भावनाओं का असर दो-तीन महीने ही रहता है जबकि आर्थिक कारकों का सालों-साल
प्रायः लोग भावनाओं का असर दो-तीन महीने ही अनुभव करते हैं. इसके विपरीत जबकि आर्थिक कारकों का सालों-साल सालों-साल रहता हैं. भूलना मानव स्वभाव का एक महत्वपूर्ण अवयव है. हमारे मस्तिष्क की स्मृति सीमित होती है. हम नयी बातों को याद करते हैं और हमारे स्मृति-पटल से पुरानी बातें मिटती जाती हैं. एक पुरानी कहावत भी "बीती ताहि बिसारिये आगे की सुधि लेय". बड़े-बुजुर्ग लोग यह भी कहते रहे हैं कि यदि हम पुरानी बातों को ही रटते रहेंगे तो हम आगे नहीं बढ़ पायेंगे। बहुत सी पुरानी सभ्यताओं में भी किसी की हत्या का बदला लेने का अधिकार सिर्फ उसके नाती-पोतों तक ही सीमित रखा गया था और उसके बाद के पीढ़ी द्वारा बदले में की गयी हत्या को अपराध माना गया था. उक्त कहावत और मान्यता पीढ़ियों के अनुभव और साधू-सन्तों आत्म-मन्थन और आपसी विचार-विमर्श के बाद ही बनी होंगी।
आधुनिक इतिहास की बहुत सी घटनायें भी उक्त तथ्य की पुष्टि करते हैं. इस सम्बन्ध में पृथ्वीराज चौहान और ग़ोरी की माफ़ी और पुनः आक्रमण की घटनाओं को उद्धृत करना उचित लगता है. पृथ्वीराज अपनी भावनाओं में बहकर ग़ोरी को हमेशा क्षमा कर देता था, लेकिन जब उसकी हार हुई तो उसके साथ क्या दुर्व्यवहार हुआ इसे सभी जानते हैं. पृथ्वीराज के भावना में बह कर की गयी उसकी ऐतिहासिक भूल का दुष्प्रभाव हम आज भी भुगत रहे हैं क्योंकि उसके बाद हम गुलाम हो गये और हमारे ऊपर भारी टैक्स लगाये गये. हमारे पूर्वजों को मानसिक और शारीरिक अलग से भुगतने पड़े. भारी कर और बेगारी ने हमारी समृद्धि छीन ली. अगर भावना में आकर पृथ्वीराज ने उक्त गलती नहीं की होती तो शायद हमारी आर्थिक स्थिति आज से कहीं बेहतर होती। पृथ्वीराज के भावना में आकर उसकी माफ़ी का असर तो उसके जीवन काल में ही समाप्त हो गया लेकिन उसके आर्थिक दुष्प्रभावों का असर कई सदियों के बीत जाने पर भी हम भुगत रहे हैं.
1953-54 में भावनाओं में बहकर हमारे प्रथम प्रधान मन्त्री ने बिना सीमा को परिभाषित और उसे जमीन पर चिन्हित किये ही तिब्बत को हमारे पडोसी देश चीन को सुपुर्द कर दिया। इस कृत्य का भावनात्मक असर सात साल ही रहा लेकिन उसके आर्थिक कारकों का दुष्प्रभाव हम आज भी झेल रहे हैं. अब तो कई लोग 1971 की ऐतिहासिक घटनाओं को भुगतने के बाद इन्दिरा गाँधी को भारत का आधुनिक पृथ्वीराज भी कहने लगे हैं जिन्होंने अपनी भावना में बहकर हजारों युद्ध-अपराधियों को भी सम्मानपूर्वक छोड़ दिया था जिन्होंने दिल दहलाने वाले मानवाधिकार उल्लंघन के सामूहिक घटनाओं को अंजाम दिया था. उसका दुष्परिणाम आर्थिक रूप से हम आज भी झेल रहे हैं. अगर इतिहास के पन्नों में आप झांके तो आपको इस तरह के दर्जनों उदहारण मिल जायेंगे।
आजकल भीड़ द्वारा भावनाओं में आकर की गयी हत्याओं की चर्चा जोरों पर है. किसी समस्या पर चर्चा होना अच्छा रहता है. चर्चाओं से ही कोई समाधान निकलेगा और अधिकारियों को भी उचित कार्यवाई करने हेतु वाध्य होना पड़ेगा। ऐसी बात नहीं है कि भीड़ द्वारा की जा रही हत्याये कोई नयी बात हो. पहले भी डाइन-विसाही का आरोप लगाकर और चोरी, मुखबिरी, बलात्कार आदि के आरोप लगाकर भीड़ द्वारा हत्यायें की जाती रही हैं लेकिन तब स्मार्टफोन नहीं होते थे जिस कारण बाहर के लोगों को ऐसी हत्याओं पर विश्वास भी नहीं होता था. बहुत सी हत्यायें तो जन-अदालत लगाकर और उसे समाज हित में बताकर कर दी जातीं थीं और कहीं हल्ला भी नहीं होता था. अगर मामला प्रशासन तक पँहुचा भी तो कोई गवाही नहीं मिलती थी और प्रशासन द्वारा खानापूर्ति कर वैसे मामलों का इतिश्री कर दिया जाता था. लेकिन इन सब घटनाओं से काफी दिनों तक पीड़ित परिवारों को आर्थिक कठिनाइयां झेलनी पड़ती हैं.
