सरकारी अस्पताल की इलाज और राजनीति

    एक नेताजी ने टिकट दिलाने की लॉबी करने वाले कुछ लोगों को प्रभावित कर विधायक का टिकट प्राप्त करने में सफलता प्राप्त कर ली लेकिन उनके लिये चुनाव जीतना काफी कठिन था. उनके लिये चुनाव जीतना इसलिये भी कठिन था क्योंकि उनके पार्टी के विपरीत चुनावी लहर चल रही थी. उनके पक्ष में एक बात बहुत मजबूत थी कि जिस नेता के पुत्र होने का दावा कर उन्होंने छल से ही टिकट प्राप्त किया था उनका इलाका में बहुत प्रभाव था. वो प्रभावशाली नेताजी अब वृद्ध हो गये थे और बीमार चल रहे थे. इन कारणों से उनकी राजनैतिक गतिविधि लगभग शून्य सी हो गयी थी. उस समय उस इलाके में संचार की व्यवस्था भी कमजोर थी. इसके अलावे विपरीत राजनैतिक लहर चलने के कारण उनके पार्टी के अन्दर कोई विशेष प्रतिस्पर्द्धा भी नहीं चल रही थी.
    विधायक के उम्मीदवार(अब आगे से नेताजी) अपने चुनाव क्षेत्र में अपनी पार्टी के अपने क्षेत्र के उक्त बुजुर्ग नेता को हवाला देकर कई बड़े नेता की चुनावी रैली कराने में सफल रहे. नेताजी सभी रैलियों में मंच पर अपने बुजुर्ग नेता(अपने कथित पिता) का फोटो लगाना नहीं भूलते थे. चुनाव समाप्त हुआ और विपरीत चुनावी लहर में भी कुछ सौ मतों के अन्तर से नेताजी चुनाव जीत गये. इस चुनाव में नेताजी के पार्टी के अधिकांश बड़े नेता हार चुके थे और उनकी सत्ताधारी पार्टी कुछ दर्जन सीट पाकर विपक्ष में बैठने को मजबूर हो गयी.
    साल भर तो नेताजी की नेतागिरी मजे में चली लेकिन आखिर में भेद खुल ही गया. हुआ यह कि जिस बुजुर्ग और प्रभावशाली नेता का पुत्र बताकर नेताजी ने टिकट प्राप्त किया था उनका भी नेताजी के हमउम्र ही एक पुत्र था. जब उसे सच्चाई का पता चला तो उसे लगा कि उसके और उसके परिवार के साथ छल हुआ है. यद्यपि कि उसका राजनीति में रुझान कम था लेकिन उसे लगा कि अगर वह टिकट प्राप्त करने का प्रयास करता तो शायद चुनाव लड़कर जीत भी जाता। उसे उसके गांव वाले भी उसकी इस नाकामी पर उसे चिढ़ाते रहते थे. अब उसने ठान लिया कि अगले चुनाव में वह स्वयं चुनाव लड़ेगा; भले ही उसे उसके पिताजी की पार्टी टिकट न दे. तब तक वंशवाद की राजनीति भी हावी होने लगी थी. वह चुनाव जीत चुके नेताजी की पोल भी घूम-घूम कर खोलने लगा. लेकिन अब इसका क्या फायदा? अब नेताजी तो विधायक बन चुके थे और उनके सामने पार्टी बदलने का विकल्प भी खुला हुआ था क्योंकि तब तक दल-बदल(निषेध) कानून अस्तित्व में नहीं आया था.
