क्षत्रियों को दिये जा रहे उपदेश पर द्रौपदी का ठहाका!

    महाभारत के युद्ध में भीष्म पितामह वाणों की मृत्यु-शैया पर लेटे हुए थे और उत्तरायण में अपने प्राण त्यागने की प्रतीक्षा कर रहे थे. भीम अपने भाइयों के साथ भीष्म पितामह से कुछ उपदेश ग्रहण करने। पितामह उन सबों को क्षत्रिय धर्म के बारे में बताने लगे. पितामह के अनुसार क्षत्रियों को निम्न धर्म का पालन करना चाहिये:-
1. अगर युद्ध क्षेत्र में कोई पीठ दिखाते हुए भाग रहा है या अब युद्ध लड़ने की स्थिति में नहीं है तो उस पर वार या प्रहार करना बन्द कर देना चाहिये और अगर आपके सामने वैसे व्यक्ति पर कोई वार कर रहा हो तो उसका भरपूर प्रतिकार करना चाहिये।
2. अगर कोई महिला लाचारी में अर्द्ध-नग्न या  नंगे अवस्था में दिख जाये तो उसका दर्शन नहीं करना चाहिये और उस महिला अर्ध-नग्न या नंगी अवस्था में पँहुचाने वाले का भरपूर प्रतिकार करना चाहिये।
3. किसी क्षत्रिय के लिये बालक-वध वर्जित है.
    इन उपदेशों को सुनकर द्रौपदी ठहाका लगाते हुए हंस पड़ी और वहाँ से चलते बनी. द्रौपदी के इस अनअपेक्षित व्यवहार से सभी पाण्डू-पुत्र चौंक पड़े और द्रौपदी को रोक कर उसके ठहाका लगा कर पितामह के उपदेशों का उपहास उड़ाने का कारण पूछा। द्रौपदी ने गुस्से में बोलना शुरू किया कि बड़े लोग ऐसे ही उपदेश देते रहते हैं लेकिन उन उपदेशों का स्वयं पालन नहीं करते। उस समय पितामह का क्षत्रिय धर्म कहाँ चला गया था जब उनके सामने भरी सभा में उसका चीर-हरण करते हुए उसे नंगा किया जा रहा था?  इसके अलावे उस समय के सेनापति द्रोणाचार्य का क्षत्रिय धर्म उस समय कहाँ चला गया था जब रण-क्षेत्र में उसका नाबालिक पुत्र अभिमन्यु लाचार हो गया था. उस समय द्रोणाचार्य चाहते तो अपना क्षत्रिय धर्म निभाते हुए प्रतिकार कर सकते थे जिससे उस समय अभिमन्यु के प्राण की रक्षा हो सकती थी। क्या मृत्यु के समय मात्र तरह वर्ष का अभिमन्यु एक बालक नहीं था? उक्त सभी परिस्थितियों में द्रोणाचार्य ने अपना क्षत्रिय-धर्म क्यों नहीं निभाया? पितामह ने ही बलपूर्वक गान्धारी को उसके गन्धार राज्य से उठाकर लाया था. उस कुंवारी गान्धारी का विवाह एक अन्धे धृतराष्ट्र से उसकी इच्छा के विरुद्ध क्यों करा दिया जबकि पितामह स्वयं भी कुंवारे ही थे? उन्होंने गान्धारी से स्वयं विवाह क्यों नहीं किया?
    पाण्डू पुत्रों के मन में द्रौपदी के उक्त सभी प्रश्नों के उत्तर जानने की प्रबल जिज्ञासा होने लगी. पाण्डू-पुत्र द्रौपदी के उक्त प्रश्नों का उत्तर देने का आग्रह मृत्यु-शैय्या पर पड़े पितामह से करने लगे. पितामह ने कहा कि द्रौपदी बेटी सत्य वचन बोल रही है. इस पर एक एक पाण्डू-पुत्र ने कहा कि यानि आपने जानबूझ कर वैसा अनैतिक कार्य किया; यह तो उचित नहीं है.
