सुशासन में बढ़ता कुपोषण
हमारा संविधान कहता है कि हमारा राष्ट्र "Welfare State" यानि "कल्याणकारी राज्य" होगा। सरकार ने इसी अवधारणा को साकार करने के लिये गरीबों के हित में बहुत सी कल्याणकारी योजनाएं चला रखी है. लेकिन अजीब बात है कि सुशासन में कुपोषण बढ़ता ही जा रहा है. ऐसा क्यों हो रहा है? इस ब्लॉग में इसी विसंगति का कारण खोजने का प्रयास किया जा रहा है.
दूध की कमी:- बच्चों के विकास में दूध का विशेष योगदान रहता है. जैसे-जैसे भारत से मांस का निर्यात बढ़ रहा है, वैसे-वैसे दूध का दाम भी बढ़ रहा है. तीव्र गति से बढ़ रही हमारी जन-संख्या भी दूध के मूल्य पर दबाव बढ़ा रहा है. हमारे कानून में दुधारू पशुओं और कम उम्र के गाय/बैल ऊंट आदि को काटना वर्जित है. अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में कम उम्र के गाय/बैल ऊंट आदि के मांस का मूल्य भी अधिक मिलता है. लेकिन भ्रष्टाचार के कारण इस कानून की धज्जियाँ उड़ाई जा रही है. कुपोषण को दूर करने हेतु दूध की कमी की पूर्ति बाज़ार में उपलब्ध महंगे दूध का पाउडर नहीं कर पा रहा है.
कृषि में बढ़ता मशीनीकरण भी किसानों के पास पशुओं की संख्या घटा रहा है. हर तरफ ट्रैक्टर और हार्वेस्टर का उपयोग बढ़ रहा है. इससे श्रमिकों में बेरोजगारी बढ़ रही. बेरोजगारी की स्थिति में कुपोषण बढ़ता है.
दूध की कमी:- बच्चों के विकास में दूध का विशेष योगदान रहता है. जैसे-जैसे भारत से मांस का निर्यात बढ़ रहा है, वैसे-वैसे दूध का दाम भी बढ़ रहा है. तीव्र गति से बढ़ रही हमारी जन-संख्या भी दूध के मूल्य पर दबाव बढ़ा रहा है. हमारे कानून में दुधारू पशुओं और कम उम्र के गाय/बैल ऊंट आदि को काटना वर्जित है. अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में कम उम्र के गाय/बैल ऊंट आदि के मांस का मूल्य भी अधिक मिलता है. लेकिन भ्रष्टाचार के कारण इस कानून की धज्जियाँ उड़ाई जा रही है. कुपोषण को दूर करने हेतु दूध की कमी की पूर्ति बाज़ार में उपलब्ध महंगे दूध का पाउडर नहीं कर पा रहा है.
कृषि में बढ़ता मशीनीकरण भी किसानों के पास पशुओं की संख्या घटा रहा है. हर तरफ ट्रैक्टर और हार्वेस्टर का उपयोग बढ़ रहा है. इससे श्रमिकों में बेरोजगारी बढ़ रही. बेरोजगारी की स्थिति में कुपोषण बढ़ता है.
मनरेगा:-Mahatma Gandhi National Rozgar Guarantee Act 2005 में गरीबों को वर्ष में कम से कम 100 दिन सरकार की ओेर से ग्राम पंचायतों के माध्यम से रोज़गार उपलब्ध कराने हेतु बनाया गया. इस कानून की धारा 12 में मशीनों का उपयोग वर्जित है, लेकिन आये दिन जेसीबी मशीन का उपयोग सड़क किनारे और सोन के बालू घाटों पर मिट्टी कटाई में देखा जा सकता है. मनरेगा से जुड़े लोग बताते हैं कि 200 घनफीट मिट्टी प्रत्येक मजदूर को काटना पड़ता है या इतनी ही मिट्टी ढोना पड़ता है, लेकिन कोई भी मजदूर वांछित मात्रा में मिटटी काटने या ढोने के लिये तैयार नहीं रहता है यानि मजदूरों की श्रम उत्पादकता घट रही है.