अब तो बहुत जानकारियाँ स्मार्टफोन में ही कैद हो जा रही हैं. अगर सिर्फ गौ-रक्षकों की बात की जाये तो यह बात माननी पड़ेगी कि कुछ युवा लोग धूर्त नेताओं के बहकावे में आ जा रहे हैं और जब तक पूर्ण सच्चाई प्रकाश में आयेगी तब तक युवाओं की जिन्दगी बरबाद हो जायेगी. जब सरकार ने कुछ राज्यों में गो-हत्या पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगा दिया है तब अब यह प्रशासन की जवाबदेही है कि अपने कानून को लागू करे. भीड़ द्वारा की गयी कोई भी घटनाएँ आकस्मिक नहीं होती। दिन-दहाड़े सार्वजनिक जगहों पर ऐसी घटनाओं का होना सूचना-तन्त्र की विफलता का भी परिचायक है.
किसी भी समस्या का समाधान सिर्फ कानून बना देने से नहीं हो सकता। कानून तो एक tool मात्र है. गो-हत्या का समाधान बड़े पैमाने पर गौ-शालाओं और कत्लगाहों के वैध निर्माण के बगैर शायद ही सम्भव हो. आशा है कि आज के सत्तासीन लोग भावनाओं में आकर अपने तात्कालिक लाभ के लिये ऐसी कोई बात को अंजाम नहीं देंगे जिसका दुष्परिणाम आर्थिक रूप से हमारी कई पीढ़ियों को भुगतना पड़े।
नोट:- इस ब्लॉग के तथ्यों से असहमति रखने वालों से मैं क्षमा चाहता हूँ। पाठकों की खट्टी-मीठी टिप्पणियों का सदैव स्वागत रहेगा।
https://Twitter.com/BishwaNathSingh
आधुनिक इतिहास की बहुत सी घटनायें भी उक्त तथ्य की पुष्टि करते हैं. इस सम्बन्ध में पृथ्वीराज चौहान और ग़ोरी की माफ़ी और पुनः आक्रमण की घटनाओं को उद्धृत करना उचित लगता है. पृथ्वीराज अपनी भावनाओं में बहकर ग़ोरी को हमेशा क्षमा कर देता था, लेकिन जब उसकी हार हुई तो उसके साथ क्या दुर्व्यवहार हुआ इसे सभी जानते हैं. पृथ्वीराज के भावना में बह कर की गयी उसकी ऐतिहासिक भूल का दुष्प्रभाव हम आज भी भुगत रहे हैं क्योंकि उसके बाद हम गुलाम हो गये और हमारे ऊपर भारी टैक्स लगाये गये. हमारे पूर्वजों को मानसिक और शारीरिक अलग से भुगतने पड़े. भारी कर और बेगारी ने हमारी समृद्धि छीन ली. अगर भावना में आकर पृथ्वीराज ने उक्त गलती नहीं की होती तो शायद हमारी आर्थिक स्थिति आज से कहीं बेहतर होती। पृथ्वीराज के भावना में आकर उसकी माफ़ी का असर तो उसके जीवन काल में ही समाप्त हो गया लेकिन उसके आर्थिक दुष्प्रभावों का असर कई सदियों के बीत जाने पर भी हम भुगत रहे हैं.
