राजधर्म और राज-कर्मी By KC Dubey

Shri KC Dubey
     संस्कृत वांग्मय में धर्म शब्द का बड़ा ब्यापक स्वरुप है। धर्म के विषय में लिखा है-- "धर्मो विश्वस्य जगत प्रतिष्ठा लोके धर्मिष्ठं प्रजा उपसर्पन्ति धर्मेया पापं पनुदन्ति धर्मे सर्वम प्रतिष्ठातम तस्माधर्मे परमं वदन्ति (त्रै. आरण्यक प्रपाठक-10, अनुवाद-63). धर्म समस्त संसार की प्रतिष्ठा है। लोक जीवन में सभी लोग धर्म निष्ठ व्यक्ति के पास जाते हैं।धर्म से सब लोग अपने पाप को दूर करते हैं। धर्म में सब लोग प्रतिष्ठित हैं।इसलिये धर्म को सब लोग श्रेष्ठ कहते हैं। पूर्व मिमांसा अध्याय-1, पाठ-2, सूक्ति-2 में कहा गया है-- "चोदना लक्षण अर्थो धर्मः। उपदेश या पुनीत आदेश या वेदविहित विधि में प्रोत्साहित या प्रेरित करने वाले लक्षण युक्त कर्म को धर्म कहते हैं।
     वैशेठिक अध्याय-1, अहिनक-1, सूक्ति-1 में "यतो अभ्युदय निःश्रेयस सिद्धि सह धर्मः।" अर्थात कहा गया है जिससे निःश्रेयस सिद्धि हो वह धर्म है। मनुस्मृति अध्याय-6, श्लोक-92 में कहा गया है --"धृतिः क्षमा दामोस्तेयम शौचमिन्द्रिय निग्रहः। धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकर्म धर्म लक्षण।।" धीरता, क्षमा, मन रोकना, अन्याय से दूसरों का धन नहीं लेना, पवित्रता, इन्द्रियों को रोकना, बुद्धि, आत्मज्ञान, सत्य बोलना और क्रोध नहीं करना ये दस धर्म के लक्षण हैं। मनु स्मृति के अध्याय-8 में कहा गया है-- "धर्म एव हतोहन्ति रक्षति रक्षितः। तस्मो धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोवधीत (श्लोक-15) एक एव सुइधर्मो निधने अभ्यनुयाति यः। शरीरीण समं नाशं सर्वमन्यधि गच्छति।" अर्थात नष्ट किया गया धर्म ही नाश कर देता है और रक्षा किया हुआ धर्म ही रक्षा करता है। इसलिये धर्म का त्याग नहीं करना चाहिये। धर्म ही एक मित्र है जो मरने पर भी अभीष्ट फल देने के लिये साथ जाता है और अन्य स्त्री, पुत्र आदि सब शारीर के साथ ही नाश को प्राप्त कर लेते हैं।
     महाभारत के स्वर्गारोहण पर्व (अध्याय 5, श्लोक-62-63) में महर्षि वेद व्यास घोषणा करते हैं कि "अर्ध्यवाहु विरौमेष न च कश्चिच्छणोति मे। धर्मादर्थाश्च  कामश्च स किमर्थं न सेव्यते। न जातु कामानन्न भयान्न लोभधर्म त्यजेज्जीवितस्यामि हेतो।।" ऊपर भुजा उठाकर जोर-जोर से मैं चिल्लाता हूँ, परन्तु कोई भी मेरी बात नहीं सुनता है। मेरा कहना है कि धर्म से अर्थ और काम प्राप्त होता है, इसलिये धर्म का सेवन क्यों नहीं करते हो?(62) यह याद रखना कभी भी काम से या भय से या लोभ से या जीने की इच्छा से धर्म का परित्याग नहीं करें(63)।।
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