    अब नेताजी की इज़्ज़त अपनी पार्टी में पहले जैसी नहीं रही. ऐसे में नेताजी को अगले चुनाव जीतने की चिन्ता सताने लगी. धीरे-धीरे और चपके-चुपके नेताजी सत्ताधारी दल के नेताओं से मेल-जोल बढ़ाने लगे लेकिन सत्ताधारी दल में भी उनकी कोई विशेष पैठ नहीं बन सकी. विपक्षी दल में होने के कारण उनकी कमाई भी ज्यादा नहीं थी. फिर भी नेताजी ने हार नहीं मानी और अभी से उन्होंने अपनी अगली चुनावी रणनीति बनानी शुरू कर दी. काफी आत्ममन्थन के बाद उन्होंने दो भाग में अपनी चुनावी रणनीति बनायीं। पहले भाग में उन्होंने तय किया कि वे अपने क्षेत्र के कुछ ऐसे बेरोजगारों को अपने इलाके में ही सड़क और भवन निर्माण तथा मरम्मत के छोटे-छोटे ठेका दिलवावेंगे जिनके पास कुछ पैसा होगा। तब तक ठेकेदारी में Subletting की प्रथा चल पड़ी थी.
    नेताजी की दूसरी चुनावी रणनीति थी अपने विधान सभा क्षेत्र के गरीब मतदाताओं को पटना के बड़े सरकारी अस्पताल में इलाज करवाने में मदद करने की. पिछले चुनाव में गरीबों का अधिकांश वोट एक दूसरे पुराने वामपंथी नेता को मिला था. इस बार नेताजी अपने क्षेत्र के कुछ गरीबों को अपने पक्ष में प्रभावित करना चाहते थे ताकि अगले चुनाव में गरीबों का वोट उन्हें मिल सके. तब तक उदारीकरण और निजीकरण के कारण साधारण बिमारियों का इलाज भी साधारण लोगों के लिये महँगी साबित होने लगी थी. अब धीरे-धीरे आला से और नाड़ी पकड़ कर बीमारी की पहचान करने की परम्परा पैथोलॉजिकल टेस्ट लेने लगा था और वह भी डॉक्टर साहेब के पसंदीदा लैब से.
    नेताजी अभी से ही यानि चुनाव के लगभग तीन वर्ष पूर्व से ही चुपके-चुपके अपने अगले चुनाव प्रचार में जुट गये. वे अपने विधान सभा क्षेत्र में कार्यरत बड़े ठेकेदारों से मिले। बड़े ठेकेदार भी खुश थे कि एक वर्तमान विधायक उन लोगों से मिलने आ रहा है. अब तक तो वे लोग रंगदारी से ही त्रस्त थे. नेताजी ने उन बड़े ठेकेदारों को बताया कि अगर वे लोग उनके द्वारा मौखिक रूप से नामित बेरोजगारों को उनकी योग्यता के अनुरूप ठेकेदारी की "Subletting" कर दी जाये तो वे उनके कारनामों पर चुप्पी साध सकते हैं. यह तो दोनों पक्षों के लिये "win win" की स्थिति थी. सभी बड़े ठेकेदारों ने सहर्ष नेताजी की बात मान ली. इससे नेताजी द्वारा नामित बेरोजगार भी खुश हो गये.
    अब नेताजी अपनी दूसरी रणनीति को सफल बनाने में जुट गये. नेताजी ने उन छोटे ठेकेदारों को निर्देश दिया कि क्षेत्र के वैसे साधारण लोगों को PMCH में उपचार कराने हेतु प्रेरित करें जो अपने क्षेत्र में अपना उपचार कराने में कठिनाई अनुभव कर रहे हों. वे पटना में उन लोगों की यथाशक्ति मदद करेंगे। उन छोटे ठेकेदारों के लिये भी यह कोई बड़ा काम नहीं था. अब धीरे-धीरे नेताजी के इलाके के लोग अपनी या अपने परिवार की इलाज हेतु PMCH आने लगे. PMCH में इलाज तो मुफ्त थी लेकिन साधारण लोगों के लिये बड़ी समस्या उनके attendants के ठहरने और किसी guide की अनुपलब्धता थी. नेताजी ने अपने सरकारी आवास में ही ठहरने की एक अस्थायी व्यवस्था कर दी और अपने खर्चे से अपने क्षेत्र के ही एक पढ़ा-लिखा बेरोजगार को guide के रूप में बहाल कर लिया।
    नेताजी ने अपनी पूरी निष्ठा के साथ अपनी उक्त दोनों रणनीतियों को कार्यरूप दिया और इनके क्रियान्वयन  पर वे हमेशा ही अपनी पैनी नज़र रखते थे. नेताजी के इलाके के साधारण लोग बहुत लाभान्वित हो रहे थे. वे लोग प्रायः नेताजी के आतिथ्य और उनके guide से सन्तुष्ट हो कर अपने घर लौट रहे थे. वे लोग तो नेताजी की किसी प्रकार के बुराई सुनने को भी तैयार नहीं हो रहे थे. पूरे इलाके में धीरे-धीरे नेताजी का यश बढ़ने लगा और उनके इलाके से PMCH आने वालों की संख्या भी बढ़ने लगी. नेताजी का guide जहाँ रोगियों और उनके आदमियों के लिये एक सहृदय समाजसेवी था वहीँ अन्य मकसद से आकर नेताजी के आवास में ठहरने वालों के लिये कड़क था. वह अन्य लोगों को वहाँ से भगा देता था.