यहीं से मनरेगा में उत्कोच की शुरुआत होती है और वांछित कार्य मशीनों से कराये जाते हैं तथा मजदूरों के नाम से फर्जी बिल बनाने पड़ते हैं. इस तरह मनरेगा की अधिकांश राशि भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती है तथा मजदूरों के हाथ में कुछ Easy Money आ जाता है. इस पैसे का उपयोग अपने बच्चों को खिलाने के बजाय शराब में चला जाता है. अगर सुशासन रहता तो मजदूरों को पसीने की कमाई मिलती, जिसका उपयोग वह अपने परिवार में भरपूर खाने में करता और कुपोषण कम होता।
आँगनबाड़ी योजना:- ICDS (समेकित बाल विकास योजना) के अन्तर्गत अधिकांश गावों में आँगनबाड़ी योजना चलायी जा रही है. गर्भवती माताओं/दूध पिलाती माताओं और बच्चों में कुपोषण को दूर करने के लिये ही इसका गठन किया गया था, लेकिन कुपोषण मिटाने या कम करने में यह संगठन भी पूर्ण रूप से सफल नहीं हो पा रहा है। यह भी उत्कोच बढ़ा रहा है।
मध्याह्न भोजन योजना:- इस योजना में भी बड़े पैमाने की गड़बड़ी की शिकायत सामने आ रही है. पहली गड़बड़ी फर्जी विद्यार्थी का नामांकन और दूसरी गड़बड़ी बच्चों के भोजन की गुणवत्ता की है. खाते-पीते घरों के ऐसे बहुत से बच्चे हैं, जो कम गुणवत्ता के कारण स्कूल का सरकारी भोजन नहीं खाते हैं, लेकिन स्कूल प्रशासन उन बच्चों का भी बिल बना देता है. कहने को तो इस योजना पर निगरानी हेतु अभिभावकों की समिति भी कार्यरत है, लेकिन अधिकांश समिति प्रभावी नहीं है. कई लोगों का कहना है कि यह योजना बहुत ज्यादा मात्रा में आवारा पूंजी को उत्पादित कर रहा है.
"परिवार कल्याण योजना" और "जननी सुरक्षा योजना" का उपयोग भी अपना वोट बैंक बढ़ाने के लिये घाघ नेताओं द्वारा किया जा रहा है. इस दुष्प्रेरण से कुछ लोग अपने औकात से ज्यादा बच्चे पैदा कर रहे हैं. इस कारण भी बच्चों और महिलाओं में कुपोषण बढ़ रहा है.
चापा नल योजना:- इस योजना को कई एजेंसियों द्वारा क्रियान्वित किया जा रहा है जैसे सांसद विकास निधि से, विधायक विकास निधि से, PHED विभाग द्वारा और ग्राम पंचायत आदि द्वारा लगाये जा रहे हैं। प्रायः चापाकल में प्राक्कलन से कम पाइप लगाये जा रहे है, जिस कारण साधारण सूखे की स्थिति में चापाकल सूखने लग रहा है और लोग दूषित जल पपीने को बाध्य हो रहे है. इस कारण भी कुपोषण बढ़ रहा है. इस योजना से भी आवारा पूंजी या Easy Money बढ़ रहा है.
कुपोषण कम करने में दूध के बाद दालों का महत्वपूर्ण स्थान है. बच्चों में दालों की नियमित खपत निरन्तर कम होती जा रही है. दालों में सबसे ज्यादा प्रोटीन पाया जाता है. परिवार के बड़े लोग आसानी से प्रोटीन की कमी माँस-मछली/अण्डा से पूरा कर लेते हैं. इस कारण भी बच्चे प्रोटीन की कमी झेल रहे हैं, लेकिन अज्ञानतावश परिवार के बड़े लोग इस ओर ध्यान नहीं दे पाते।
विटामिनों की कमी:- सामान्य जन के घरों में साग-सब्जियों और ताजे फलों उपयोग तेजी से घट रहा है; परिणामतः इन घरों के बच्चों में कुपोषण बढ़ रहा है.
भारत का अधिकांश भाग में समशीतोष्ण जलवायु होने के कारण यहाँ शारीर को गर्म रखने के लिये शराब का सेवन और माँसाहार आवश्यक नहीं है, फिर भी विशेषकर उत्तरी भारत के राज्यों में शराब की खपत में बेतहाशा वृद्धि हो रही है. यह चिन्ता का कारण है. उत्कोच के पैसा से भी शराब का सेवन और माँसाहार बढ़ा रहा है. इस कारण दुधारू पशुओं की संख्या तेजी से घट रही है और दूध और माँस की कीमत तेजी से बढ़ रही है. अधिक बच्चों के पैदा होने के परिणाम स्वरुप भी बच्चों में कुपोषण बढ़ रहा है.
बड़े बुजुर्ग बताते हैं कि पसीने की कमायी से प्राप्त पैसे के खर्च की प्राथमिकता रोटी >कपड़ा > मकान > ईलाज >शिक्षा >मनोरंजन की होती है, जबकि आसानी से प्राप्त पैसा, जिसे आवारा पूँजी/अनकर पैसा आदि भी कहते हैं, के खर्च की प्राथमिकता इसके विपरीत होती है. किसी ने कहा है-- "What comes easy, won't last. What lasts, won't come easily."
