सृजन घोटाला संस्थागत विफलताओं का भी परिणाम है

    आजकल बिहार के "सृजन घोटाला" की बड़ी चर्चा हो रही है. इस घोटाले के केन्द्र में सृजन नाम का एक गैर सरकारी(NGO) संगठन भागलपुर, बिहार में है. कुछ महीने पूर्व इस NGO की संचालिका मनोरमा देवी की मृत्यु हो गयी. उसके उत्तराधिकारी मनोरमा देवी की विरासत को सम्हाल नहीं पाये, जिसके कारण भागलपुर के एक अधिकारी का लगभग दो करोड़ रुपये के चेक bounce हो गया यानि उस सरकारी चेक को यह कहकर बैंकवालों ने लौटा दिया कि उस अधिकारी के खाते में उतनी राशि उक्त तिथि को नहीं थी जबकि सरकारी बही-खातों में उसके बैंक खाते में उससे ज्यादा राशि होनी चाहिये थी. यह एक असामान्य घटना साबित हुई और हंगामा मच गया. यह घोटाला बिहार के बाहर भी अख़बारों, टीवी और सोशल मीडिया में अभी भी छाया हुआ है और भविष्य में भी काफी दिनों तक छाया रहेगा।
    अब सवाल उठता है कि इसका नाम "सृजन घोटाला" क्यों पड़ा?  कुछ लोग तो इसे "पापड़ घोटाला" भी कहते हैं क्योंकि सृजन नाम के NGO की संचालिका स्व. मनोरमा देवी को अपने उस NGO को ज़माने में काफी पापड़ बेलने पड़े थे. पहले की व्यवस्था के अनुसार वित्तीय वर्ष के अन्त तक यानि इक्कतीस मार्च तक जो सरकारी पैसा खर्च नहीं हो पाता था वह पैसा राज्य सरकार या केन्द्र सरकार जिसकी भी राशि होउसे लौट जाता था यानि राशि को सरकारी ख़ज़ाने में सरेंडर कर दिया जाता था. पिछली सदी के अस्सी के दशक में यह व्यवस्था बनी कि बजट से पास और आवंटित राशि को सरकारी खजाना में जमा करने के बजाये सरकारी बैंकों में रखी जाये और राशि सरेंडर न कर अगले वित्तीय वर्ष में उसे खर्च किया जाये(वित्तीय व्यवस्था के जानकर इसका खण्डन कर सकते हैं). चूँकि भागलपुर में सरकारी बैंकों से होकर सरकारी राशि उक्त "सृजन" नाम के NGO के खाते में भी जाता था और वहीँ से घोटाला होता था अतः इसका नाम "सृजन घोटाला" पड़ गया.
    पहले यह घोटाला कुछ करोड़ का बताया गया जो अब बढ़ते-बढ़ते लगभग एक हजार करोड़ रुपये का हो गया है. बिहार के एक बड़े नेता के अनुसार इस तरह के घोटाले अगर अन्य जिलों में भी खोजे जायें तो घोटालों की कुल राशि पन्द्रह हजार करोड़ रुपये से पार कर जायेगी। यह भी बताया जा रहा है कि "सृजन" नाम के इस NGO के माध्यम से वर्ष 2003 से ही भागलपुर के सरकारी राशि का गबन बहुत ही सुनियोजित तरीके से इसके उजागर होने तक अनवरत किया जा रहा था. पहले बिहार स्वास्थ्य विभाग में हुए रोजगार घोटाला और दवा घोटाला से बदनाम हुआ. फिर चारा घोटाला, प्रतिभा घोटाला और अब सृजन घोटाला। लगता है कि बिहार बिना घोटाला के रह ही नहीं सकता है. अभी भी सृजन घोटाले में घोटालेबाजों द्वारा अपनायी गयी अपराध शैली पूर्णरूप से स्पष्ट नहीं हो पायी है.    
    कुछ लोग इस घोटाले को सांस्थानिक विफलता का एक दुष्परिणाम भी मानते हैं और इसके पक्ष में निम्नलिखित तथ्य बताते हैं:-
(1) सरकारी महकमों में दो तरह की पोस्टिंग बहुत दिनों से मानी जाती रही है. पहले तरह की पोस्टिंग को अलोकप्रिय पोस्टिंग और दूसरे तरह की पोस्टिंग को लोकप्रिय पोस्टिंग कहा जाता है. लोकप्रिय पोस्टिंग में आवास, बच्चों की पढाई, मनोरंजन, आवागमन, बाजार और अन्य प्रकार की सुविधायें अलोकप्रिय पोस्टिंग की तुलना में काफी अधिक होती है. अलोकप्रिय पोस्टिंग से कर्मचारी और अधिकारी ज्यादा छुट्टी पर जाते हैं. मजबूत कर्मचारी और अधिकारी तो ऐसे पोस्टिंग वाले जगह पर तो प्रायः कागजों पर ही रहते हैं. अलोकप्रिय पोस्टिंग से जब लोकप्रिय पोस्टिंग में जब स्थानान्तरण होता है तो स्थानान्तरित कर्मचारी बिना समय गंवाये अपने नये पोस्टिंग पर चले जाते हैं. इसके विपरीत लोकप्रिय पोस्टिंग वाले लोग कम छुट्टी जाते हैं और वहाँ से स्थानान्तरण होने पर वहीँ जमे रहने के लिये एंड़ी-चोटी का जोड़ लगा देते हैं. बहुत से लोग कुछ लोकप्रिय पोस्टिंग को मलाईदार पोस्टिंग भी कहते हैं.
