हमारे कानून की कुछ विसंगतियां?

1. मोटर दुर्घटना के मामले में जब किसी मनुष्य की मृत्यु होती है तब धारा 279/304A भारतीय दण्ड विधान के अन्तर्गत तीन साल के अधिकतम सजा का प्रावधान है जब कि यदि किसी मोटर दुर्घटना में किसी पालतू कुत्ता या कोई अधिसूचित जानवर मर जाय तो धारा 279/429 भारतीय दण्ड विधान के अन्तर्गत अधिकतम पाँच वर्ष की सजा का प्रावधान बनाया गया है.
     यानि हमारा कानून मनुष्य को पालतू कुत्तों से भी कम महत्व देता है. यह भेदभाव हमारी आज़ादी पर एक बदनुमा धब्बा लगता है. मानते हैं की आज़ादी के पूर्व अंग्रेजों या राजाओं के पास मोटर गाड़ियां थीं और कुत्तों के पालने का शौक उन्ही लोगों का था, आज़ादी के बाद अब हम किस मुंह से कह सकते हैं कि कानून सबके लिये बराबर होता है.
2. जेल से या पुलिस/न्यायिक कस्टडी से कोई व्यक्ति भाग जाय या उसे कोई आपराधिक मंशा से भगा दे तो धारा 224 या 225 भारतीय दण्ड विधान के अन्तर्गत जो सजा का प्रावधान है वह जमानती है भले ही भागने वाला व्यक्ति किसी राष्ट्रद्रोह या जघन्य अपराध का आरोपी या दोषी हो.
3. अगर किसी कारणवश ऐसे मोटर-दुर्घटना में जिसमे किसी मनुष्य की मृत्यु हुई हो, तीन वर्ष के अन्दर पुलिस आरोप-पत्र समर्पित नहीं कर पाती तो न्यायलय उस मामले में धारा 465 दण्ड प्रक्रिया संहिता के अन्तर्गत संज्ञान नहीं लेगा, लेकिन जब मोटर-दुर्घटना में कोई पालतू कुत्ता या अन्य अधिसूचित जानवर मर गया हो तो तीन वर्ष के बाद भी न्यायलय द्वारा संज्ञान लिया जायेगा।
4. शस्त्र अधिनियम की धारा 25(A)/26 और चोरी के आरोप में धारा 379 भारतीय दण्ड विधान के अन्तर्गत अधिकतम तीन वर्ष की सजा का प्रावधान है जब कि बिहार शराबबन्दी कानून में अधिकतम सजा पाँच साल बतायी जा रही है.
     यह सर्वविदित है कि उत्कोच से अर्जित पैसे का उपभोग परिवार के सभी सदस्य करते हैं जब कि परिवार का मुखिया ही जेल जाता है. इसके विपरीत  हमारे संस्कारों के कारण कोई भी परिवार के सभी सदस्य अपने घर में एक साथ शराब नहीं पीते, लेकिन घर में शराब पाये जाने पर नाबालिग सदस्य को छोड़ कर परिवार के अन्य सभी सदस्य जेल जाने के हकदार होंगे भले ही परिवार में वृद्ध क्यों न हों.
5. अगर आप पाँच या पाँच से अधिक आदमी मिलकर खज़ाना लूट लें तो अधिकतम सजा आजीवन कारावास है लेकिन यदि आप खज़ाना में रखे हुए करोड़ों रुपये को धूर्तता के साथ गवन कर लें या घोटाला कर लें तो अधितम सजा सात साल की हो सकती है. साथ ही खज़ाना लूट का ट्रायल शायद दस साल के अन्दर पूरा हो जाय लेकिन खज़ाना घोटाला में ट्रायल सालों साल चलती रहती है, जिस कारण उम्र ढलने से स्वास्थ्य  कारणों से भी आरोपियों को लाभ मिल सकता है.
6. अगर आपको कोई निर्दयता पूर्वक लाठी-डंडा से पीटकर आपका हाथ-पैर तोड़ दे तो आरोपी धारा 325 भारतीय दण्ड विधान के जमानती प्रावधान के अनुसार आरोपी को जमानत मिल जायेगा। हो सकता है कि हड्डी टूटने के कारण मुकदमा करने हेतु थाना जाने में आपको कुछ विलम्ब हो, लेकिन तबतक  झूठा जख्म बताकर प्रायः आपपर आपसे पहले मुकदमा कर दे. उसके बाद आपके मुक़दमे में आरोपी तबतक तारीख पर तारीख दिलवाता जायेगा जब तक कि आप सुलह न कर लें. जानकार बताते हैं कि मारपीट कर हड्डी तोड़ देने के मामले में बिना सुलह के सजा दुर्लभ होती है.
