डम्मी प्रत्याशियों को खड़ा करना; चुनाव लड़ने की एक पुरानी रणनीति!

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    1967 के चुनाव के बाद से ही चुनाव में प्रत्याशियों की संख्या बढ़ने लगी है. पिछले लोकसभा चुनाव में पुणे(महाराष्ट्र) में प्रत्याशियों की संख्या 35 तक पँहुच गयी थी. प्रत्याशियों की संख्या और उन क्षेत्र से विजयी उम्मीदवारों के धन के तुलनात्मक अध्ययन से चौकाने वाले तथ्य सामने आ रहे हैं. जिन क्षेत्रों के विजयी प्रत्याशी धनी थे, वहाँ प्रत्याशियों की संख्या काफी अधिक थी.
    पहले कुछ राजनैतिक दलों में अवधारणा बनी थी कि लोक-सभा या विधान-सभा क्षेत्रों को तीन भागों में निम्न प्रकार से बांटा जाय---
A. वैसे क्षेत्र जहाँ पार्टी का संगठन मजबूत है यानि इन क्षेत्रों से पार्टी के बड़े नेताओं को चनावी मैदान में उतारा जाये, ताकि वे आसानी से जीत सकें,
B. वैसे क्षेत्र जहाँ पार्टी का संगठन मध्यम आकार का हो यानि जहाँ से पार्टी के जीतने की सम्भावना पक्की नहीं हो, लेकिन पार्टी के अच्छी छबि के नेता जीतने की हिम्मत रखते हों, वहाँ ऐसे ही नेता को उतारा जाये,
C. वैसे क्षेत्र जहाँ पार्टी का संगठन कमजोर हो वहाँ, युवा नेताओं को उतारा जाय, जो चुनाव लड़ते हुए जनता की समस्याओं को समझ सकें और अपनी योग्यता सिद्ध कर सकें। ऐसे नेता चुनाव हार कर भी पार्टी के लिये अच्छे और उपयोगी साबित हुए हैं. ऐसे नेताओं को लम्बी रेस का घोड़ा कह सकते हैं. ऐसे नेताओं को हारने के बाद भी संगठन के कार्यों में लगा दिया जाता था.
     धीरे-धीरे आर्थिक हित राजनैतिक हितों पर भारी पड़ने लगा और राजनीति मुनाफे का पेशा बनने लगी और धीरे-धीरे C. वर्ग के सीट बिकने लगे. बहुत से नव-धनाढ्य लोग या उनके पुत्र/पुत्री राजनीति में आने लगे. ऐसे लोगों का उद्देश्य अपनी जीत से ज्यादा राजनीति में अपने को स्थापित करने का रहता है यानि दूर-दूर तक ऐसे नेता को लोग जान जाते हैं. ऐसे नेताओं को किसी अधिकारी या जन-प्रतिनिधि से मिलकर अपनी बात कहने या किसी की पैरवी करने में कोई कठिनाई नहीं होती। ऐसे नेता किसी एक पार्टी से प्रतिबद्ध नहीं होते। इस तरह के नेताओं को डम्मी प्रत्याशी भी कहा जाता है.