    नेताजी लोगों से कहा करते थे कि विधायकों को ऐसे तो बहुत सी सुविधाये, बहुत से अधिकार और विशेषाधिकार मिले हुए हैं फिर भी उन्हें सरकारी खर्चे पर एक guide को अपने कार्यकाल तक के लिये उनके मन मुताबिक बहाल करने का अधिकार मिलना चाहिये। ऐसा होने से किसी विधायक को ज्यादा बेईमानी करने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। वे इस बात से भी दुखी रहते थे कि उनकी तरह ही बहुत से विधायकों को भी अपने-अपने क्षेत्र के अधिकारियों और ठेकेदारों तथा चुनाव में चन्दा देने वालों की बहुत सी गलतियों को नज़रअंदाज़ करना पड़ता है, जिसका खमियाजा अंततः समाज को ही भुगतना पड़ता है. वे गलत लोगों से चुनावी चन्दा लेने के भी धुर विरोधी रहे. लेकिन उन्होंने इस समस्या को सुलझाने में अपना कोई विशेष योगदान नहीं दिया। जिस सिस्टम ने उन्हें टिकट दिलाया अब वे उसी सिस्टम के विरोधी हो गये. अब उनका मानना था कि टिकट वितरण में अब लॉबी सिस्टम बन्द होना चाहिये।
    अगले चुनाव में भारी विरोध के बावजूद भी "Sitting, Getting" के सिद्धान्त पर नेताजी को पुनः अपनी पार्टी का टिकट मिल गया. इस चुनाव में नेताजी के प्रचारक उनके दर्जन भर छोटे ठेकेदार और वैसे साधारण लोग थे जिनके उपचार के क्रम में उन्होंने पटना के सरकारी अस्पताल में यथाशक्ति मदद की थी. नेताजी ने भी अब अपने इन्ही प्रचारकों को संगठित किया। उन लोगों ने नेताजी के चुनाव प्रचार में अपना भरपूर सहयोग दिया। इस चुनाव में नेताजी के लिये उनके द्वारा मदद किये गये परिवारों की दुआयें भी खूब साथ दे रहीं थीं. जब चुनाव परिणाम आया तो इस बार नेताजी पहले से लगभग पच्चीस प्रतिशत अधिक मत पाकर जीत गये. उनकी इस अवधारणा कि पुष्टि हो गयी कि कुछ बेरोजगारों की मदद और सरकारी अस्पताल में जन-साधारण की मदद करके लगभग पच्चीस प्रतिशत मतों में वृद्धि कर सकते हैं.
नोट:- यह ब्लॉग श्रुतिसम्मत है. लेकिन जिन लोगों ने मुझे इन बातों को बताया था उनकी विश्वसनीयता मेरी नज़रों में बहुत है. अतः मुझे इस कहानी पर पूरा विश्वास है. पात्रों का नाम देना मुझे उचित नहीं लगता है. पाठकगण इसे काल्पनिक मान सकते हैं.
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Comments

  1. बढ़िया व्यंग है वर्तमान राजनीति और राजनीतिज्ञों पर

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