तिलक-दहेज़ प्रथा और हमारा समाज

    हमारे देश में लड़कों और लड़कियों के बीच का Sex Ratio लड़कों के पक्ष में थोड़ा सा झुका हुआ है, जिसका अर्थ हुआ कि यह अनुपात तिलक-दहेज़ को प्रोत्साहित नहीं करता। इसके बावजूद हमारे समाज में तिलक-दहेज़ की प्रथा बनी हुई है. मजाक(जोक) में यह भी कहा जाता है कि हमारे उच्च तकनीकी/मेडिकल संस्थानों में पढ़ने वाले अधिधांश छात्रों को धनी ससुर मिलते हैं. लगभग यही स्थिति प्रशासनिक पद प्राप्त करने वाले अधिकांश अविवाहित युवा की भी है. एक दूसरा जोक है- "नव-धनाढ्य लोगों को आसानी से अच्छा दामाद मिल जाता है".
    जब तिलक-दहेज़ नेताओं के बीच भी मुद्दा बन गया तब इसे एक सामाजिक बुराई मानते हुए संसद के संयुक्त अधिवेशन से तिलक-दहेज़(प्रतिषेध) अधिनियम 1961 पास हुआ और दहेज़ मृत्यु प्रताड़ना को रोकने के लिये भारतीय दण्ड विधान 1960 में उचित संशोधन कर धारा 304बी और 498A जोड़ा गया. कुछ लोगों का कहना है कि हमारे समाज से तिलक-दहेज़ प्रथा समाप्त हो गयी है, लेकिन NCRB के दहेज़ मृत्यु और महिलाओं के प्रताड़ना के सम्बन्धी आंकड़े उनके दावों को झुठलाते रहते हैं.
यहाँ पर समाज के छोटे वर्ग का उल्लेख किया जा रहा है जिसमे शादी-विवाह उनके अपनी ही जाति में होती है. यहाँ पर मात्र दो प्रकार के लड़की पक्ष का ही वर्णन किया जा रहा है:-
(1) जिनके पास अनकर पैसा अधिक है:- तिलक-दहेज़ प्रथा में अनकर पैसा का बड़ा महत्व होता है. अनकर पैसा का तात्पर्य ऐसा धन से है जिसको कमाने में उत्कोच का सहारा लिया जाता है और उस धन पर आयकर या किसी प्रकार के अन्य कर का भुगतान नहीं किया जाता है या जिस धन को सफ़ेद बनाने में टैक्स प्रबन्धन की सहायता ली जाती है.
इस प्रथा में दूसरा बड़ा कलाकार बीचवान होता है. बीचवान वह व्यक्ति होता है जो लड़का पक्ष और लड़की पक्ष के बीच मध्यस्थता की भूमिका निभाता है. बीचवान को एक बड़ा समाजसेवी भी कहा जाता है.
    जब कोई लड़का किसी अच्छे पद पर आसीन हो जाता है उच्च तकनीकी संस्थानों में दाखिला पा जाता है तब उसके यहाँ विवाह का प्रस्ताव आने लगते हैं. कभी-कभी ऐसा भी होता है कि अधिक संख्या में विवाह का प्रस्ताव आने पर लड़का का परिवार को समझ में ही नहीं आता है कि कितना तिलक-दहेज़ माँगा जाये। जैसे-जैसे एक से बढ़कर एक अनकर पैसे वाले आने लगते हैं तो तिलक-दहेज़ की माँग भी बढ़ती जाती है. अब तो यहाँ पर विशुद्ध रूप से अर्थ-शास्त्र के सिद्धान्त लागू होने लगते है. यह भी कहा जाता है कि जिस जाति में योग्य लड़कों की कमी होती है और साथ ही साथ उस जाति में अनकर पैसा की अधिकता होती है वहाँ तिलक-दहेज़ की मात्रा उसी अनुरूप अधिक होती है. इसे हम गणितीय रूप से हम कह सकते हैं कि दहेज़ की मात्रा अनकर पैसे के समानुपाती बढ़ता या घटता है. लेकिन दहेज़ की मात्रा योग्य लड़कों की संख्या के विसमानुपाती घटता या बढ़ता है.
    अब जिस लड़की पक्ष के पास अनकर पैसा जितना ज्यादा होता है वह उतना ही उच्चपदस्थ योग्य लड़का की तलाश करता है. जब किसी लड़का की तलाश पूर्ण हो जाती है तब बीचवान के माध्यम से तिलक-दहेज़ का लेनदेन की वार्ता(Negotiation) प्रारम्भ होती है. अगर वार्ता सफल नहीं हुई तो योग्य लड़का की तलाश का कार्य आगे बढ़ाया जाता है और इसी तरह एक न एक दिन वार्ता सफल हो जाती है और शादी-विवाह की प्रक्रिया तिलक-दहेज़ के साथ अपनी पूर्णता की ओर बढ़ जाती है.
