियों को बताना चाहता हूँ. पाठक इस पर विश्वास करने के पहले इसे स्वयम् भी जाँच लें.
बाँटने के तरीके:- 
1.क्षेत्रीय आधार पर पूर्व से बने संगठनों या राजनैतिक दलों के लालची नेताओं को बढ़ावा
2. जातीय आधार पर बने संगठनों के नेताओं को बढ़ावा
3. उपजाति के आधार पर उभरने वाले कट्टर पंथी नेताओं को बढ़ावा
4. डम्मी प्रत्याशियों को खड़ा करना:- इस तरह के प्रत्याशियों को वोट कटवा भी कह सकते हैं
    Dummy Candidates in Elections
5. जातीय चुटकुले(Ethnic Jokes):- अंग्रेज लोग हम भारतीयों को इस तरह के जातीय चुटकुलों को गढ़वा कर और उन्हें क़स्बा-देहात में प्रचार कराकर लोगों को सुनाते रहे थे और हम भारतीय खूब आनन्द  रहे थे. लेकिन जिस जाति पर कटाक्ष होता था उस जाति के लोग मन ही मन अपमानित अनुभव कर रहे थे. इस तरह हमलोगों में दूरियां बढ़ती चली गयी। इस रणनीति को धनी प्रत्याशियों ने अपना लिया है.
     छुट भैय्ये परजीवी नेतागण गाली-ग्लोज, धमकी और पुरानी सच्ची या मनगढंत कहानियाँ का सहारा लेकर एक दूसरे के प्रति नफरत फैला कर समाज में दूरियाँ बढ़ाते हैं. ये लोग इस कार्य के लिये देहाती इलाकों में व्यंग्य और कटाक्ष का भी उपयोग करते हैं. अभी भी सरदार पर जोक बनाओ इससे सरदारजी और उनके चाहने वाले चिढ़ेंगे; बिहारी पर जोक बनाओ और सुनाओ बिहार के लोग और उनके चाहने वाले चिढ़ेंगे। चिढ़ हुआ व्यक्ति चिढ़ाने वाले व्यक्ति के साथ अधिक दिनों तक एकता बनाये नहीं रख सकता। इसी तरह किसी भी धर्म, राज्य, इलाका, जाति और उपजाति के लोगों पर जोक बनाकर और उन्हें सुनाकर; उन्हें चिढ़ाकर समाज को बाँटने की प्रक्रिया चलती रही है और आगे भी चलते रह सकती है. 
6. तिलक-दहेज़ प्रथा और जमीन की खरीद-बिक्री भी हमें बांटती है:- प्रायः लड़की के पिता अपनी पुत्री के लिये उसकी योग्यता के अनुरूप दस लड़के वालों के यहाँ जाता है. मान लीजिये काफी मशक्क्त और वार्ता के बाद लड़की के पिता ने किसी से बात पक्की कर ली तथा इसकी जानकारी किसी पैसे वाले को हो गयी तो कई बार ज्यादा दहेज़ की लालच देकर वह अपनी बेटी के लिये शादी पक्की कर लेता है. इस परिस्थिति में पहले वाला मन मसोस कर रह जाता है, लेकिन दशकों तक दोनों के बीच एक खाई सी बन जाती है. यही बात जमीन की खरीदबिक्री में भी लागु होती है. राजा के लोग चुपके-चुपके तिलक-दहेज़ प्रथा की अच्छाइयों का बखान करते रहते हैं और समाज बंटते जाता है.  
     किसी भी लोक सभा क्षेत्र में तीन-चार से अधिक गम्भीर प्रत्याशी नहीं होते। अन्य सभी डमी प्रत्याशी होते हैं. जहाँ धनाढ्य प्रत्याशी होते हैं, वहाँ डमी प्रत्याशियों की संख्या अधिक होती है जैसे महाराष्ट्र(2009 में पुणे में 35) और जहाँ साधारण धनिक होते हैं वहाँ कम जैसे पश्चिम बंगाल। धनी प्रत्याशी अपने डमी के सहारे दुर्गम और उग्रवाद प्रभावित क्षेत्रों में आसानी से पँहुच जाते हैं जबकि साधारण प्रत्याशियों के लिये ऐसे क्षेत्रों में पँहुचना काफी कठिन होता है. अपने देश में ऐसे क्षेत्रों की संख्या अब 200 तक पंहुचने को है. ऐसे क्षेत्रों में संचार व्यवस्था भी अभी तक सुस्त है.

     उक्त प्रकार के हथकंडे अपनाकर धनाढ्य प्रत्याशी आम जनता के बीच भाईचारा पनपने ही नहीं देते और जनता की ज्वलन्त समस्यायों से लोगों का ध्यान हटा देते हैं तथा कोई न कोई समूह का वोट पाकर जीत के करीब पँहुच जाते हैं.
     अधिसंख्य लोग समानान्तर राजनीति की मनोवृत्ति रखते हैं, यानि जो परिवार या समूह दूसरे परिवार या समूह से मनमुटाव रखता है, वह दूसरे परिवार या समूह के पसन्द वाले उम्मीदवार को वोट नहीं करता।
     धनाढ्य नेता चुनाव जीत कर या हार कर प्रायः क्षेत्र से चले जाते हैं, लेकिन बंटा हुआ समाज विभाजन की त्रासदी झेलते रहता है. कहीं-कहीं तो हिंसक झड़प भी हो जाती है. कई गुणवान लड़के लड़कियों की शादी मनमुटाव की भेंट चढ़ जाती है. चुस्त संचार व्यवस्था, विकास की राजनीति और धनाढ्य और समाज को बाँटने वाले नेताओं के इरादों को उजागर करने की राजनीति समाज को इस बीमारी से मुक्ति दिला सकती है. युवाओं को इस ओर ध्यान देना चाहिये।
     चुनाव आयोग उक्त कृत्यों को अपराध की श्रेणी में रखता है और भरसक इन अपराधों को रोकने का प्रयास करता है, लेकिन उसके पास सीमित साधनों और सूचना के अभाव के कारन इन्हे रोकने में सफल नहीं होता। जागरूक नागरिकों को भी चाहिये कि वह सही सूचना को मोबाइल के माध्यम से चुनाव आयोग तक समय पर पँहुचा दे.
नोट:- पाठकों की खट्टी-मीठी टिप्पणियों का सदैव स्वागत रहेगा।  
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