हमारे न्यायालयों में करोड़ों मामलों के लम्बित रहने के कुछ कारण!

    मीडिया के ख़बरों के अनुसार हमारे न्यायालयों में करीब साढ़े तीन करोड़ मामले लम्बित हैं और यह हर महीने बढ़ता ही जा रहा है. इस तरह हमारी आबादी का लगभग 10% हिस्सा न्यायालयों में वर्षों चक्कर लगाते रहता है. कुछ लोग इस संख्या को और भी ज्यादा बताते हैं.
ऐसा होने के कुछ निम्न प्रकार के कारण लगते हैं:----
1. प्रायः मामलों की शुरुआत पुलिस थानों से होती है. कुछ मामलों की शुरुआत न्यायलय से भी होती है. पीड़ितों की आम शिकायत रहती है कि पीड़ितों का पुलिस थानों में उतना स्वागत नहीं होता, जितना कि वे उम्मीद करते हैं. आस-पास के कुछ दलाल लोग पीड़ित को घेर लेते हैं और उसका दोहन कर नमक-मिर्च, मसाला लगाकर प्रथम सूचना पत्र दर्ज करवा देते हैं. गवाहों को मालूम भी नहीं रहता है कि क्या जोड़ा या क्या घटाया गया है. इससे न्यायालयों को सच्चाई निकालने में काफी कठिनाई होती है और मामले अनावश्यक रूप से लम्बा चलते रचोरी, लूटहते है. पीड़ित को सबसे ज्यादा परेशानी चोरी(घर से या बाहर से), लूट और भूमि विवाद में हुए मारपीट के मामलों को दर्ज कराने में होती है. इसमें विलम्ब के चलते वाहन चोरी या लूट की घटना में बीमा दावे करने में पीड़ित को को काफी परेशानी होती है. पुलिस को Zero FIR or Fardbayan लेने की पुरानी तरकीब अपनानी चाहिये।
     यदि चोरी(घर से या बाहर से), लूट और भूमि विवाद में हुए मारपीट/हत्या के मामलों में ऐसी व्यवस्था की जाय कि पीड़ित को थाना नहीं जाना पड़े बल्कि  Internet(Online Registration of FIRs), मोबाइल आदि माध्यम से पीड़ित से हर जिला में सूचना लेने की केन्द्रीकृत प्रणाली हो तो मामले साफ़-सुथरे दर्ज होंगे और उसका अनुसन्धान भी त्वरित होगा। न्यायलय को भी ऐसे मामलों के निपटारे में सहूलियत होगी।        
2. कुछ महत्वपूर्ण और सम्वेदनशील मामलों के प्रथम सूचना पत्र प्रायः न्यायलय में विलम्ब से पंहुचते हैं. इससे यह स्पष्ट है कि मामले को दर्ज कराने में काफी सोच-विचार किया गया है. ऐसे में वादी से उसके कुछ प्रतिद्वन्दियों का नाम भी अभियुक्त के रूप में जुड़वा दिया जाता है. ऐसे मामलों के विचारण में न्यायलय को काफी समय और ऊर्जा खर्च करना पड़ता है और न्यायिक प्रक्रिया काफी लम्बी हो जाती है.
3. अनुसन्धान में पुलिस निर्दोष अभियुक्तों को प्रायः नहीं बचा पाती। यह कार्य न्यायालयों को करना पड़ता है, जिस कारण अनावश्यक रूप न्यायिक प्रक्रिया अपनानी पड़ती। ऐसे मामले में पुलिस अगर सही काम करती तो न्यायलय पर अनावश्यक बोझ कम पड़ता।
4. हमारी आपराधिक न्यायिक प्रणाली का एक महत्वपूर्ण अंग जेल होता है. प्रायः बड़े जिलों में तो  केन्द्रीय जेल है और वहाँ की स्थिति ठीक-ठाक बतायी जाती है, लेकिन छोटे जिलों या अनुमण्डल/तहसील स्तर पर सब-जेलों में उनकी क्षमता से चार-पाँच गुना विचाराधीन कैदी होते हैं. जाहिर है उन कैदियों को जमानत पर जल्दी ही छोड़ना पड़ता है और जब वे अभियुक्त बाहर आ जाते हैं तो विचारण को लम्बा खीचने का हर सम्भव प्रयास करते रहते हैं. इस कारण भी न्यायिक प्रक्रिया लम्बी होते रहती है.