     जिन नेताओं ने एक बार राजनीति का फल चख लिया है; बहुत कम दिन में ही अपना धन कई गुना बढ़ा लिया है, वे राजनीति छोड़ना नहीं चाहते। चुनाव आयोग में दायर शपथ पत्र इसके प्रमाण हैं. शपथ पत्र यह भी बताते हैं कि जो बड़े नेता चुनाव हार जाते हैं उनकी धन-वृद्धि की रफ़्तार काफी कम हो जाती है या किसी-किसी की तो ऋणात्मक हो जाती है. वे लोग चुनाव लड़ना एक जुआ समझते हैं. वे सब चुनाव जीतने के लिये तरह-तरह के राजनैतिक हथ-कण्डे अपनाते रहते हैं. ऐसे धुरन्धर नेता हमारे समाज की कमजोरियों को खोजते रहते हैं. हमारे समाज की एक कमजोरी है कि हमलोग जल्दी ही किसी पर विश्वास कर लेते हैं. इसका लाभ उठाते हुए धुरन्धर नेता लोग अपने पैसे के बल पर हमें बांटते भी रहते हैं. People are easily divisible
    यहाँ दो पुराने बुजुर्ग मित्र का एक वार्तालाप उद्धृत करना प्रासंगिक लगता है. पहले मित्र राज्य स्तरीय नेता बन गये थे और दूसरा किसान। दूसरा अपने तीनों बेटों को पढ़ाने के लिये अथक प्रयास किये। यहाँ तक कि अपनी आधी जमीं भी बेंच दी थी. दोनों मित्र काफी दिनों के बाद मिले थे. नेता मित्र ने अपने किसान मित्र से घर-गृहस्थी के बारे में पूछा। किसान मित्र ने बताया कि बड़ा पुत्र पढ़ने में काफी तेज था सो बड़ा सरकारी अधिकारी बन गया. मंझिला भी तेज था सो इंजिनियर बन गया और दोनों अपने बाल-बच्चों के साथ बाहर रहता है. छोटा बेटा पढ़ने में कमजोर निकला। उसे कोई नौकरी नहीं मिल पायी। अब किसानी भी लाभप्रद नहीं रहा. वह छोटा नेता बन गया. वह अपने बड़े नेता की कृपा से कुछ ठकेदारी पा लेता है और उसी से घर चल रहा है.
     लालची नेताओं ने प्रायः हमारे सभी गावों के 5-10 बेरोजगार युवकों की आदत बिगाड़ कर रख दी है. आदत इतनी बिगड़ चुकी है कि बिना पॉकेट मनी, दारु, मुर्गा, मोबाइल, पेट्रोल आदि के बूथ प्रबन्धन का काम करना ही नहीं चाहते। यदि कोई युवा समाज सेवा का काम करते हुए बूथ प्रबन्धन का काम करना भी चाहते हैं तो गाँव के बिगड़े हुए युवा उनसे मारा-मारी पर उतारू हो जाते हैं. हमारे गावों में आज भी आम मतदाता अपना मतदान केन्द्र का पता लगाने में अपने बल-बूते सक्षम नहीं है और वे लोग इस कार्य हेतु तथा-कथित अपने गाँव के बूथ एजेंटों पर ही निर्भर हैं. अब बूथ प्रबन्धन में एक नया काम जुड़ गया है. यह कार्य है मतदाताओं को भ्रमित करना।
     कुछ धुरन्धर और पेशेवर तथा चुनाव के प्रति गम्भीर राजनीतिज्ञ कुछ इलाकों(गाँव/महल्लों/कुछ जाति) में अपने कुकर्मों के चलते बदनाम हो जाते हैं यानि वे अकेले उन इलाकों में जा नहीं सकते। उन्हें लगता है कि अमुक-अमुक इलाके में उनको वोट नहीं मिलेगा तब चुनाव नजदीक आते ही ऐसे धुरन्धर और पेशेवर राजनीतिज्ञ ऐसे लालची छोटे नेताओं की खोज में लग जाते हैं, जिनका प्रभाव इलाके के उन क्षेत्रों(गाँव/महल्लों/अपनी जाति) में रहता है. उनके द्वारा ऐसे नेताओं को धन देकर चुनाव लड़ने के लिये प्रेरित किया जाता है. ऐसे नेता यानि डम्मी प्रत्याशी चुनाव लड़कर कुछ वोट प्राप्त कर अर्थात विरोधी का वोट काटकर अपने आका को जितवा देते हैं.