(2) ऐसा लड़की पक्ष जिनके पास खानदानी जमीन या अन्य प्रकार के धन ज्यादा होते हैं:- ऐसे लोगों का मानना है कि उनके खानदानी सम्पत्ति में उनकी लड़की का भी हिस्सा है. अगर लड़की के हिस्से तक की जमीन को बेंच दें और उसकी शादी उससे ज्यादा जमीन या सम्पत्ति वाला लड़का से कर दें तो कोई नुकसान नहीं होगा। इस तरह जमीन-जायदाद बेंच कर ऐसे लोग अपनी बेटी की शादी बहुत ही ज्यादा तिलक-दहेज़ देकर बड़ी धूम-धाम से करते हैं.
    तिलक-दहेज़ वाली शादियों से हमारे समाज में आर्थिक गतिविधि भी बढ़ती है. शादी-विवाह के सीजन में सेवा क्षेत्र और विनिर्माण क्षेत्र में बड़ी संख्या में लोगों को रोजगार मिलता है और इस काल में लगभग सभी वस्तुओं और सेवाओं का मूल्य बढ़ा हुआ होता है. जिन लोगों को इससे रोजगार मिलता है वे लोग तिलक-दहेज़ वाली शादियों को अपने लिये भी एक उपहार के रूप में ही देखते हैं.
    1990 के दशक से कुछ लोगों ने "कन्या भ्रूण हत्या" जैसे बड़े ही अमानवीय तरीका अपना कर इस कुप्रथा से उपजी अपनी समस्या के निदान हेतु चोरी-छिपे प्रयास किये और कई लोगों ने इसमें सफलता भी प्राप्त की है. लेकिन बाद में ऐसे लोगों का सम्मान बहुत सीमित दायरे में ही सिमटता गया. अभी भी कभी-कभी इस तरीकों की चर्चा मीडिया में होते रहती है. इस तरीके की मान्यता हमारा समाज नहीं देता है.
    इस तिलक-दहेज़ प्रथा के समानान्तर ही या अपभ्रंश रूप में बिहार के पुराने मुंगेर जिला के आस-पास कई जिलों में समाज के निम्न मध्यम वर्ग के लोगों में एक पकडुआ विवाह  का चलन है. इसमें धन के स्थान पर बल का उपयोग होता है लेकिन स्थानीय समाज में ऐसी महिलाओं को तिलक-दहेज़ प्रथा की तुलना में ज्यादा सामाजिक मान्यता और सम्मान मिलता है.
    जिस वर्ग में तिलक-दहेज़ की प्रथा ज्यादा होती है उस वर्ग में लड़की की योग्यता का ज्यादा महत्व नहीं होता है. यानि ऐसे वर्ग में लड़की की न्यूनतम योग्यता का ही ध्यान रखा जाता है. एक ओर जहाँ इस प्रथा ने हमारे सेवा क्षेत्र और विनिर्माण क्षेत्र में बहुत से रोजगार पैदा किया है वहीँ दूसरी ओर इसने पैसा कमाने की अस्वस्थ प्रतिस्पर्द्धा को भी बढ़ावा दिया है. समाज में अब जिनके पास पैसा कम होता है वैसे लोग भी पैसे वाले वर्ग की बराबरी करने में लगे रहते हैं और कभी-कभी तो इसी क्रम में कई लोग कर्ज में भी डूब जाते हैं. ऐसे लोगों के लिये सरकार की "सुकन्या सावधि जमा योजना" बरदान साबित हो सकती है. अब लड़कियां भी पढ़-लिख कर बड़ी संख्या में रोजगार प्राप्त कर रही हैं. अगर रोजगार प्राप्त लड़कियों की संख्या में अपेक्षित वृद्धि हो जाये और अनकर पैसा की मात्रा में कमी आ जाये तो यह कुप्रथा धीरे-धीरे स्वतः ही समाप्त हो जायेगी।
नोट:- यह ब्लॉग बड़े पैमाने पर जानकार लोगों और भुक्तभोगी से हुई गपशप और बातचीत पर आधारित है. फिर भी पाठकों से अनुरोध है कि इस कुप्रथा पर विश्वास करने के पहले वे स्वयं भी इन तथ्यों को जाँच लें.    
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