7. भारतीय दण्ड विधान की धारा 379 और 307 का दुरूपयोग अंग्रेजों द्वारा हमारे समाज को बाँटने में किया गया था. आज भी यह क्रम पहले ही जैसा चल रहा है. कानून की ये दोनों धारायें झूठी गवाही को प्रोत्साहित करतीं हैं और झूठी गवाही दशकों तक हमें एक नहीं होने देता। वास्तव में इन दोनों धाराओं में कानून में कोई विसंगति नहीं है लेकिन इनके अनुपालन में भारी विसंगति है.
    जब आप क्रोधवश किसी को दो-चार थप्पड़ मार देते हैं और तब पीड़ित को कहीं धूर्त सलाहकार मिल जाये तो मुकदमा करते समय प्रायः मारपीट की धाराओं के साथ इन दोनों धाराओं को जुड़वा देता है. मामला तब और जटिल हो जाता जब जाँचकर्ता कमजोर या लालची मिल जाये तो वह झूठी गवाही को भी सच लिखकर ऐसा रिपोर्ट बना देता है कि आपको अनावश्यक जेल जाना पड़ सकता है. ऐसे बढ़ा-चढ़ाकर बनाये गये मामले non-compoundable हो जाते हैं यानि इनमे माफ़ी मांगने या सुलह-सफाई की गुंजाइस नहीं रहती। ऐसे मामले अनावश्यक रूप से लम्बी अवधि तक चलते रहते हैं. भोला इंसान प्रायः इन दोनों धाराओं से छला जाता है.
8. अभी तक पीड़ित परिवार को जख्म-प्रमाण पत्र या अन्त्य परिक्षण प्रतिवेदन की सच्ची प्रति तब तक नहीं मिलती जबतक कि उस मुक़दमे में आरोप पत्र नहीं समर्पित कर दिया जाता। वे लोग खुश नसीब हैं जिन्हें इस चक्कर में नहीं पड़ना पड़ा है.
9. हमारे देश के मुख्य आपराधिक कानून "भारतीय दण्ड विधान 1960' में संशोधन कर एक धारा 304बी जोड़ा गया जिसमे "दहेज़ मृत्यु" हेतु अलग से सजा का प्रावधान किया गया था. उसमे बाल-विवाह और पुनर्विवाह में शादी को अलग से परिभाषित नहीं किया गया. यह सर्वविदित है कि "छेंका", "तिलक", "शादी" और "गवना" के अनुष्ठानों या रिवाजों के पूर्ण होने के बाद ही हमारा समाज शादी को स्वीकारता है, लेकिन इस बात पर विवाद होते रहता है कि सात साल की वैधानिक समय बच्ची की शादी से माना जाय या उसके गवना से. यही स्थिति पुनर्विवाह में भी हो जाती है. इस विवाद के कारण पीड़िता के साथ प्रायः उचित न्याय नहीं हो पाता।  
    हमारे देश में न्याय पाना अन्य विकसित देशों की तुलना में बहुत महँगा है. महँगा कानून हमारे लोगों के आमदनी की तुलना में बहुत महँगा है. इसे सस्ता करने हेतु अगली तारीख की सूचना उसके मोबाइल फोन पर सन्देश भेजकर दी जा सकती है. साथ ही साथ गवाहों की गवाही video conferencing से दर्ज की जा सकती है. अगर जज साहेब लोगों की बहाली में एक अतिरिक्त भारतीय भाषा की जानकारी रखने की शर्त को जरुरी बना दिया जाय तो उच्च न्यायालयों में अनुवाद हेतु होने वाले विलम्ब स्वतः समाप्त हो जायेंगे। आधुनिक तकनीक न्याय को त्वरित और सुलभ बनाया जा सकता है.
    इन विसंगतियों के साथ निष्क्रियता पूर्वक जीने से अच्छा है कि इन्हे दूर करने हेतु कुछ आवाज उठायी जाये।
नोट:- यह ब्लॉग कुछ जानकार और पीड़ितों से विचार-विमर्श पर आधारित है. इसमें कही गयी बातों पर विश्वास करने के पहले किसी क़ानूनी विशेषज्ञ से परामर्श जरूर कर लें. अगर किसी पाठक को हमारे कानूनों के इन विसंगतियों में दम लगता है तो कृपया इसपर अपनी आवाज उठायें।
@BishwaNathSingh

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