     कुछ धुरन्धर और पेशेवर तथा  चुनाव के प्रति गम्भीर राजनीतिज्ञ अपने सम्पर्क सूत्रों से पता लगा लेते हैं कि अमुक गावों में इन्हे किसी भी कीमत पर वोट नहीं मिलेगा और वहाँ के मतदाता इनके विरोधी प्रत्याशी को वोट दे सकते हैं तब वे अपने डम्मी प्रत्याशियों के माध्यम से वहाँ विकास न होने का बहाना बनाकर वोट वहिष्कार के लिये प्रेरित करते हैं. वे लोग भोली-भाली जनता को सुनाते रहते हैं कि "कोई नृप होहुँ, हमें का हानी। चेरी छोड़ कहाएब न रानी।" इस तरह के प्रचार से मतदाता प्रजातन्त्र के प्रति निराश होने लगता है और कभी-कभी तो भोले ग्रामीण मतदाता उनके बहकावे में आ जाते हैं तथा मतदान का वहिष्कार तक कर देते हैं.
     ऐसे ही लोगों को सभ्य भाषा में डम्मी प्रत्याशी या Non-Serious Candidate और देहाती भाषा/बोली में नकली या वोट कटवा प्रत्याशी कहा जाता है. चुनाव में इनलोगों का योगदान विरोधी प्रत्याशियों का कुछ वोट काटकर अपने आकाओं को जितवाना भर है, यानि ऐसे प्रत्याशियों को स्वयम् चुनाव जितने से कोई मतलब नहीं होता। चुनाव के बाद इनलोगों के धन में वृद्धि जरुर हो जाती है. हमारे युवा जो देश सेवा से ओत-प्रोत हैं उन्हें इस चुनावी बीमारी को समझनी चाहिये।
     कुछ लोग तो यहाँ तक कहते हैं कि सभी जाति के वोट के सौदागरों को नियमित रूप से अपने पेशेवर नेताओं से पॉकेट मनी मिलते रहता है और ये लोग चुनाव के समय डम्मी प्रत्याशियों के जीतने की झूठी भविष्यवाणी कर मतदाताओं को भ्रमित करते रहते हैं. ये लोग मतदाताओं को भ्रमित करने के लिये बूथ एजेन्टों का भरपूर मदद लेते हैं. जहाँ प्रत्याशी अधिक होंगे वहाँ मतदान का प्रतिशत कम होता है.
     डम्मी प्रत्याशी अपने प्रभाव क्षेत्र में लोक-सभा के चुनाव में भी क्षेत्रीयता के मुद्दों को इतना उछालते हैं कि राष्ट्रीय मुद्दे गौण हो जाते हैं. ये लोग प्रतिभाशाली और कर्मठ उम्मीदवारों को भी बाहरी बताकर उनकी छबि ख़राब करते रहते हैं. कुल मिलकर ऐसे नेता चुनाव स्वयम् जीतने के लिये न लड़कर वोट काटकर अपने आका को जितवाने का काम करते हैं.
     खर्च सीमा बढ़ा कर 40 लाख रुपये से 70 लाख रुपये कर दिया गया है. कई बार मीडिया में इस आशय की खबर आती रही है कि कुछ नेताओं का चुनावी बजट दस करोड़ रुपये से लेकर सौ करोड़ रुपये तक का रहा है. विगत चुनाव में भारी मात्रा में रुपये बरामद भी हुए हैं. ऐसे में डम्मी प्रत्याशियों के तो बल्ले-बल्ले इस बार भी रहने की सम्भावना है.     
      धुरन्धर और पेशेवर राजनीतिज्ञ अपने नकली प्रत्याशियों के माध्यम से अपने प्रतिद्वंद्वी के मतों को बिखरा देते हैं. ऐसे राजनीतिज्ञों का प्रयास रहता है कि अपने पक्ष के सम्भावित मतदाताओं को हर हथकण्डा अपना कर जोड़े रखें तथा प्रतिद्वंद्वी पक्ष के मतदाताओं को जुड़ने न दें. कभी-कभी तो नकली प्रत्याशी अपने प्रभाव वाले मतदाताओं को आखिरी समय में सड़क, मन्दिर आदि बनवाने के नाम पर अपने आका से पैसा दिलवाकर उनके पक्ष में मतदान करवाने में भी सफल हो जाते हैं.