सब्जी, दाल एवं कुपोषण घटानेवाले खाद्य पदार्थ की महंगाई न केवल बच्चों में कुपोषण बढ़ा रहा है, बल्कि वयस्क भी कुपोषण के शिकार हो रहे हैं. कुपोषित वयस्कों की श्रम उत्पादकता कम हो रही है.
हरित क्रांति, पीली क्रांति, और नीली क्रांति के बाद अब Pink Revolution आ रहा है. Mutton के Transport और Export पर तो सरकारी अनुदान भी दिया जा रहा है, इस कारण अब श्वेत क्रांति लड़खड़ा रही है और दूध के दाम में वृद्धि हो रही है, जिससे गरीब के बच्चों से दूध दूर होते जा रहा है और कुपोषण बढ़ रहा है.
कुपोषण उस समय भी स्पष्ट रूप दिखायी देने लगता है जब सेना या सुरक्षा बलों की नियुक्ति के समय आयोजित दौड़ में बड़ी संख्या में युवा निर्धारित समय में अपने लक्ष्य से पीछे छूट जाते हैं. उक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि कुपोषण बढ़ाने में कुशासन का योगदान है. सुशासन का जितना ढिंढोरा पीटा जा रहा है उतना सुशासन का असर समाज में नहीं दिखता. हो सकता है जिन्हे सुशासन का अपेक्षित असर नहीं दिखता उनकी आँखों में कुछ दृष्टि-दोष हो. यहाँ पर स्वास्थ्य का अर्थ सिर्फ लोगों के स्वास्थ्य से ही नहीं है बल्कि समाज के स्वास्थ्य से भी है.
@BishwaNathSingh
आँगनबाड़ी योजना:- ICDS (समेकित बाल विकास योजना) के अन्तर्गत अधिकांश गावों में आँगनबाड़ी योजना चलायी जा रही है. गर्भवती माताओं/दूध पिलाती माताओं और बच्चों में कुपोषण को दूर करने के लिये ही इसका गठन किया गया था, लेकिन कुपोषण मिटाने या कम करने में यह संगठन भी पूर्ण रूप से सफल नहीं हो पा रहा है। यह भी उत्कोच बढ़ा रहा है।
मध्याह्न भोजन योजना:- इस योजना में भी बड़े पैमाने की गड़बड़ी की शिकायत सामने आ रही है. पहली गड़बड़ी फर्जी विद्यार्थी का नामांकन और दूसरी गड़बड़ी बच्चों के भोजन की गुणवत्ता की है. खाते-पीते घरों के ऐसे बहुत से बच्चे हैं, जो कम गुणवत्ता के कारण स्कूल का सरकारी भोजन नहीं खाते हैं, लेकिन स्कूल प्रशासन उन बच्चों का भी बिल बना देता है. कहने को तो इस योजना पर निगरानी हेतु अभिभावकों की समिति भी कार्यरत है, लेकिन अधिकांश समिति प्रभावी नहीं है. कई लोगों का कहना है कि यह योजना बहुत ज्यादा मात्रा में आवारा पूंजी को उत्पादित कर रहा है.
"परिवार कल्याण योजना" और "जननी सुरक्षा योजना" का उपयोग भी अपना वोट बैंक बढ़ाने के लिये घाघ नेताओं द्वारा किया जा रहा है. इस दुष्प्रेरण से कुछ लोग अपने औकात से ज्यादा बच्चे पैदा कर रहे हैं. इस कारण भी बच्चों और महिलाओं में कुपोषण बढ़ रहा है.
चापा नल योजना:- इस योजना को कई एजेंसियों द्वारा क्रियान्वित किया जा रहा है जैसे सांसद विकास निधि से, विधायक विकास निधि से, PHED विभाग द्वारा और ग्राम पंचायत आदि द्वारा लगाये जा रहे हैं। प्रायः चापाकल में प्राक्कलन से कम पाइप लगाये जा रहे है, जिस कारण साधारण सूखे की स्थिति में चापाकल सूखने लग रहा है और लोग दूषित जल पपीने को बाध्य हो रहे है. इस कारण भी कुपोषण बढ़ रहा है. इस योजना से भी आवारा पूंजी या Easy Money बढ़ रहा है.