5. धनी या प्रभावशाली अभियुक्त सुप्रीम कोर्ट के नीचे अदालतों के फैसलों को स्वीकार नहीं करते। फैसला प्रतिकूल आने पर वे लोग ऊपरी अदालतों में अपील करते रहते हैं और सुनवाई टालने का हर सम्भव प्रयास करते हैं. इस तरह मामलों की संख्या बढ़ती जाती है.
6. सम्मन और जमानती वारन्ट के तामिला में अत्यधिक विलम्ब के कारण भी न्यायिक प्रक्रिया रुकी रहती है और मामलों के अनावश्यक लम्बित रहने का कारण बनता है. यदि सम्मन और जमानती वारन्ट को SMS के रूप में उपयोग किया जाय तो मोबाइल क्रान्ति का उपयोग कर काफी कागज बचाया जा सकता है. इसी तरह बायोमेट्रिक प्रणाली से गवाहों की पहचान पर गवाही और जिरह होती तो फर्जी गवाही की समस्या का समाधान हो सकता है. कहा जाता है कि हमारे न्यायालयों में दुनिया में सबसे ज्यादा कागज की खपत होती है. SMS के उपयोग से अपने वनों में पुनः हरियाली लायी जा सकती है.
7. हमारे विधि विज्ञानं प्रयोगशालाओं और उनके विशेषज्ञों की संख्या हमारी आवश्यकताओं से कम है. इस कारण विशेषज्ञ प्रतिवेदन प्राप्त करने में विलम्ब होता है, जो हमारी न्यायिक प्रक्रिया को लम्बी कर देती है.
8. हमारा न्यायलय तारीख पर तारीख पर तारीख के लिये मशहूर है. छोटी-छोटी बात के लिये मामलों की सुनवाई अगली तारीख के लिये टल जाती है. अभियोजन पक्ष के वकील साहेब द्वारा गवाहों को भी काफी दौड़ाया जाता है. अगली तारीख का पता लगाना भी आसान नहीं होता। यह प्रक्रिया उत्कोच को भी बढ़ावा देता रहा है. अगली तारीख जानने की प्रक्रिया बड़ी जटिल होती है. इससे उत्कोच बढ़ता है. आज समय की पुकार है कि अगली तिथि की जानकारी SMS से सभी संबंधित लोगों को दी जाय.    
9. प्रोन्नति और पेंसन सम्बन्धी बहुत अधिक मामले अधिकारियों के मनमानी और समय पर उचित निर्णय न लेने के कारण उच्च न्यायलय और सर्वोच्च न्यायलय में पंहुचते हैं. इससे इन न्यायालयों में काम का बोझ बढ़ता है और अन्य मामले समयाभाव के कारण आगे खिसकते रहते हैं.
10. कभी-कभी हमारी जाँच एजेंसियां घटना और उनसे जुड़े अभियुक्तों का पता तो लगा लेती हैं, लेकिन मामले को खुली अदालतों में आरोपों को साबित करने लायक ठोस सबूत संकलित किये बिना अदालत में आरोप-पत्र दाखिल कर देती हैं. विचारण के क्रम में जज साहेब को भी सच्चाई का पता चल जाता है, लेकिन वे उन गुनहगारों को सबूत के आभाव में रिहा नहीं करना चाहते और सबूत का इंतजार करते रहते हैं और विचारण लम्बा खींचते चला जाता है. इस कारण भी अदालतों में लम्बित मुकदमों का अम्बार लगते जा रहा है. Vetting System को मजबूत कर इससे बचा जा सकता है.
11. हमारे न्यायालयों में स्वीकृत बल से कम न्यायिक अधिकारी उपलब्ध हैं. इन रिक्तियों को खाली रखने का कोई औचित्य नहीं है. इस कारण से न्यायिक अधिकारीयों पर कार्य का अत्यधिक दबाव रहता है, जिसका प्रतकूल असर मामलों के निष्पादन पर पड़ रहा है.  
12. निचली अदालतों में परम्परानुसार किसी निबन्धित वकील साहेब के देहावसान हो जाने पर उनकी याद में शोक-सभा के बाद न्यायिक कार्य बंद हो जाते हैं. उस दिन के निर्धारित न्यायिक कार्य किसी अगली तिथि तक के लिये टाल दिये जाते हैं. चूँकि वकालत पेशे में लोग सेवानिवृत्त नहीं होते हैं अतः किसी वकील के देहावसान पर न्यायलय के कार्य महीने में एक दो बार टलना सामान्य बात हो गयी है. इस कारण से भी मुक़दमे अधिक दिनों तक लम्बित रहते हैं. अब तो यह प्रक्रिया ऊपरी अदालतों में भी पँहुचने लगी है.