    हमारे देश में बड़ी संख्या में छोटे-बड़े क्षेत्र हैं जहाँ "भेड़ और गरेड़ी" वाला सिद्धान्त काम करता है. यानि गरेड़ी जैसे चाहेगा, जिधर चाहेगा भेड़ियों को हाँक कर ले जायेगा। हमारे राजनीति के धुरन्धर व्यापारी ऐसे गरेडियों को खोजकर उन्हें अपने पक्ष में करने के लिए जायज-नाजायज सबकुछ करने को तैयार रहते हैं.
इन सब हथकण्डों के बाद भी बड़े नेता हारते रहे हैं. कहते हैं न "अर्जुन हारे भील से; वही धनुआ, वही बान. सब दिन होत न एक समान" और "काका के भी काका होता है!"
कहा जाता है कि समूह में काफी चर्चा के बाद मतदान के लिये लिया गया निर्णय प्रायः राष्ट्र हितकारी होता है. हमारे युवा लोगों को सामूहिक निर्णय के महत्व को समझना चाहिये। यह भी समझना चाहिये कि लालची प्रजा को धूर्त राजा(जन-प्रतिनिधि) ही मिलता है. सामूहिक चर्चाओं में नकली/वोटकटवा प्रत्याशियों की पहचान की जा सकती है. 
    डम्मी प्रत्याशी अपने अपने नेता(जिसने उन्हें खड़ा किया है) के लिये दलाल का भी काम करते हैं. इनका एक कार्य अपने नेता के मुख्य प्रतिद्वंद्वी प्रत्याशी हेतु कार्य करने वाले सक्रिय कार्यकर्ताओं की पहचान करना भी होता है. जब ऐसे कार्यकर्ताओं की पहचान हो जाती है तब उनसे सम्पर्क बढ़ाया जाता है. प्रायः अधिकांश कार्यकर्ता इस मानसिकता से ग्रसित रहते हैं कि चुनाव में कुछ कमा लेने में कोई बुराई नहीं है. इस मानसिकता का लाभ पेशेवर और धुरन्धर नेता खूब उठाते हैं और डम्मी प्रत्याशी के माध्यम से बहुत से विरोधी नेता के कार्यकर्ता को खरीद लेते हैं और उन्हें मतदान के ठीक तीन दिन पहले अपने कार्यक्षेत्र से बाहर चले जाने को कहा जाता है. इस तरकीब से भी पेशेवर नेताओं को कुछ लाभ मिल जाता है.  
    कहा तो जाता है कि अभी हमलोग संचार युग में रह रहे हैं. इंटरनेट और मोबाइल फोन का उपयोग कर मतदान से जुड़ी आवश्यक जानकारियों को आसानी से प्राप्त की जा सकती हैं, लेकिन ग्रामीण इलाकों में कम से कम झारखण्ड, बिहार ओड़ीसा और उत्तर प्रदेश में बिजली और इन्टरनेट नेटवर्क की स्थिति संतोषजनक नहीं रहने के कारण बूथ प्रबन्धन का कार्य उन्ही नकली प्रत्याशी और उनके बिगड़े हुए पेशेवर बूथ एजेंटों पर निर्भर है. जैसे-जैसे बिजली और इन्टरनेट नेटवर्क की स्थिति सुधरते जायेगी यह चुनावी बीमारी भी दूर होते जायेगी। तब तक हमारे महा शक्ति सम्पन्न चुनाव आयोग को इस बीमारी की ओर ध्यान देना चाहिये।
नोट:- इस आलेख की बातों से असहमति रखने वालों से मैं क्षमाप्रार्थी हूँ. पाठकों की खट्टी-मीठी टिप्पणियों का सदैव स्वागत रहेगा। 
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