    अब इस अवधारणा को सृजन घोटाला की पृष्ठभूमि में देखें तो पता चलता है कि इस घोटाले से जुड़े लोग कम छुट्टी गये हैं और स्थानान्तरण की निर्धारित अवधि तीन साल से बहुत ज्यादा दिनों तक घोटाले के उद्गम स्थल पर स्थल या उसके आसपास वर्षों से नियम विरुद्ध जमे हुए हैं.
(2) इस घोटाले से सम्बन्धित संस्थानों यथा ट्रेजरी, समाहरणालय, प्रखण्ड कार्यालयों, बैंकों और उक्त सृजन NGO आदि का नियमित उचित निरिक्षण और अंकेक्षण होते तो इस घोटाले का पर्दाफास बहुत पहले ही हो जाता। इन पोस्टों का कुछ औचक निरिक्षण भी होने चाहिये थे. कुछ निरिक्षण और अंकेक्षण हुए भी होंगे तो उन्हें खानापूर्ति की ही संज्ञा दी सकती है.
(3) आंतरिक और वाह्य निगरानी तन्त्र की विफलता भी सामने आ रही है. लोगों का कहना है कि सभी प्रकार की निगरानी खानापूर्ति बन कर ही रह गयी. इस घोटाले से सम्बन्धित लोग अपना जीवन काफी विलासितापूर्ण तरीके से बिता रहे थे. बहुत से नेता तो भारी-भरकम चन्दा भी पा लेते थे और इस घोटाले से लाभान्वित लोग नेताओं के स्वागत और उनकी चुनावी रैलियों में भी काफी खर्च करते थे.
(4) बही-खतों का मिलान(Reconciliation) भी नहीं होता था. नियमित समर्पित किया जाने वाले विवरणियों पर ध्यान देना भी अधिकारियों ने उचित नहीं समझा। ऐसे में घोटाला होना स्वाभाविक ही माना जा सकता है.
    इस घोटाले में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से लिप्त लोग बहुत कम छुट्टी बिताये हैं. ऐसे लोग नियम विरुद्ध तीन साल से अधिक समय तक अपने लोकप्रिय पोस्टिंग पर जमे रहे हैं. इस घोटाले से सम्बन्ध रखने वाले संस्थानों में औचक निरिक्षण या नियमित कारगर निरिक्षण/अंकेक्षण नहीं हुए हैं और वहाँ का सरकारी पोस्टों और बैंक का निगरानी तन्त्र  भी कारगर नहीं रहा है. और सबसे बड़ी बात तो सम्बन्धित बही-खातों और विवरणियों का मिलान या reconciliation की मान्य प्रक्रिया का पालन भी समय पर नहीं होने की बात बतायी जा रही है. इसमें सबसे आश्चर्यजनक बात यह बतायी जा रही है कि सम्बन्धित चेक genuine हैं और सभी चेक बैंक में सही रास्ते से पँहुचे हैं लेकिन उन चेकों पर के हस्ताक्षर और मुहर जाली बताये जा रहे है.
    यह एक अकाट्य सत्य है कि कोई भी व्यक्ति बिना स्वार्थ के कोई गलती नहीं करता है. उक्त नियमों का उल्लंघन बड़े पैमाने पर किया गया है, जो सम्बन्धित अधिकारियों की परोक्ष संलिप्तता को दर्शाता है. कुल मिलाकर ये सभी सुसंगत तथ्य सृजन घोटाला को सांस्थानिक विफलताओं की ओर ही इशारा कर रहे हैं. इस विचार पर अन्तिम मुहर तो समय ही लगा सकता है. तब तक इस पर चर्चा होते रहना चाहिये। इसपर सार्थक चर्चा हमारे प्रजातन्त्र को अवश्य ही मजबूत बनावेगा। यह भी हो सकता है कि बड़े पैमाने पर किये गये चर्चा और बहस इस तरह के घोटालों की पुनरावृत्ति रोकने में भी सहायक हो.
नोट:- यह ब्लॉग बहुत से जानकार लोगों से किये गये अनौपचारिक वार्तालापों पर आधारित है. इसके किसी भी भाग से असहमति रखने वालों से मैं क्षमाप्रार्थी हूँ. पाठकों की खट्टी-मीठी टिप्पणियों का सदैव स्वागत रहेगा। 
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