हमारे तीर्थ-स्थान और वहाँ पल रहे कुछ पाखण्ड!

     काफी दिन पहले सम्भवतः नब्बे के दशक  के मध्य में मुझे जगन्नाथ पुरी की यात्रा करने का सुअवसर मिला था. भगवान जगन्नाथजी के दर्शन और पूरे परिसर के पूजा के अन्तिम चरण में मैं एक पीपल गाछ के पास गया. वहाँ बैठे एक पंडीजी ने पूजा कराया और अन्त में उन्होंने बताया कि इस पीपल के तना पर हिन्दू धर्म के सभी तेंतीस करोड़ देवी-देवताओं के नाम पर एक पैसा का लोग कच्चा सूत का धागा बंधवाते हैं और मेरी पत्नी को ऐसा करने हेतु संकल्प करने का निर्देश दिया। मैं समझ गया कि इसमें तेंतीस लाख रुपये का खर्च होने वाला है जो मेरी आर्थिक स्थिति में दूर-दूर तक नहीं समां रही थी. मैं झूठ भी नहीं बोलना चाहता था. अतः मैं उसे विनम्रता पूर्वक अस्वीकार कर दिया। उसके बाद वह पंडीजी मेरी पत्नी के तरफ देखने लगे. इस बात को मेरी पत्नी समझ नहीं सकीं और कुछ मौन तना-तनी भी हो गयी. उसके बाद मैं पूरे परिवार के साथ घर लौट तो आया लेकिन काफी दिनों तक घर से शान्ति गायब रही. मैं तो यह समझ रहा था कि जगन्नाथपुरी की यात्रा से घर में सुख-शान्ति और समृद्धि आयेगी और हुआ मेरे घर में उल्टा।
     कुछ सालोँ के बाद मैंने अपनी परेशानी कुछ जानकार और अनुभवी बुजुर्गों के समक्ष रखी. एक बुजुर्ग ने मेरी परेशानी अच्छी तरह समझी और बताया कि हमारे धर्मगुरुओं ने सभी तीर्थ-स्थान/मन्दिरों और वहाँ होने वाले पूजा-पाठ बहुत सोच समझ कर हमारे भले के लिये ही बनाये है. भगवान भक्तों को यह उदहारण के साथ समझा देना चाहते है कि जब हमारे पास के आदमी, हमारे ही आदमी बताकर वैसे लोगों को बेवकूफ बना सकते हैं, लोगों को ठग सकते हैं, जो अपने जीवन में सुख-समृद्धि की आशा लेकर हमारे दर्शन को आये हैं तो हमसे दूर रहकर लागों को ढोंग रचाकर कितना परेशान करते होंगे? इस उत्तर ने मुझे सन्तुष्ट कर दिया।
     मेरे चेहरे पर प्रसन्नता का भाव देखकर वह बुजुर्ग बहुत खुश हुए और मन कोई कोई और प्रश्न हो तो करने को कहा. कुछ देर के चिन्तन के बाद मैंने पूछा कि जो लोग तेंतीस करोड़ देवी देवताओं के नाम संकल्प ले लेते हैं हैं लेकिन उतना पैसे नहीं दे पाते, उनको वहाँ से मुक्ति कैसे मिलती है? मुझे ऐसा लगा कि उन्हें मेरे इसी प्रश्न का इन्तजार था. वे मुस्कुराये और बोले कि हमारे धर्म में तेंतीस कोटि देवी-देवताओं का वर्णन है. यहाँ कोटि का मतलब प्रकार है न कि करोड़। अन्त में तेंतीस रुपये लेकर मुक्ति दे दी जाती है. फिर मैंने पूछा कि अगर ऐसा है तो फिर प्रति देवी/देवता एक ही पैसा क्यों माँगा जाता है? उन्होंने बताया कि तेंतीस पैसा भी कम नहीं होता है. आप पुराने ज़माने की कल्पना करें जब एक रूपया में चौंसठ पैसे होते थे यानि आधा रूपया से थोड़ा ज्यादा, जिसे समाज के धनी लोग ही दे पाते थे.

     गुरूजी ने आगे बताया कि "पंडीजी" मूल शब्द पण्डितजी यानि ज्ञानी का ही अपभ्रन्श शब्द है. तीर्थ स्थानों पर या मन्दिरों में ज्ञानियों को बैठाया गया था जिनका कर्त्तव्य होता था लोगों को धर्म का रास्ता बताना। अब तो पंडीजी पाखण्ड के सहारे लोगों को गुमराह कर हिन्दू धर्म जो पहले सनातन धर्म के नाम से जाना जाता था को बहुत क्षति पँहुचा रहे हैं. हमारे धर्म को अभी सबसे ज्यादा नुकसान हमारे धर्म में व्याप्त आडम्बर और पाखण्ड से ही है, जिनका सामना करते हुए ही लोगों को जीना पड़ेगा। उन्होंने आगे बताया कि एक ज्ञानी महिला को भी इसी तरह की परेशानी के रास्ते गुजरना पड़ा था. लेकिन वह अपनी विद्वता से किसी मन्दिर परिसर में एक पीपल गाछ के नीचे जजमान की प्रतीक्षा में बैठे एक पंडीजी को यह कहकर छका दी थी कि "पंडीजी! आप तेंतीस करोड़ देवी-देवताओं का नाम एक एक-कर लेते जाईये मैं उनके नाम से एक-एक पैसा चढ़ाती जाउंगी".           अब तो उक्त महाज्ञानी बुजुर्ग का थोड़ा-थोड़ा मुझे चेहरा ही याद है लेकिन उनके द्वारा कही गयी बातें मुझे आज भी पूरी तरह याद है. उनको मेरा नमन!
bns

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