1953-54 में भावनाओं में बहकर हमारे प्रथम प्रधान मन्त्री ने बिना सीमा को परिभाषित और उसे जमीन पर चिन्हित किये ही तिब्बत को हमारे पडोसी देश चीन को सुपुर्द कर दिया। इस कृत्य का भावनात्मक असर सात साल ही रहा लेकिन उसके आर्थिक कारकों का दुष्प्रभाव हम आज भी झेल रहे हैं. अब तो कई लोग 1971 की ऐतिहासिक घटनाओं को भुगतने के बाद इन्दिरा गाँधी को भारत का आधुनिक पृथ्वीराज भी कहने लगे हैं जिन्होंने अपनी भावना में बहकर हजारों युद्ध-अपराधियों को भी सम्मानपूर्वक छोड़ दिया था जिन्होंने दिल दहलाने वाले मानवाधिकार उल्लंघन के सामूहिक घटनाओं को अंजाम दिया था. उसका दुष्परिणाम आर्थिक रूप से हम आज भी झेल रहे हैं. अगर इतिहास के पन्नों में आप झांके तो आपको इस तरह के दर्जनों उदहारण मिल जायेंगे।
आजकल भीड़ द्वारा भावनाओं में आकर की गयी हत्याओं की चर्चा जोरों पर है. किसी समस्या पर चर्चा होना अच्छा रहता है. चर्चाओं से ही कोई समाधान निकलेगा और अधिकारियों को भी उचित कार्यवाई करने हेतु वाध्य होना पड़ेगा। ऐसी बात नहीं है कि भीड़ द्वारा की जा रही हत्याये कोई नयी बात हो. पहले भी डाइन-विसाही का आरोप लगाकर और चोरी, मुखबिरी, बलात्कार आदि के आरोप लगाकर भीड़ द्वारा हत्यायें की जाती रही हैं लेकिन तब स्मार्टफोन नहीं होते थे जिस कारण बाहर के लोगों को ऐसी हत्याओं पर विश्वास भी नहीं होता था. बहुत सी हत्यायें तो जन-अदालत लगाकर और उसे समाज हित में बताकर कर दी जातीं थीं और कहीं हल्ला भी नहीं होता था. अगर मामला प्रशासन तक पँहुचा भी तो कोई गवाही नहीं मिलती थी और प्रशासन द्वारा खानापूर्ति कर वैसे मामलों का इतिश्री कर दिया जाता था. लेकिन इन सब घटनाओं से काफी दिनों तक पीड़ित परिवारों को आर्थिक कठिनाइयां झेलनी पड़ती हैं.
अब तो बहुत जानकारियाँ स्मार्टफोन में ही कैद हो जा रही हैं. अगर सिर्फ गौ-रक्षकों की बात की जाये तो यह बात माननी पड़ेगी कि कुछ युवा लोग धूर्त नेताओं के बहकावे में आ जा रहे हैं और जब तक पूर्ण सच्चाई प्रकाश में आयेगी तब तक युवाओं की जिन्दगी बरबाद हो जायेगी. जब सरकार ने कुछ राज्यों में गो-हत्या पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगा दिया है तब अब यह प्रशासन की जवाबदेही है कि अपने कानून को लागू करे. भीड़ द्वारा की गयी कोई भी घटनाएँ आकस्मिक नहीं होती। दिन-दहाड़े सार्वजनिक जगहों पर ऐसी घटनाओं का होना सूचना-तन्त्र की विफलता का भी परिचायक है.
किसी भी समस्या का समाधान सिर्फ कानून बना देने से नहीं हो सकता। कानून तो एक tool मात्र है. गो-हत्या का समाधान बड़े पैमाने पर गौ-शालाओं और कत्लगाहों के वैध निर्माण के बगैर शायद ही सम्भव हो. आशा है कि आज के सत्तासीन लोग भावनाओं में आकर अपने तात्कालिक लाभ के लिये ऐसी कोई बात को अंजाम नहीं देंगे जिसका दुष्परिणाम आर्थिक रूप से हमारी कई पीढ़ियों को भुगतना पड़े।
नोट:- इस ब्लॉग के तथ्यों से असहमति रखने वालों से मैं क्षमा चाहता हूँ। पाठकों की खट्टी-मीठी टिप्पणियों का सदैव स्वागत रहेगा।
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"भूखे भजन न होये गोपाला" आर्थिक गतिविधियां हमारे पेट से जुड़ी हैं। भावनाओं में बहकर चाहे जो करें पर पापी पेट का सवाल एक सच्चाई है।— Shailesh Maurya (@shail_my) July 9, 2017
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