13. आज भी पीड़ित पक्ष को जख्म प्रमाण पत्र या अन्त्य परीक्षण प्रतिवेदन की प्रति वैध तरीके से नहीं मिलता है. इसके लिये उन्हें उत्कोच का सहारा लेना पड़ता है. साथ ही पीड़ित पक्ष आपराधिक मामले में अपना वकील नहीं रख सकता और फैसला प्रतिकूल आने पर ऊपरी अदालतों में अपील नहीं कर सकता है. ये दोनों परिस्थितियां पीड़ित पक्ष को निराश करती हैं. कभी-कभी अभियुक्त पक्ष के लोग सरकारी वकील को मिला लेते हैं. अभियुक्त पक्ष इसका लाभ उठाकर मामला को लम्बा खींचते चला जाता है.
    श्री अरविन्द केजरीवाल के दिल्ली के 49 दिन के मुख्य मन्त्रित्व काल में एक मामला प्रकाश में आया था कि एक प्रभावशाली नेता के विरुद्ध पुलिस ने आरोप-पत्र तो दायर कर दिया, लेकिन 14 वर्ष बाद भी उसे विचारण हेतु न्यायलय में नहीं भेजा गया। ऐसे और भी हजारों मामले देश भर में हो सकते हैं. आरोप-पत्र को न्यायलय को सुपुर्द नहीं करना भी  किसी घोटाला से कम नहीं लगता है. जब अनुसन्धानित मामले न्यायालय में भेजे ही नहीं जायेंगे तो उसका निपटारा कैसे होगा। इस कारण भी हजारों मामले न्यायालयों में अनावश्यक रूप से लम्बित पड़े रहेंगे और दुनिया भर में भारत की बदनामी होते रहेगी।
कुछ लोकप्रिय लोकोक्तियाँ--
1. एक नामी वकील साहेब का एक नवजवान बेटा वकालत पढ़कर आया और न्यायलय में अपना व्यवसाय प्रारम्भ किया। सर्वप्रथम उसने अपने पिता के एक पुराने मामले को तीन महीने में ही निपटा कर अपने पिता से गर्व से कहा-- "देखिये पिताजी! जिस मामले को अपने एक दशक से ज्यादा में भी नहीं निपटा पाये, उसे मैंने तीन महीने में ही निपटा दिया". उसके पिता मायूस होकर बोले--"जिस मामले से मैंने इतने दिनों तक रोजी-रोटी कमाया, उसे तुमने तीन महीने में ही गवां दिया".
2. अधिकांश पुलिस अधिकारीयों में इतना साहस नहीं होता कि वह मामले में निर्दोष फंसे लोगों को आरोप पत्रित होने से बचा सके.
3. बहुत से न्यायलय इस प्रतीक्षा में मामले को लटकाये रखते है कि अभियोजन पक्ष के गवाह और अभियुक्त/दोष-सिद्ध जल्दी मरे कि मामले को बन्द किया जा सके.
4. न्यायालयों के लोकप्रिय वकील साहेब के पास मामलों का अम्बार लगने लगता है और वकील साहेब नामी कहलाने लगते हैं.
5. न्याय करने में विलम्ब का अर्थ है किसी को न्याय से वंचित रखना।
6. विलम्ब से उत्कोच पनपता है.
दुनिया की सबसे बड़ी अदालत इतिहास होता है. कुछ दशकों बाद जब अदालतों में करोड़ों मामलों के लम्बित मामलों का इतिहास लिखा जायेगा तो शायद इसका इतिहास पढ़ने वाले लोग इसपर उपहास ही उड़ावेंगे। लेकिन यह भी कटु सत्य है कि कोई व्यक्ति या संस्था अपना इतिहास स्वयं ही बनाता है. निष्पक्ष इतिहासकार तो घटना का मात्र वर्णन ही करता है.
Note:- This article is based on some of my experiences and here say info provided by my friends. Readers are requested to verify facts in green text before believing it. My friends are insisting on it to be true, but I doubt it.
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