अति वामपंथ का एक रूप

 बात 1977 की है। एक छोटा क्षेत्र वाम पंथ से आगे बढ़कर अति वामपंथ की ओर बढ़ गया। एक सुबह उस अति वामपंथ प्रभावित क्षेत्र के कई गांवों में दीवारों पर एक ही नारा लिखा गया था। वह नारा था - 

"मांस मांस सब एक है का सुअर का गाय।"

इस दीवार लेखन के नारे पर चर्चा होती रही। अति वामपंथी नेता उस नारे की व्याख्या अपने ढंग से करते रहे। उन नेताओं ने धर्म को गरीबों की मुक्ति में एक बड़ी बाधा बताते रहे। चाहे जो हो उस दीवाल लेखन के नारे ने उस क्षेत्र से बहुत ही भय का वातावरण बना दिया। यहां तक कि कुछ वामपंथी गरीब विशेषकर बूढ़े महिला पुरुष उस नारे से क्षुब्ध हो गए।

कुछ माह बाद राता राती उसी नारे के नीचे दूसरा नारा उसी लय में किसी समूह ने लिखवा दिया "......   ......  सब एक है का जोडू का माय।" अगले सुबह जब ग्रामीण उठे तो नए नारे को देख कर भ्रमित हो गए। उन्हे समझ में नहीं आ रहा था कि यह सब क्या हो रहा है। उस दूसरे नए नारे की बहुत चर्चा बहुत जोरों से होने लगी। लोग यही कहते रहें कि जब पहले वाला सही है तो दूसरा कैसे गलत है? 

मात्र एक नारे का उसी रूप रूप में प्रतिकार से उस पूरे क्षेत्र में धीरे धीरे सामाजिक स्थिति बदलने लगी। अब एक नया समाज बनने लगा।उसका परिणाम यह हुआ कि अति वामपंथ क्षीण हो गया।

यह घटना बिहार के पूर्वी चम्पारण के एक छोटे से क्षेत्र की है। आसपास के निकटवर्ती गांव के लोग दूसरे नारे के समर्थन में आ गए। कभी कभी उचित प्रतिकार भी सकारात्मक परिणाम लाता है।

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