न्याय पाने के कठिन रास्ते भाग 1

हाल की कुछ घटनायें इस विषय पर चर्चा करने के लिए प्रेरित करती हैं। जैसे ~

1. रक्षित नाम के एक व्यक्ति ने किसी आरक्षित व्यक्ति से परेशान हो कहीं से भी न्याय पाने में निराश होकर अपनी जीवन लीला ही समाप्त कर ली।

2. इलाहाबाद HC ने कुछ वकीलों की याचिका पर SC/ST Act के संगठित दुरुपयोग की जांच हेतु सीबीआई को आदेश देना।

3. एक वरीय भाजपा नेता पर यौन उत्पीडन के एक मामले में चार वर्ष बीत जाने के बाद भी एफआईआर दर्ज नहीं होना। आदि

वर्तमान न्याय व्यस्था का इतिहास 1860 से प्रारम्भ होता है। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को कुचलने में अंग्रेजों द्वारा मानवाधिकार की सारी सीमाएं लांघने पर ब्रिटेन की दुनिया भर में किरकिरी हुई थी। ब्रिटिश सरकार ने भारत में कार्यरत कम्पनी सरकार से सत्ता अपने हाथ में लेकर बहुत से कानून बनवाये थे। लेकिन उनके बनाये सभी कानूनों का एक ही उद्देश्य था कि किसी तरह भारतीयों को कानून के जाल में उलझाकर रखा जाए। आज भी हमलोग उन्ही कानूनों को ढो रहे हैं। 


अभी अपने देश के विभिन्न न्यायालयों में लगभग पांच करोड़ मामले लम्बित हैं और यह संख्या प्रति वर्ष बढ़ती ही जा रही है। इसका एक अर्थ यह भी हुआ कि हर पांचवा परिवार कोर्ट कचहरी का चक्कर लगा रहा है। 

यह स्थिति अब बदलनी चाहिए। इस विषय पर आगे भी परिचर्चा जारी रखी जा सकती है।

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