    पितामह ने भारी मन से उत्तर दिया। उन्होंने कहा - "मैं उक्त परिस्थितियों के समय दुर्योधन पक्ष में था और मनुष्य जिसका अन्न खाता है उसका व्यवहार अन्न के स्वामि की मानसिकता के अनुरूप हो जाता है. अर्जुन के वाणों से दुर्योधन का खाया हुआ अन्न से बना खून अब मेरे शरीर से निकल चुका है जिस कारण मैं अब निरपेक्ष हूँ". "इसीलिए सत्य का साथ देते हुए मैंने उक्त उपदेश दिया है. अब यह आप सब पर निर्भर करता है कि आप सब मेरे इन उपदेशों का पालन किस सीमा तक तत्कालीन परिस्थितियों में करते हैं". पितामह के उत्तर से संतुष्ट होकर सभी पाण्डू-पुत्र शिष्टाचारवश पितामह को प्रणाम कर अपने आवास की ओर प्रस्थान कर गये।
    देहातों में इसी से मिलता-जुलता एक कहावत प्रचलित है कि "पर उपदेश कुशल बहुतेरे। जे आचरहिं ते नर न घनेरे।।".
    यहाँ "क्षत्रिय" शब्द का आशय संघर्ष करने वालों से है. "युद्ध" और "संघर्ष में अन्तर यही है कि जहाँ युद्ध शस्त्र से लड़ा जाता है वहीँ संघर्ष परिश्रम और कौशल से. हम तो जीवन भर किसी न किसी रूप में पूरे मन या आधे मन से संघर्ष करते ही रहते हैं. जब हम पूरे मन से रणनीति बनाकर संघर्ष करते हैं तो परिणाम स्पष्ट रूप से सकारात्मक दिखायी देता है. डार्विन बाबा के अनुसार भी सभी प्राणियों के जीवन काल में कभी-कभी ऐसा भी समय आता है जब उन्हें अपने अस्तित्व के लिये भी संघर्ष करना पड़ता है और वे ही अपने अस्तित्व को बचाये रखने में सफल हो पाते हैं जो सभी दृष्टिकोण से सक्षम होते हैं.
    सामान्यतः व्यक्ति दो प्रकार के होते हैं. पहले प्रकार में वैसे व्यक्ति आते हैं जो धन के सृजन हेतु संघर्ष करते हैं और दूसरे प्रकार वाले व्यक्ति दूसरों द्वारा सृजित धन को येन केन प्रकारेण छीन लेने हेतु संघर्ष करते हैं. अब सरकार का दायित्व है कि पहले प्रकार के व्यक्ति के धन की रक्षा करे और दूसरे प्रकार के व्यक्ति को दण्डित करे. अगर सरकार अपने इस दायित्व के निर्वाहन में कोताही बरतती है तो समाज में अव्यवस्था और उसके बाद अराजकता फैलती है.
    अब हम अपने पुराने वर्ण-व्यवस्था पर दृष्टिपात करें। श्रुति-सम्मत रूप से यह तथ्य तार्किक लगता है कि एक ही परिवार में चारों वर्ण के लोग रहते थे. अब तो एक ही व्यक्ति में चारों वर्ण को भी खोजा जा सकता है. जब वह संघर्ष करता होता है तो क्षत्रिय, जब वस्तु या सेवा का उत्पादन कर रहा होता है तो वैश्य, जब वह अपने परिवार या दूसरों की किसी भी तरह से सेवा कर रहा होता है तो शूद्र और अंत में जब उपदेश देने की स्थिति में आकर सार्थक कार्य कर रहा होता है तो वह व्यक्ति ब्राह्मण है. हमें गर्व से चारो वर्णों को जीते रहना है तभी एक सवस्थ समाज और तब स्वस्थ राष्ट्र बनेगा। हमें कोई ऐसा उपदेश नहीं देना चाहिय जिसे सुनकर कोई द्रौपदी ठहाका लगाकर हमारा उपहास उड़ावे।
इसी सन्दर्भ में महान कलाकार स्व सुनील दत्त का एक गाना
नोट:- यह एक श्रुति-सम्मत ब्लॉग है. महाभारत के ज्ञाता पाठक लोगों से विनती है कि इस पर अपनी खट्टी-मीठी टिपण्णी अवश्य देने का कष्ट करें।
Some content contributor
Shri Kamta Singh
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