कुपोषण कम करने में दूध के बाद दालों का महत्वपूर्ण स्थान है. बच्चों में दालों की नियमित खपत निरन्तर कम होती जा रही है. दालों में सबसे ज्यादा प्रोटीन पाया जाता है. परिवार के बड़े लोग आसानी से प्रोटीन की कमी माँस-मछली/अण्डा से पूरा कर लेते हैं. इस कारण भी बच्चे प्रोटीन की कमी झेल रहे हैं, लेकिन अज्ञानतावश परिवार के बड़े लोग इस ओर ध्यान नहीं दे पाते।
विटामिनों की कमी:- सामान्य जन के घरों में साग-सब्जियों और ताजे फलों उपयोग तेजी से घट रहा है; परिणामतः इन घरों के बच्चों में कुपोषण बढ़ रहा है.
भारत का अधिकांश भाग में समशीतोष्ण जलवायु होने के कारण यहाँ शारीर को गर्म रखने के लिये शराब का सेवन और माँसाहार आवश्यक नहीं है, फिर भी विशेषकर उत्तरी भारत के राज्यों में शराब की खपत में बेतहाशा वृद्धि हो रही है. यह चिन्ता का कारण है. उत्कोच के पैसा से भी शराब का सेवन और माँसाहार बढ़ा रहा है. इस कारण दुधारू पशुओं की संख्या तेजी से घट रही है और दूध और माँस की कीमत तेजी से बढ़ रही है. अधिक बच्चों के पैदा होने के परिणाम स्वरुप भी बच्चों में कुपोषण बढ़ रहा है.
बड़े बुजुर्ग बताते हैं कि पसीने की कमायी से प्राप्त पैसे के खर्च की प्राथमिकता रोटी >कपड़ा > मकान > ईलाज >शिक्षा >मनोरंजन की होती है, जबकि आसानी से प्राप्त पैसा, जिसे आवारा पूँजी/अनकर पैसा आदि भी कहते हैं, के खर्च की प्राथमिकता इसके विपरीत होती है. किसी ने कहा है-- "What comes easy, won't last. What lasts, won't come easily."
सब्जी, दाल एवं कुपोषण घटानेवाले खाद्य पदार्थ की महंगाई न केवल बच्चों में कुपोषण बढ़ा रहा है, बल्कि वयस्क भी कुपोषण के शिकार हो रहे हैं. कुपोषित वयस्कों की श्रम उत्पादकता कम हो रही है.
हरित क्रांति, पीली क्रांति, और नीली क्रांति के बाद अब Pink Revolution आ रहा है. Mutton के Transport और Export पर तो सरकारी अनुदान भी दिया जा रहा है, इस कारण अब श्वेत क्रांति लड़खड़ा रही है और दूध के दाम में वृद्धि हो रही है, जिससे गरीब के बच्चों से दूध दूर होते जा रहा है और कुपोषण बढ़ रहा है.
कुपोषण उस समय भी स्पष्ट रूप दिखायी देने लगता है जब सेना या सुरक्षा बलों की नियुक्ति के समय आयोजित दौड़ में बड़ी संख्या में युवा निर्धारित समय में अपने लक्ष्य से पीछे छूट जाते हैं. उक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि कुपोषण बढ़ाने में कुशासन का योगदान है. सुशासन का जितना ढिंढोरा पीटा जा रहा है उतना सुशासन का असर समाज में नहीं दिखता. हो सकता है जिन्हे सुशासन का अपेक्षित असर नहीं दिखता उनकी आँखों में कुछ दृष्टि-दोष हो. यहाँ पर स्वास्थ्य का अर्थ सिर्फ लोगों के स्वास्थ्य से ही नहीं है बल्कि समाज के स्वास्थ्य से भी है.
@BishwaNathSingh
sundar
ReplyDeleteबहुत ही सार्थक लेख है। कुपोषण की समस्या झारखंड ही नहीं पूरे भारत में है।इसके तमाम कारण जो पूर्णतया सही हैं, आपने गिनाये हैं। भ्रष्टाचार, धन लोलुपता, मशीनीकरण, पशुओं की कभी आदि सभी प्रमुख कारण हैं। साथ ही स्वस्थ भोजन को लेकर हमारी लापरवाही भी है जो गरीबी और अशिक्षा के कारण उत्पन्न है। शराब, जुते, तम्बाकू आदि भी एक कारण हैं जिनके लिए पैसे कहां जुगाड़ कर लेते हैं पर भोजन के लिए नहीं। कुपोषण वाले परिवारों का औसत आकार 6-7 है और आमदनी बहुत कम। ऐसे में प्रत्येक सदस्य को भोजन का प्रबंध करना कठिन हो जाता है। इसलिए सरकारी तंत्र के विफलता के साथ साथ हमारी सोच में भी कहीं न कहीं कमी इसका कारण है।
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